चतुर्मास का समय निकट आया तो भिक्षु सुशांत ने बुद्ध से आग्रह किया, 'प्रभु, मैं नगरवधू सोमलता के सान्निध्य में अपना चतुर्मास व्यतीत करना चाहता हूं। कृपया इसकी आज्ञा प्रदान करें।' यह सुनकर बुद्ध मुस्कराए। वह समझ गए कि यह वहां जाकर मन को साधकर सच्चा साधक होना चाहता है। लेकिन अन्य भिक्षुओं ने इस पर आपत्ति जताई। उन्हें संदेह था कि सुशांत कहीं अपने पथ से विचलित न हो जाए। पर बुद्ध ने भिक्षुओं के विरोध के बावजूद उसे आशीर्वाद देते हुए कहा, 'जाओ और आगे बढ़कर आना।' सुशांत सोमलता के पास पहुंचा। वहां सब उसे देखकर आश्चर्यचकित रह गए। लेकिन सुशांत अपने संकल्प पर अडिग था।
इधर सोमलता के घुंघरुओं की आवाज गूंजती और उधर सुशांत अपनी साधना में लीन रहता। सोमलता सुशांत को रिझाने का प्रयास करती, मगर वह निर्लिप्त रहता। एक मास गुजर गया मगर सोमलता सुशांत को डिगा न सकी। हां, उससे थोड़ी सहानुभूति अवश्य होने लगी। उसने दूसरों को भी साधना के क्षणों में शांत रहने को कह दिया। चौथा मास आते-आते सुशांत ने अपने मन पर नियंत्रण पा लिया था। वह सोमलता या अन्य सुंदरियों की ओर आंख उठाकर भी नहीं देखता था।
संगीत उसे बुद्ध-वाणी की तरह लगता था और नृत्यालय देवालय की तरह। चार मास पूर्ण हुए और सुशांत अपने मठ की ओर वापस चला तो सबने आश्चर्य से देखा- भिक्षुणी बनी सोमलता उसके पीछे-पीछे अपना सर्वस्व त्याग कर जा रही थी। सोमलता अपने रूप-रंग से सुशांत को रिझा न सकी, मगर सुशांत के तप का प्रभाव सोमलता पर दिख रहा था। सुशांत वास्तव में आगे बढ़ गया था।
Tuesday, October 18, 2011
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