एक बार अयोध्या के राजा रघु के दरबार में इस प्रश्न पर बहस चल रही थी कि राजकोष का उपयोग किन प्रयोजनों के लिए किया जाए? एक पक्ष का मत था कि सैन्य शक्ति बढ़ाई जाए ताकि न केवल अपनी सुरक्षा हो बल्कि राज्य के विस्तार की योजना भी आगे बढ़े। इस अभियान पर जो खर्च होगा उसकी भरपाई पराजित देशों से मिलने वाले संसाधनों से की जा सकेगी।
दूसरे पक्ष का कहना था कि राजकोष प्रजा जन के हित में खर्च किया जाए ताकि उनका जीवन स्तर बढ़ सके। अगर सुखी, संतुष्ट, साहसी और सहृदय नागरिक हों तो देश समृद्ध होता है। इस प्रकार युद्ध करके नए क्षेत्र जीतने की अपेक्षा मैत्री का विस्तार कहीं अधिक लाभदायक है। उससे स्वेच्छया सहयोग और अपनत्व की ऐसी उपलब्धियां प्राप्त होती हैं, जिनके कारण छोटा देश भी चक्रवर्ती स्तर का बन सकता है। दोनों पक्षों के तर्क चलते रहे। सबके मन में उत्सुकता थी कि आखिर राजा रघु क्या निर्णय देते हैं। जब सबने अपनी बात समाप्त की तब उन्होंने कहा, 'युद्ध पीढि़यों से लड़े जाते रहे हैं। उनके कड़वे-मीठे परिणाम भी स्मृति पटल पर अंकित हैं। लेकिन इस बार युद्ध छोड़ दिया जाए और लोकमंगल को अपनाया जाए। देखते हैं क्या होता है। समस्त संपत्ति जनकल्याण की योजनाओं पर खर्च कर दी जाए।'
कुछ सभासद दबे-छुपे इस निर्णय की आलोचना करने लगे। उन्हें अनिष्ट की आशंका सताने लगी। उधर रघु के निर्णय के मुताबिक विकास योजनाएं तेज कर दी गईं। धीरे-धीरे प्रजाजन हर दृष्टि से समुन्नत हो गए। आक्रमण की चर्चाएं समाप्त हो गई। सुख-शांति के समाचार पाकर अन्य देशों के समर्थ लोग वहां आकर बसने लगे। बंजर भूमि सोना उगलने लगी और अयोध्या में खुशहाली फैल गई।
Saturday, October 22, 2011
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