Thursday, October 20, 2011

सेवा का सौभाग्य

एक बार ईश्वरचंद्र विद्यासागर अपने मित्र गिरीशचंद्र विद्यारत्न के साथ बंगाल के कालना नामक गांव जा रहे थे। रास्ते में उनकी नजर सड़क के किनारे लेटे एक मजदूर पर पड़ी। उसकी हालत से वे समझ गए कि वह संकट में है। वे उसके पास आए। पता चला कि उसे हैजा हो गया है। मजदूर की भारी गठरी एक ओर लुढ़की पड़ी थी। उसके मैले कपड़ों से दुर्गंध आ रही थी। उसकी दुर्दशा देखकर लोग उसकी ओर से मुंह फेरकर वहां से शीघ्रतापूर्वक चले जा रहे थे। बेचारा मजदूर उठने में भी असमर्थ था। मजदूर की स्थिति देख विद्यासागर का दिल पसीज गया। वह तत्काल उसकी सेवा में जुट गए और बोले, 'आज हमारा सौभाग्य है।' गिरीशचंद्र विद्यारत्न ने पूछा, 'कैसा सौभाग्य?'

विद्यासागर ने कहा, 'किसी दीन-दुखी की सेवा का अवसर प्राप्त हो, इससे बढ़कर सौभाग्य क्या होगा। यह बेचारा यहां रास्ते में पड़ा है। इसकी हालत भी गंभीर है, इसका कोई परिजन यहां होता तो क्या इसको इसी प्रकार पड़े रहने देता। हम दोनों इस समय इसके रिश्तेदार बन सकते है।' विद्यासागर के मित्र भी उन्हीं की तरह थे। वह भला कैसे पीछे रहते। वह भी विद्यासागर के साथ मजदूर की सेवा में जुट गए। विद्यासागर ने मजदूर को पीठ पर लादा, विद्यारत्न ने उसकी भारी गठरी सिर पर उठाई। दोनों कालना पहुंचे। उन्होंने वहां उसके रहने की व्यवस्था की और एक वैद्य को चिकित्सा के लिए बुलाया। वे खुद वहां रुककर दिन-रात उसकी जरूरतों का ख्याल रखने लगे। जब वह पूरी तरह स्वस्थ हो गया तब उन्होंने उसे कुछ पैसे देकर वहां से विदा किया।

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