यह घटना उस समय की है, जब शिवाजी के एक किले को दुश्मनों ने घेर लिया था। दुर्ग के प्रत्येक पहरेदार को आदेश था कि चाहे कोई भी कुछ क्यों न कहे लेकिन सूर्यास्त के बाद दुर्ग के दरवाजे को हरगिज न खोला जाए। शिवाजी दुश्मनों के एक दल को ढेर करने के बाद आधी रात के समय दुर्ग के पिछले दरवाजे पर पहुंचे और उन्होंने द्वारपाल से दरवाजा खोलने का आग्रह किया। दुश्मन की चिंता व तनाव के कारण वह द्वारपाल शिवाजी को पहचान नहीं पाया और उन्हें दुश्मन का ही कोई साथी समझकर बोला, 'चाहे आप कुछ भी कहिए किंतु रात के समय दुर्ग के दरवाजे कतई नहीं खुलेंगे।'
शिवाजी के भरसक प्रयत्न करने पर भी द्वारपाल ने दरवाजा नहीं खोला। शिवाजी के सामने कोई और रास्ता नहीं था। उन्हें दुर्ग के बाहर एक कोने में छिपकर रात बितानी पड़ी। सवेरे दरवाजा खुलने पर शिवाजी ने उस द्वारपाल को दरबार में आने का आदेश दिया। द्वारपाल भय से थर-थर कांप रहा था और मन ही मन सोच रहा था कि शिवाजी को न पहचान पाने और दुर्ग का दरवाजा न खोलने के कारण उसे अवश्य कड़ी सजा मिलेगी। वह सिर झुकाए शिवाजी के सामने जा पहुंचा। शिवाजी ने सबके सामने उसकी पीठ थपथपाते हुए कहा, 'मैं रात को दुर्ग का दरवाजा न खोलने के आदेश का सख्ती से पालन करने के लिए तुमसे प्रसन्न हूं। आज से मैं तुम्हें अपना अंगरक्षक नियुक्त करता हूं। मुझे तुम जैसे कर्त्तव्यनिष्ठ रक्षकों की ही आवश्यकता है।' शिवाजी का यह निर्णय सुनकर द्वारपाल उनके प्रति नतमस्तक हो गया।
Thursday, October 20, 2011
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