एक किसान के बगीचे में फलों के अनेक पेड़ लगे हुए थे। प्रत्येक वर्ष उनमें रसीले मीठे-मीठे फल लगते थे। किसान बड़ा सीधा-सादा था। उसने सोचा कि यह बगीचा तो मेरे श्रम की देन है किंतु जिस भूमि पर मेरा बगीचा है वह तो जमींदार की है। इस तरह इन फलों पर उसका भी हक बनता है। एक दिन वह रसीले फलों की टोकरी भरकर जमींदार को दे आया। जमींदार ने जब किसान के बगीचों के फल चखे तो वह दंग रह गया। इतने मीठे व स्वादिष्ट फलों का सेवन उसने आज तक नहीं किया था।
उसने सोचा कि ऐसे मीठे फलों के पेड़ किसान के यहां नहीं, मेरे यहां होने चाहिए। उसी क्षण उसने अपने सेवकों को आदेश दिया कि किसान के यहां से पेड़ों की जड़ें उखाड़ लाएं। सभी ने जमींदार को समझाने का प्रयास किया किंतु उस पर लोभ का नशा चढ़ चुका था। उसने किसी की एक न सुनी। उसके सेवक भी कड़े मन से बेचारे किसान के यहां से जड़ें उखाड़ लाए और जमींदार के बगीचे में रोप दीं। जमींदार ने माली को सख्त आदेश दिया कि उनका रखरखाव ध्यान से करे। अगली बार वह खुद इन फलों को तोड़कर इनका रसास्वादन करेगा।
एक दिन उन्होंने देखा कि किसान के यहां से उखड़वाई जड़ें लाख प्रयत्नों के बावजूद मुरझाती जा रही थीं। उन्होंने माली से इसका कारण पूछा तो वह डरते-डरते बोला, 'मालिक क्षमा कीजिएगा, किंतु यह लोभ का फल है। आपने लोभवश किसान के मीठे फलों की जड़ों को यहां लगवा तो लिया किंतु जो जड़ें प्रेम, सद्भावना व नि:स्वार्थ भावना से वहां पनप रही थीं वे अब स्वार्थ के वषीभूत सड़ चुकी हैं।' माली की बात सुनकर जमींदार को अपनी गलती का अहसास हो गया। उसने किसान को बुलाकर क्षमा मांगी। कुछ ही समय बाद किसान ने अपनी मेहनत से दोबारा मीठे फल उगाकर जमींदार को भेंट किए।
संकलन:रेनू सैनी
Friday, October 14, 2011
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