Saturday, October 22, 2011
सचाई का पाठ
एक सेठ दान-पुण्य के लिए हर रोज भंडारे का आयोजन करता था। सेठ का अनाज का व्यापार था। हर साल अनाज के गोदामों की सफाई होती थी। उस समय घुन लगे बेकार गेहूं को इकट्ठा करके सेठ उसे पिसवाता और उसी आटे का भंडारा साल भर चलता था। लेकिन इसकी जानकारी किसी को न थी। सेठ का एक बेटा था। उसकी शादी हुई। सेठ के घर काफी समझदार बहू आई। जब बहू को पता चला कि उसके ससुर सड़े हुए गेहंू के आटे की रोटियां गरीबों को खिलाते हैं, तो उसे बहुत दुख पहुंचा। एक दिन जब सेठ भोजन करने बैठा तो बहू ने उसकी थाली में उसी आटे की रोटियां परोस दीं। सेठ ने समझा कि बहू ने कोई नया पकवान बनाया है। लेकिन जैसे ही मुंह में पहला कौर डाला, हिचकी आने लगी। उसने उस कौर को थूक दिया और बहू से बोला, 'यह आटा कहां से आया है? क्या घर में और आटा नहीं था?' बहू विनम्रता से बोली, 'आटा तो बहुत है बाबूजी, लेकिन मैंने सोचा कि आपके भंडारे में जिस आटे की रोटी बनती है उसी से घर में भी बनाई जाए।' इस पर सेठ ने कहा, 'लेकिन बहू वह आटा तो गरीबों के खाने के लिए होता है।' बहू बोली, 'पिता जी मुझे बताया गया है कि परलोक में भी प्राणी को वही खाना मिलता है जो वह गरीबों को खिलाता है, इसलिए सोचा कि क्यों न अभी से आपको उसी रोटी की आदत डलवाई जाए।' सेठ लज्जित हो गया। उसने उसी दिन सारा बेकार आटा पशुओं को खिला दिया और गरीबों के खाने के लिए अच्छे गेहूं निकलवाए।
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