Tuesday, October 18, 2011

ईर्ष्या की आग

दो विद्वान एक सेठ के घर भोजन के लिए आमंत्रित थे। ये दोनों विद्वान एक - दूसरे को देखना नहीं पसंद करते थे और मौका मिलते ही एक - दूसरे की बुराई करने लगते थे। दोनों नियत समय पर सेठ के घर पहुंचे और एक - दूसरे को देखकर मुंह बनाने लगे। सेठ ने दोनों से स्नान करने का निवेदन किया। जब एक विद्वान नहाने चला गया तो सेठजी दूसरे के पास आकर बैठ गए और बातें करने लगे।

वह बोले , ' महाराज , लगता है आपके ये साथी पहुंचे हुए विद्वान हैं। उन्हें काफी गूढ़ बातें मालूम है। ' दूसरा विद्वान भला यह कैसे सुन सकता था ? वह तपाक से बोला , ' अरे नहीं सेठजी , इसका तो विद्वता से दूर - दूर तक का कोई रिश्ता नहीं है। यह तो निरा बैल है। पता नहीं इसे लोग अपने यहां क्या सोचकर आमंत्रित कर लेते हैं। ' तभी उसका साथी नहाकर बाहर आता दिखाई दिया तो वह चुप हो गया। कुछ देर बाद वह स्वयं स्नान के लिए चला गया तो सेठजी पहले विद्वान से बातें करने लगे और दूसरे विद्वान के बारे में बोले , ' अभी मैं आपके साथी से ही बातें कर रहा था। मुझे तो वह वेदों के बहुत बड़े ज्ञाता लगे। ' सेठजी की बात पर वह विद्वान हंसते हुए बोला , ' क्या सेठजी , वह और विद्वान ! अरे विद्वान आपने देखे ही कहां हैं। वह तो निरा गधा है। ' अपने साथी के वापस आते ही वह भी चुप हो गया। कुछ देर बाद दोनों को भोजन के लिए बुलाया गया। दो थालियां रखी गईं , जिनमें से एक में घास और दूसरे में भूसा रखा था। दोनों विद्वान बिदक कर सेठजी से बोले , ' यह क्या !

आपने हमारा अपमान करने के लिए यहां बुलाया है ?' उनकी बातें सुनकर सेठजी बोले , ' महाराज ! आप दोनों ने ही तो एक - दूसरे को गधा और बैल बताया है। गधा और बैल ऐसी ही खुराक तो खाते हैं। अब इसमें मेरा क्या दोष ?' यह सुनकर दोनों शर्मिंदा हो गए। उन्होंने ईर्ष्या की आग अपने भीतर से निकाल दी।

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