Tuesday, October 18, 2011

जीवन की सार्थकता

हकीम लुकमान का बचपन अभावों में बीता था। उन्हें भरण-पोषण के लिए गुलामी भी करनी पड़ी। एक बार उनके मालिक ने ककड़ी खानी चाही। उसने लुकमान को ककड़ी लाने का आदेश दिया। लुकमान ककड़ी ले आए। मालिक ने ज्यों ही ककड़ी मुंह से लगाई उसे पता चल गया कि ककड़ी अत्यंत कड़वी है। मालिक ने ककड़ी लुकमान की ओर बढ़ा दी और कहा, 'ले, इसे तू खा ले!' लुकमान ने ककड़ी ले ली और बिना मुंह बिचकाए उसे खा गए। लुकमान के मालिक को बेहद आश्चर्य हुआ। वह तो यह मानकर चल रहा था कि इतनी कड़वी ककड़ी कोई खा ही नहीं सकता, इसलिए लुकमान इसे फेंक देंगे। लेकिन जब लुकमान ने पूरी ककड़ी सहजता से खा ली तो मालिक ने पूछा, 'तू इतनी कड़वी ककड़ी कैसे खा गया?' लुकमान ने हंसते हुए कहा, 'मेरे अच्छे मालिक! आप मुझे रोज स्वादिष्ट खाना बड़े प्यार से खिलाते हैं। आपके द्वारा दी गई कई चीजों का मैं मजा लेता हूं। ऐसे में अगर आपने एक दिन कड़वी ककड़ी दे भी दी तो मैं क्या उसे नहीं खा सकता? मैंने उसे भी और चीजों की तरह ही अच्छा मानकर लिया और खाया।' लुकमान का मालिक समझदार और दयालु था। उसने लुकमान की इस बात का आदर किया। वह बोला, 'आज तुमने मुझे जीवन का बड़ा सच बताया है। परमात्मा हमें अनेक प्रकार के सुख देता है, उसी के हाथ से यदि कभी दुख भी आए तो उस दुख को हमें खुशी-खुशी स्वीकार करना चाहिए। इसी से जीवन सार्थक हो सकता है। आज से तुम गुलाम नहीं रहोगे।'

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