एक बार सम्राट अशोक अपने विश्वस्त मंत्री भ्रामात्य के साथ कहीं जा रहे थे। रास्ते में एक संत को आते देख वह घोड़े से नीचे उतरे और उन्होंने संत को दंडवत प्रणाम किया। यह बात भ्रामात्य को अच्छी नहीं लगी। संत के जाने के बाद भ्रामात्य ने अशोक से पूछा, 'राजन्, मेरी समझ में नहीं आया कि इतने बड़े सम्राट होकर आपने एक साधारण साधु को दंडवत प्रणाम क्यों किया।' उस समय अशोक ने कोई उत्तर नहीं दिया। दो दिनों के बाद उसने कई जानवरों के मुखौटों के साथ एक साधु और एक राजा का सुंदर मुखौटा भ्रामात्य को देते हुए कहा, 'गांव में जाकर इन मुखौटों को बेच दीजिए। मैं जानना चाहता हूं कि प्रजा किसे ज्यादा पसंद करती है।'
भ्रामात्य उन मुखौटों को बेचने के लिए गांव में गया। साधु का मुखौटा सबसे पहले बिक गया। उसके बाद सभी जानवरों के मुखौटे भी बिक गए। मगर राजा का मुखौटा किसी ने नहीं खरीदा। भ्रामात्य उसे लेकर लौट आया। अशोक ने उसे फिर से जाने को कहा। और यह भी निर्देश दिया कि यह मुखौटा किसी को मुफ्त दे दे। भ्रामात्य दोबारा गया मगर गांव वालों ने मुखौटा लेने से इनकार कर दिया। बोले, 'इस कचरे को लेकर हम क्या करेंगे।' भ्रामात्य फिर लौट आया और सम्राट को गांव वालों की बात बताई। अशोक ने कहा, 'अब तो तुम्हारे प्रश्न का उत्तर मिल गया होगा। संत हमेशा पूजनीय होते हैं क्योंकि वे मोह माया से दूर रह कर पूरे समाज के हित की बात सोचते हैं। राजा का महत्व तात्कालिक होता है पर संत की कीर्ति हमेशा बनी रहती है।'
Saturday, October 22, 2011
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