बालक ईश्वरचंद्र के पिता को तीन रुपये मासिक वेतन मिलता था। परिवार बड़ा था इसलिए घर का खर्च चलना मुश्किल था। ऐसी स्थिति में बालक ईश्वरचंद्र की पढ़ाई का प्रबंध कैसे होता। ईश्वरचंद्र ने अपने पिता की विवशता को देख कर अपनी पढ़ाई के लिए रास्ता खुद ही निकाल लिया। उसने गांव के उन लड़कों को अपना मित्र बनाया, जो पढ़ने जाते थे। उनकी पुस्तकों के सहारे उसने अक्षर ज्ञान प्राप्त कर लिया। एक दिन कोयले से जमीन पर लिख कर उसने अपने पिता को दिखाया। पिता ने ईश्वरचंद्र की विद्या के प्रति लगन देखकर तंगी का जीवन जीते हुए भी उसे गांव की पाठशाला में भर्ती करा दिया। स्कूल की सभी परीक्षाओं में ईश्वरचंद्र ने प्रथम स्थान प्राप्त किया। आगे की पढ़ाई के लिए फिर आर्थिक तंगी आड़े आ रही थी। ईश्वरचंद्र ने फिर स्वयं अपनी राह बनाई और आगे पढ़ने के लिए माता-पिता से केवल आशीर्वाद भर मांगा।
उसने कहा, 'आप मुझे किसी विद्यालय में भर्ती करा दें। फिर मैं आप से किसी प्रकार का खर्च नहीं मांगूंगा।' ईश्वरचंद्र का कोलकाता के एक संस्कृत विद्यालय में दाखिला करा दिया गया। विद्यालय में ईश्वरचंद्र ने अपनी लगन और प्रतिभा से शिक्षकों को प्रसन्न कर लिया। उसकी फीस माफ हो गई। ईश्वरचंद्र के मित्रों ने किताबें उपलब्ध करा दीं। फिर उसने अपना खर्च पूरा करने के लिए मजदूरी शुरू कर दी। ऐसी स्थिति में भी उसने इतना परिश्रम किया कि उन्नीस वर्ष की आयु तक पहुंचते-पहुंचते वह व्याकरण, साहित्य, स्मृति तथा वेदशास्त्र में निपुण हो गया। जिसके लिए पढ़ना ही कठिन था वह एक बड़ा विद्वान बन गया। आगे चल कर यही बालक ईश्वरचंद्र विद्यासागर के नाम से विख्यात हुआ।
Saturday, October 22, 2011
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