यह घटना उस समय की है, जब डॉ. राजेंद्र प्रसाद देश के राष्ट्रपति थे। देश-विदेश के अनेक अतिथि उनके पास आते रहते थे। एक विदेशी ने एक बार उन्हें हाथी दांत की एक कलम भेंट की। वह कलम राजेंद्र बाबू को इतनी अच्छी लगी कि वे हरदम उसी से लिखते थे।
एक दिन उनके सेवक तुलसी से काम करते समय वह कलम टूट गई। राजेंद्र बाबू बेहद दुखी हुए। उन्होंने अपने निजी सचिव को बुलाया और कहा, 'तुलसी को आप यहां से हटाकर बगीचे में अथवा कहीं और काम पर रख दीजिए जहां उसके हाथ से टूट-फूट होने की आशंका न हो।' सचिव ने तुलसी को बगीचे में लगा दिया। एक-दो दिन तो किसी तरह बीत गया, लेकिन तीसरे दिन राजेंद्र बाबू को तुलसी के बिना बेचैनी होने लगी। वह सोचने लगे कि तुलसी कौन सा जानबूझकर तोड़-फोड़ करता था। अनजाने में भूल-चूक हो ही जाती है। मैंने उसे यहां से हटाकर उसका अपमान किया है, उसका दिल दुखाया है। मुझे तुरंत अपनी गलती सुधार लेनी चाहिए। यह सोचकर उन्होंने तुलसी को बुलाया। तुलसी डरते-डरते आया और मुंह लटका कर खड़ा हो गया।
राजेंद्र बाबू ने उससे कहा, 'तुम्हें यहां से हटाकर मैंने भूल की है। अब तुम यहीं पर मेरे पास काम करोगे और हां, जो भूल मैंने की है उसके लिए मुझे क्षमा कर दो। कहो कि तुमने मुझे क्षमा कर दिया है।' तुलसी यह सुनकर द्रवित हो गया। उसकी आंखें छलछला उठीं। वह उनके पांवों में गिरने के लिए झुका लेकिन राजेंद्र बाबू ने उसे थाम लिया और बोले, 'अरे यह क्या कर रहे हो? मैं माफी मांग रहा हूं और उलटे तुम मुझे दोषी बना रहे हो। जब तक तुम मुझे माफ नहीं करोगे तब तक मैं यहीं इसी तरह खड़ा रहूंगा।' आखिरकार तुलसी को बोलना ही पड़ा, 'मैंने आपको क्षमा किया।' यह सुनकर राजेंद्र बाबू सहज हुए और उन्होंने तुलसी को गले लगाकर फिर से पहले वाले काम पर लगा दिया ।
Tuesday, October 18, 2011
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