यह उस समय की बात है, जब कबीर दास की प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैलने लगी थी। लोग बड़ी संख्या में उनसे मिलने आते थे। एक दिन जब वह कपड़ा बुन रहे थे, उनके पास कई सेठ आए और बोले, 'अब आप साधारण व्यक्ति नहीं रहे। जब साधारण व्यक्ति थे तब तो आपका कपड़ा बुनना ठीक था। पर अब आप की चर्चा संत के रूप में होती है। आप को फटे-पुराने कपड़े पहने हुए देख हमें शर्म महसूस होती है। फिर आप को अपने हाथ से कपड़ा बुनने की आवश्यकता ही क्या है। अब हम लोग आप की हर जरूरत को पूरा करेंगे। आप के लिए एक भव्य आश्रम बना देंगे।'
कबीर ने कहा, 'आप लोगों को देख कर मुझे शर्म आती है। पहले मैं अपने लिए कपड़ा बुनता था, मगर अब गरीब लोगों के लिए बुनता हूं। मेरी देखादेखी और लोग भी यह काम करेंगे। मनुष्य को अपनी पहचान नहीं खोनी चाहिए। आज आप उस समय हमारी मदद करने आए हैं जब मुझे आपकी सहायता की जरूरत नहीं है। आप उनकी सहायता करें जिन्हें आपकी जरूरत है। आप देखते होंगे कि काशी के घाट पर कितने लोग भूखे सोते है। उन्हें देख कर आप को शर्म महसूस नहीं होती होगी। क्योंकि आप हमारी मदद करने नहीं अपना प्रचार पाने के लिए यहां आए हैं।' यह सुन कर सभी सेठ शर्मिंदा हो गए और उन्होंने माफी मांगी। उन्होंने वचन दिया कि वे हर रोज काशी के घाट पर गरीबों को खाना खिलाएंगे। तब से शुरू हुई वह परंपरा काशी में आज भी जारी है।
Tuesday, October 18, 2011
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