गुरु नानक ने अपने भ्रमण के दौरान एक गांव में डेरा लगाया। वहां उन्होंने ग्रामवासियों को समानता व भाईचारे का पाठ पढ़ाया। गांव में एक धनी जमींदार था। उसने गुरु नानक को अपने यहां भोजन करने का निमंत्रण भेजा। गुरुजी ने उसके संदेशवाहक से कहा, 'भाई, मैं किसी के घर जाकर भोजन नहीं करता। कोई भक्त मुझे जो रूखा-सूखा भेज दे वही मेरे लिए पर्याप्त रहता है और हां, आज के भोजन के लिए मैं एक भक्त को स्वीकृति दे चुका हूं।'
संदेशवाहक ने जब सारी बात जमींदार को बताई तो वह क्रोध से तिलमिला उठा। उसने सोचा, 'मैं जमींदार हूं। मेरे रहते गुरुजी किसी और का भोजन कैसे स्वीकार कर सकते हैं।' उसने तुरंत अपनी पत्नी से कहा कि वह स्वादिष्ट पकवान तैयार करे। जब भोजन तैयार हो गया तो वह खुद भोजन लेकर गुरुजी के पास पहुंचा।
संयोग से तभी वह निर्धन व्यक्ति मोटी-मोटी रोटियां और चटनी लेकर पहुंचा, जिसे नानक ने भोजन लाने की स्वीकृति दी थी। गुरु नानक ने निर्धन व्यक्ति का खाना लिया और प्रेम से खाने लगे। जमींदार ने इसे अपना अपमान समझा। वह बोला, 'गुरुजी, आप मेरे स्वादिष्ट भोजन को स्वीकार कीजिए। इसकी रूखी-सूखी रोटियों में क्या रखा है?' इस पर गुरु नानक ने मुस्कराते हुए कहा, 'इन सूखी रोटियों में प्रेम और स्नेह का मीठापन है।' इस पर जमींदार बोला, 'मेरी पूरियां भी बेहद नरम और मीठी हैं।' गुरु नानक ने कहा, 'नहीं प्यारे भाई, तुम्हारी पूरियों में क्रोध और अहंकार की कड़वाहट है। इन्हें मैं नहीं खा सकता।' यह सुनकर जमींदार का अहंकार चूर-चूर हो गया
Friday, October 14, 2011
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