धर्मराज युधिष्ठिर विद्वानों का बहुत आदर-सत्कार करते थे। एक बार उनसे दो विद्वान एक साथ मिलने आए। एक विद्वान बहुत ही सजा-संवरा था। उसने एकदम स्वच्छ श्वेत वस्त्र धारण कर रखा था, मस्तक पर चंदन का तिलक लगाया था, सिर पर पगड़ी तथा गले में रुद्राक्ष की माला धारण कर रखी थी। उसने माला फेरते हुए महल में प्रवेश किया। दूसरा विद्वान साधारण वेशभूषा में था।
धर्मराज सजे-संवरे विद्वान से अधिक प्रभावित हुए, इसलिए वार्तालाप के लिए उसे ही प्राथमिकता दी। विचार-विनिमय के बाद धर्मराज ने कोषाध्यक्ष को निर्देश दिया कि उस विद्वान को उचित संख्या में स्वर्ण मुद्राएं देकर सम्मानपूर्वक विदा किया जाए। उसके बाद साधारण वस्त्रधारी दूसरे ब्राह्मण की बारी आई। धर्मराज की ओर से वार्ता अत्यंत साधारण तरीके से प्रारंभ हुई, पर धीरे-धीरे उन्हें चर्चा में आनंद आने लगा और वह विचार-विनिमय में इतने खो से गए कि कितना समय निकल गया, उन्हें पता ही नहीं चला। इस वार्ता में शास्त्रों के कठिन विषयों पर भी विचार-विमर्श हुआ। अंत में धर्मराज ने स्वयं अपने हाथ से विद्वान को स्वर्ण मुद्राएं दीं तथा राजभवन के द्वार तक आकर विदा किया।
वायुपुत्र भीम को, जो पास ही खड़े थे, धर्मराज के दोनों विद्वानों से व्यवहार का तरीका समझ में नहीं आया। उन्होंने पूछा, 'माननीय, यह क्या? प्रथम विद्वान का आरंभ में सम्मान तथा दूसरे का अंत में। कृपया इसके मर्म को समझाएं।' धर्मराज मुस्कराए, फिर बोले, 'प्रथम विद्वान ने वस्त्रों से प्रभावित करना चाहा। कुछ देर के लिए वह सफल भी रहा इसलिए वह मुझसे प्राथमिक लाभ ले गया। पर विद्वता तो वस्त्रों में नहीं, मस्तिष्क में वास करती है। वह उतना विद्वान न निकला, जितना उसका दिखावा था। दूसरा विद्वान बड़ा मनीषी सिद्ध हुआ। उसने अपना ज्ञान ऊपरी आडंबर से नहीं, विचार-विमर्श से दर्शाया। वह मेरे अनुमान से कहीं अधिक तत्ववेत्ता निकला। इसलिए मैंने उसका अंत में अधिक सम्मान कर अपनी त्रुटि को सुधारना आवश्यक समझा।
Tuesday, October 18, 2011
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