कोलकाता के एक कॉलेज में संस्कृत व्याकरण के शिक्षक का पद खाली हुआ। उन दिनों चारों तरफ ईश्वरचंद्र विद्यासागर की धूम थी। वह संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे। स्थान खाली होते ही कॉलेज के प्रिंसिपल के मन में संस्कृत अध्यापक के पद के लिए ईश्वरचंद्र विद्यासागर का नाम आया।
उन्होंने उन्हें पत्र भिजवाया और आग्रह किया कि वह पद ग्रहण करके कॉलेज व उसके विद्यार्थियों को गौरवान्वित करें । ईश्वरचंद्र ने पत्र पढ़ा तो तत्काल जवाब लिखने बैठ गए। उन्होंने लिखा, 'आपको व्याकरण पढ़ाने वाले अध्यापक की आवश्यकता है। मैं सोचता हूं कि व्याकरण के मामले में मैं इस नगर का योग्यतम व्यक्ति नहीं हूं। इस विषय में मुझसे अधिक विद्वान मेरे मित्र वाचस्पति हैं। यदि आप उनकी नियुक्ति कर सकें तो मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी।
मेरा उस पद पर आना वाचस्पति की योग्यता का अपमान होगा। इसलिए कृपया मुझे आवेदन करने को न कहें।' कॉलेज के प्राचार्य विद्यासागर का पत्र पढ़कर उनके प्रति नतमस्तक हो गए और सोचने लगे कि यह व्यक्ति कितना महान है। किसी दूसरे व्यक्ति को अपने से बड़ा बताना हर किसी के बस की बात नहीं। कोई भी व्यक्ति दूसरे के सामने स्वयं को कमतर कभी नहीं साबित करता। लेकिन बेहद गुणी व विनम्र ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने ऐसा किया है । निश्चित रूप से उनका हृदय अत्यंत विशाल है।
उनके इस प्रस्ताव को कॉलेज की प्रबंध समिति ने खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया। मित्र की नियुक्ति पाकर ईश्वरचंद्र विद्यासागर को हार्दिक प्रसन्नता हुई। जब वाचस्पति को इस घटना का पता चला तो वह तुरंत विद्यासागर के पास पहुंचे और उन्हें गले लगाते हुए बोले, 'मित्र वास्तव में आपके बड़प्पन व विशाल हृदय का कोई सानी नहीं। इतना अद्भुत व गौरवशाली व्यक्तित्व व सोच सिर्फ आपकी ही हो सकती है। मुझे सच में नौकरी की बेहद आवश्यकता थी।' यह कहते हुए उनकी आंखों में आंसू आ गए। विद्यासागर ने उनकी पीठ थपथपाते हुए कहा, 'मित्र, जो योग्य है उसे उपयुक्त अवसर मिलना ही चाहिए।'
Saturday, October 22, 2011
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