Tuesday, October 18, 2011

धर्म की भूमिका

काशी के एक संत गंगा किनारे कुटी बना कर रहते थे। एक बार वह प्रवचन करने किसी दूसरे आश्रम में जा रहे थे। रास्ते में एक व्यापारी मिला। संत ने उससे पूछा, 'क्या पीपल बाबा के आश्रम का रास्ता यही है?' व्यापारी बोला, 'हां, मैं भी उधर ही जा रहा हूं। आप भी मेरे साथ चलिए।' दोनों चलने लगे। व्यापारी ने पूछा, 'आप तो विद्वान संत हैं। एक बात समझ में नहीं आती कि आप जैसे संत के होते हुए भी देश में अराजकता फैली हुई है। कोई धर्म के रास्ते पर चलता ही नहीं। ऐसे धर्म का क्या फायदा कि लोग अपनी बुराई छोड़ते ही नहीं और ऐसे महात्माओं का क्या फायदा जिनके प्रवचनों का असर लोगों पर पड़ता ही नहीं।'

संत ने पूछा, 'आप क्या करते हैं?' व्यापारी ने कहा, 'मेरा साबुन बनाने का कारखाना है।' इतने में एक किसान भी आ गया। वह दोनों की बातें बड़े ध्यान से सुन रहा था। संत ने उसकी तरफ इशारा करते हुए कहा, 'तुम्हारे कपड़े तो बहुत गंदे हैं। सफाई क्यों नहीं करते?' किसान ने कोई जवाब नहीं दिया। संत ने व्यापारी से कहा, 'ऐसे साबुन बनाने से क्या फायदा कि लोगों के कपड़े अब भी गंदे हैं।' इस पर व्यापारी बोला, 'महात्मा जी, इसमें साबुन का क्या दोष। साफ-सुथरा रहने के लिए लोगों को स्वयं साबुन से कपड़े धोने चाहिए। कुछ लोगों की आदत ही होती है गंदा रहने की।' संत मुस्करा कर बोले, 'तुम ठीक कहते हो। इसी तरह संतों का काम लोगों को अच्छे गुण सिखाना है और धर्म के बारे में लोगों को जागृत करना है। यह काम तो लोगों का है कि वे संतों की वाणी को अपने जीवन में उतारें। मगर कुछ लोगों के अनसुना करने से न तो धर्म का महत्व कम होता है और न ही महात्माओं का। जिस तरह कई लोग साबुन का लाभ उठाते हैं उसी तरह संतों की वाणी का बहुत से लोगों पर गहरा असर पड़ता है।'

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