यह वैदिक युग की कथा है। सिंधु नदी के किनारे एक वन में किसी महर्षि के आश्रम में दो शिष्य शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। गुरु उन दोनों के प्रति काफी स्नेह रखते थे। वह कोशिश करते थे कि दोनों को सर्वश्रेष्ठ ज्ञान उपलब्ध कराएं। कई वर्षों तक कड़ी साधना करने के बाद दोनों शिष्य अपने - अपने विषयों के प्रकांड विद्वान बन गए। पर जल्दी ही दोनों को अपनी विद्वत्ता पर अहंकार हो गया और दोनों एक दूसरे से ईर्ष्या करने लगे। बात - बात में वे एक - दूसरे से बहस करने लगते या एक - दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश करते। एक दिन उनके गुरु स्नान करने के लिए गए थे।
जब थोड़ी देर बाद वह आश्रम लौटे तो दोनों शिष्यों को आपस में झगड़ते हुए पाया। दोनों ही एक दूसरे को आश्रम की सफाई करने के लिए कह रहे थे। यह देखकर महर्षि हैरान हो गए। उन्होंने शिष्यों से झगड़े का कारण पूछा। एक शिष्य बोला , ' गुरुदेव , मैं इससे विद्वान और श्रेष्ठ हो गया हूं इसलिए सफाई जैसा छोटा काम इसे करना चाहिए। ' दूसरे शिष्य ने भी गुरु को वही बात कही कि वह दूसरे से श्रेष्ठ है इसलिए सफाई का काम उसे शोभा नहीं देता। दोनों की बातें सुनकर महर्षि मुस्कराते हुए बोले , ' तुम दोनों ने बिल्कुल ठीक कहा। तुम दोनों वास्तव में विद्वान और श्रेष्ठ हो गए हो , इसलिए सफाई जैसा छोटा काम अब मैं किया करूंगा। ' यह सुनते ही दोनों शिष्यों की आंखें खुल गईंं। गुरु के दिए संस्कार जाग उठे। अहंकार चूर - चूर हो गया। फिर दोनों ही आश्रम की सफाई करने लगे।
Saturday, October 22, 2011
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