किसी छोटी सी बात पर नाराज होकर महाराज प्रसिचेत ने अपनी पत्नी को घर से निकाल दिया। उनके इस अहंकारपूर्ण कृत्य से दुखी होकर राज पुरोहित ने उनका साथ छोड़ दिया। धीरे-धीरे यह बात पूरे राज्य में फैल गई। यह बात प्रजा के कानों तक पहुंची। लोग तरह-तरह की बातें करने लगे। कहने लगे, 'जो राजा अपने सौम्य, सरल, स्वजन संबंधी की रक्षा नहीं कर सकता, वह प्रजा की रक्षा क्या करेगा?' लोग राज की आज्ञाओं का उल्लंघन करने लगे। इस स्थिति का लाभ उठाकर पड़ोसी राजा ने आक्रमण कर दिया। प्रसिचेत सेना लेकर शत्रु का मुकाबला करने के लिए चल पड़े। मार्ग में महर्षि अंगिरा का आश्रम पड़ता था। वह महर्षि से मिलने के लिए रुके।
पहले तो महर्षि ने शासकोचित स्वागत की तैयारी की, पर तभी उन्हें पता चला कि महाराज ने रानी का परित्याग कर दिया है, तो उन्होंने स्वागत की सारी तैयारियां स्थगित कर दीं और उनकी आवभगत एक साधारण नागरिक की तरह की। राजा ने साधारण स्वागत का कारण पूछा, तो महर्षि ने कहा, 'राजन! पत्नी का परित्याग करना अधर्म है और यह अधर्म करने से पति की मर्यादा वैसे ही नष्ट हो जाती है जैसे आप की। एक राजा के नाते आपको गृहस्थ और पारिवारिक जीवन में भी उच्च आदर्श प्रस्तुत करने चाहिए। लेकिन आपने ऐसा नहीं किया। इसलिए आप प्रजा की नजर में भी गिर गए। वैसे देर अब भी नहीं हुई है। आप इसे सुधार सकते हैं।' महर्षि की बात सुनकर राजा को अपने किए पर पछतावा हुआ। उसने रानी को वापस बुलाया और अपने व्यवहार के लिए उससे क्षमा मांगी।
Friday, October 14, 2011
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment