Tuesday, October 18, 2011

खजाने का रखवाला

बगदाद के खलीफा हजरत अली अपने कुछ खास उसूलों के लिए जाने जाते थे। उनके दिल में प्रजा के लिए बेहद प्यार था। वह कभी अपने अधिकारों का दुरुपयोग नहीं करते थे। वह भी अन्य कर्मचारियों की तरह राजकाज और प्रजा की सेवा के बदले हर रोज शाम में सिर्फ तीन दिरहम लिया करते थे। दिरहम वहां की मुद्रा थी। उनका यह वेतन दूसरे कर्मचारियांे के वेतन से बहुत कम था। अक्सर उनके सलाहकार और दोस्त उनसे कहा करते थे , ' आप तो राज्य के मालिक हैं और यह बहुत बड़ी उपलब्धि है। आपको राज्य की सुविधाओं का खुलकर उपभोग करना चाहिए। खूब ऐशोआराम से जीना चाहिए।

आप इस तरह अभाव और सादगी से क्यों जीते हैं ?' इस पर हजरत अली का जवाब होता था , ' राज्य का खजाना और सुविधाएं मेरे और मेरे परिवार के उपभोग के लिए नहीं हैं , मैं बस इनका रखवाला हूं। प्रजा ने मुझे इनकी हिफाजत की जिम्मेदारी सौंपी है। फिर मैं इनका इस्तेमाल कैसे कर सकता हूं। ' खलीफा के इस जवाब से सब निरुत्तर हो जाते थे। खलीफा की बेगम भी अपने शौहर की सिद्धांतप्रियता से भलीभांति परिचित थी। फिर भी एक बार उसने उनसे प्रार्थना की , ' अगर आप मुझे तीन दिनों की तनख्वाह पेशगी ला दें , तो मैं ईद पर बच्चों के लिए नए कपड़े बनवा लूं। ' खलीफा बोले , ' अगर मैं तीन दिन जिंदा न रहा तो यह कर्ज कौन चुकाएगा। तुम खुदा से मेरी जिंदगी के तीन दिनों का पट्टा ला दो , तो मैं खजाने से तीन दिन की तनख्वाह पेशगी उठा लूंगा। ' बेगम को अपनी भूल का अहसास हुआ।

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