Tuesday, October 18, 2011

सत्य की राह

जब मार्टिन लूथर ने ईसाई धर्म में प्रचलित रूढि़यों के विरोध में आवाज उठाई तो एक खास तबके ने उन्हें और उनके सहयोगियों को तरह-तरह से परेशान करना शुरू कर दिया। इससे उकताकर एक दिन मार्टिन लूथर के एक शिष्य ने उनसे कहा, 'अब तो हद हो गई है, अब आप एक शाप देकर इन सब लोगों को जलाकर खाक कर दीजिए।' मार्टिन लूथर ने कहा, 'ऐसा कैसे हो सकता है?' शिष्य बोला, 'आपकी प्रार्थना तो भगवान सुनते हैं। उन्हें प्रार्थना में कह दें कि इन सब पर बिजली गिरे।' मार्टिन लूथर ने कहा, 'यदि मैं भी ऐसा ही विचार करने लगूं तो मुझमें और उनमें क्या अंतर रहा जाएगा?' यह सुनकर शिष्य सोच में पड़ गया।

उसने फिर कहा, ' लेकिन इन लोगों का अविवेक, अन्याय और नासमझी तो देखिए। आप जैसे सात्विक सज्जन और परोपकारी संत को ये न जाने क्या-क्या कहते हैं।' मार्टिन लूथर बोले 'उसे देखना हमारा काम नहीं है। हमें तो अपने ढंग से असत्य और विकृतियों को उखाड़ फेंकने का काम करना है। शेष सारा काम ईश्वर को स्वयं देखना है।' शिष्य फिर भी संतुष्ट न हुआ। उसने पुन: विनम्रता से कहा, 'आप अपनी शक्ति आजमा कर ही उन्हें क्यों नहीं बदल देते? आप तो सर्वसमर्थ हैं।' इस पर मार्टिन लूथर ने कहा, 'यदि राग और द्वेष, रोग और दोष अंत:करण से न घटे तो गुरु उसमें किस प्रकार सहायक बन सकते हैं। मेरा काम है पाप का विसर्जन कर सत्य और शुभ का नवसर्जन करना। दूसरों को जो करना हो, करें। अपना काम तो अपने रास्ते पर दृढ़तापूर्वक चलना है।'

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