भंसाली जी संस्कृत के प्रख्यात विद्वान थे। वह प्राध्यापक के रूप में कार्य भी करते थे। वह संस्कृत के उत्थान के लिए रोज नई योजनाएं बनाते रहते थे। एक दिन इसी संदर्भ में उन्होंने गांधीजी से मिलने का मन बनाया और उनके आश्रम पहुंच गए। आश्रम में पहुंचते ही उनकी नजर एक साधारण से दिखने वाले कमजोर व्यक्ति पर पड़ी। वह व्यक्ति कुएं से पानी खींच-खींच कर पौधों में डाल रहा था। वह अपने कार्य में मगन था।
उसे व्यस्त देखकर भंसाली जी बोले, 'सुनो भाई! मुझे महात्मा जी से मिलना है।' यह सुनकर वह व्यक्ति गर्दन उठाते हुए बोला, 'उनसे क्या काम है? कहिए।' उसकी बात सुनकर भंसाली जी बोले, 'तुमसे क्या कहूं। मेरी बातें तुम्हारी समझ में नहीं आएंगी। मुझे उनसे संस्कृत के संबंध में कुछ चर्चा करनी है।' वह व्यक्ति बोला, 'ठीक है, आप मेरे साथ कुएं पर चलिए। वह वहीं मिलेंगे।' दोनों कुएं पर गए। वहां जाते ही वह व्यक्ति जूठे बर्तन मांजने लगा। यह देखकर थोड़ी देर तक तो भंसाली जी इधर-उधर देखते रहे। किंतु जब कुछ देर बाद भी उन्हें उन दोनों के अलावा कोई और नजर नहीं आया तो वह थोड़ा गुस्से से बोले 'तुम बर्तन बाद में मांज लेना। पहले मुझे महात्मा जी से तो मिला दो।' यह सुनकर वह व्यक्ति मुस्कराते हुए बोला, 'मैं ही गांधी हूं। संस्कृत पर चर्चा करने के लिए थोड़ा धैर्य भी तो चाहिए। पर आपको तो बहुत जल्दी है।' भंसाली जी ने गांधीजी से माफी मांगी। वह उनकी सादगी के कायल हो गए।
Saturday, October 22, 2011
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