संस्कृत के प्रकांड विद्वान कैयरजी नगर से दूर एक झोपड़ी में रहते थे। उन्हें अपने अध्ययन और लेखन से इतना भी अवकाश नहीं मिलता था कि घर-बाहर के कामों में पत्नी का हाथ बंटा सकें। पत्नी बेचारी जंगल से मूंज काटकर लाती, उसकी रस्सियां बनाकर बेचती और उससे जो कुछ मिलता, उससे घर चलाती।
पति की सेवा, उनके और अपने भोजन की व्यवस्था तथा घर के अन्य सारे काम उसे करने होते थे, लेकिन यह सब करके वह परम संतुष्ट थी। वहां के राजा को काशी से आए कुछ विद्वानों ने कहा, 'आपके राज्य में एक महान विद्वान इतना कष्ट पाता है। महाराज आप कुछ तो ध्यान दें।' राजा स्वयं कैयरजी की कुटिया पर आए और उन्होंने हाथ जोड़कर प्रार्थना की, 'भगवन्, आप विद्वान हैं। जिस राज्य के विद्वान कष्ट पाते हैं उसका राजा पाप का भागी होता है।
इसलिए आप मुझ पर कृपा करें।' यह सुनते ही कैयरजी ने अपनी कुछ पांडुलिपियां उठाईं, चटाई समेटकर बगल में दबाई और पत्नी से बोले, 'हमलोगों के यहां रहने से महाराज को पाप लगता है। चलो कहीं और चलते हैं।' राजा ने उनके पैरों पर गिरकर क्षमा मांगी और बोले, 'मैं तो केवल यह चाहता था कि मुझे कुछ सेवा करने की आज्ञा प्राप्त हो।'
कैयरजी ने कहा, 'आप केवल इतना भर करें कि फिर यहां न आएं और मुझे धन, संपत्ति आदि किसी चीज का प्रलोभन न दें। मेरे अध्ययन में विघ्न न पड़े, यही मेरी सबसे बड़ी सेवा है।' राजा समझ गए कि सच्चे विद्वान के लिए उसका कार्य ही सबसे महत्वपूर्ण है। उसे भौतिक सुखों की कोई चाह नहीं होती।
Tuesday, October 18, 2011
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