गणेश शंकर विद्यार्थी अपने समय के जाने-माने पत्रकार थे। वह राष्ट्रीय एकता और आम आदमी के हक के लिए हमेशा संघर्षरत रहे। जिन दिनों वह कानपुर में थे, उन दिनों वहां कुछ शरारती तत्व शहर का सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने पर लगे थे। शहर की हालत से गणेश शंकर विद्यार्थी बेहद परेशान थे और किसी तरह शांति स्थापित करना चाहते थे। उन्होंने दंगा-फसाद करने वालों को सबक सिखाने की ठान ली।
विद्यार्थी जी शरीर से दुबले-पतले थे, मगर आत्मविश्वास और साहस उनमें कूट-कूट कर भरा हुआ था। एक दिन वह लोगों को शांत कराते हुए जनरल गंज की ओर निकल गए। वहां पहुंचकर उन्होंने देखा कि पहलवान जैसा दिखने वाला एक आदमी जूते की दुकान को लूट रहा है। वह जूतों को एक बोरे में भर रहा था और दुकानदार उसके सामने हाथ जोड़े गिड़गिड़ा रहा था। यह देखकर विद्यार्थी जी जोर से बोले, 'ठहरो।' वहां कई लोग खड़े थे। वे यह देखकर हैरान रह गए कि एक दुबला-पतला व्यक्ति भीमकाय शरीर वाले बदमाश को ललकार रहा है।
बदमाश विद्यार्थी जी की ओर लपका तो वह उसे दुत्कारते हुए बोले, 'तुम्हें शर्म नहीं आती? दुकान का माल क्या मुफ्त का है? इतने तगड़े होकर भी सेवा या मदद तो कर नहीं रहे, उलटे दूसरों को लूट रहे हो।' बदमाश यह सुनकर शर्म से गड़ गया और सारा सामान छोड़कर वहां से चंपत हो गया। उसके जाने के बाद लोग विद्यार्थी जी से बोले, 'वह व्यक्ति आपसे तगड़ा था, आपको उससे डर नहीं लगा?'
विद्यार्थी जी बोले, 'वह तगड़ा कहां था! सिर्फ शरीर से तगड़े को मैं तगड़ा नहीं मानता। मन से वह दुर्बल था, तभी तो गलत काम कर रहा था। गलत काम करने वाला शरीर से भले ही मजबूत हो, मन से बहुत कमजोर होता है। यदि हम मनुष्य होकर भी मनुष्यता से दूर भागते हैं तो मनुष्यता का अर्थ ही क्या रह जाता है?' विद्यार्थी जी की इस बात पर वहां उपस्थित सभी लोग शर्मिंदा हो गए।
Tuesday, October 18, 2011
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