किसी नदी के किनारे एक आश्रम था, जिसमें दो शिष्य शिक्षा प्राप्त करते थे। गुरु को दोनों बहुत प्रिय थे। शिष्य भी अपने गुरु से बहुत स्नेह करते थे और उनकी प्रत्येक आज्ञा का पालन भी करते थे। दोनों बहुत गुणी थे, लेकिन उनके विचार एक-दूसरे से भिन्न थे। दोनों अक्सर एक-दूसरे के कार्यों में विघ्न डालते रहते थे, जिससे दोनों में से किसी का काम कभी पूर्ण नहीं हो पाता था। गुरु उनके इस व्यवहार से बहुत दुखी थे।
एक दिन गुरु नदी में स्नान करके आश्रम लौट रहे थे। उन्हें एक मछुआरा मिला। मछुआरे के पास बहुत सी मछलियां और केकड़े थे। गुरु ने मछुआरे से कुछ केकड़े खरीद लिए। जब वह केकड़े लेकर आश्रम पहुंचे तो शिष्य बहुत हैरान हुए। गुरु ने केकड़ों को टोकरी में डाल दिया। लेकिन उन्होंने टोकरी का मुंह खुला ही छोड़ दिया। इस पर शिष्यों ने टोका, 'गुरुदेव, आपने टोकरी का मुंह तो खुला ही छोड़ दिया है। केकड़े तो टोकरी से बाहर आ जाएंगे।' यह सुनकर गुरु कुछ देर शांत रहे फिर बोले, 'चिंता न करो, मैं इन केकड़ों के स्वभाव से परिचित हूं। यह रात भर उछल-कूद मचाने पर भी इस टोकरी की कैद से छूट नहीं सकते, क्योंकि जो केकड़े ऊपर चढ़ने की कोशिश करेंगे, नीचे वाले केकड़े उनकी टांगें खींचकर उन्हें फिर नीचे ले जाएंगे।
ईर्ष्यालु लोग भी इसी तरह एक-दूसरे को आगे बढ़ने से रोकते रहते हैं।' शिष्य गुरु का इशारा समझ गए। उन्होंने उस दिन के बाद एक-दूसरे के कार्यों में विघ्न डालना बंद कर दिया। कुछ दिनों के बाद गुरु केकड़ों को तालाब में छोड़ आए।
Saturday, October 22, 2011
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