ईरान में एक बादशा ह था। उसकी एक शायर से बड़ी गहरी दोस्ती थी। बादशाह का दरबार लगता, दावतें होतीं तो शायर भी उसमें शामिल होता। दावत में तरह-तरह के पकवान परोसे जाते। शायर उनका मजा लेता। बादशाह पूछते, 'कहो, दावत कैसी रही?' शायर हमेशा जवाब देता, 'हुजूर दावत तो शानदार थी, पर दावते शिराज की बात कुछ और है।' बादशाह इस उत्तर को सुन परेशान होता। आखिर यह दावते शिराज क्या बला है? कहां होती है? एक दिन उसने यह प्रश्न शायर से पूछ ही लिया।
शायर ने कहा, 'हुजूर यह दावत मेरे शहर शिराज में होती है। कभी शिराज पधारें तो उसका लुत्फ उठाइए।' संयोग से कुछ दिनों के बाद ही बादशाह का शिराज शहर में जाना हुआ। बादशाह ने शायर को बुलाया और कहा, 'तैयारी करो, आज हो जाए- दावते शिराज।' शायर बोला, 'हुजूर, दावते शिराज तैयार है, आप मेरे साथ चलें।' शायर बादशाह को अपने घर ले गया। एक साधारण कुर्सी पर बिठाया, थाली में रोटी-सब्जी और चटनी रखी और बादशाह को पेश कर दी।
बादशाह ने पूछा, ' ये क्या है?' शायर ने कहा, 'हुजूर, यही दावते शिराज है। घर में आए मेहमान को जो कुछ घर में उपलब्ध है, उसे प्रेम और आदर से प्रस्तुत करना ही दावते शिराज है। इसका मजा ही कुछ और है। बादशाही दावतों में लंबे चौड़े आयोजन होते हैं। नौकर-चाकर दौड़ते- भागते हैं। दिखावा ही दिखावा होता है, उसमें यह प्रेम और सम्मान कहां। दावते- शिराज की बात ही कुछ और है।' बादशाह ने प्रेमपूर्वक भोजन किया। बोले, ' ठीक कहते हो। ऐसा शांत अपनत्व भरा भोजन हमारे भाग्य में कहां? दावते-शिराज के सुख का आज हमें पता चला।'
Saturday, October 22, 2011
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment