Thursday, October 13, 2011

संतोष का धन

एक सेठ के पास काफी धन-संपत्ति थी। उसे इस बात का गर्व था। पर अचानक एक दिन उसने हिसाब किया तो पता चला कि वह संपत्ति उसके और उसके बच्चों के लिए तो पर्याप्त होगी, लेकिन बच्चों के बच्चों के भरण-पोषण के लिए यह काफी नहीं है। इस विचार के आते ही सेठ भारी चिंता में पड़ गया।

संयोग से उन्हीं दिनों एक महात्मा उस नगर में आए हुए थे, जो सबकी इच्छा पूरी कर देते थे। सेठ महात्मा के पास पहुंचा और बोला, 'महाराज, मुझे इतनी संपत्ति चाहिए, जिसे मेरे बच्चों के बच्चे भी भोगें फिर भी वह कभी खत्म न हो।' महाराज ने कहा, 'ऐसा ही होगा। तुम्हारे घर के पास टूटी झोपड़ी में सास-बहू रहती हैं। कल उन्हें एक दिन का राशन दे आना। तुम्हारी इच्छा पूरी हो जाएगी।'

सेठ की खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा। उसने मुश्किल से रात काटी। दिन निकलते ही वह चावल, आटा आदि लेकर उस झोपड़ी पर पहुंचा, जहां सास ध्यानमग्न थी और बहू सफाई कर रही थी। सेठ ने बहू से कहा, 'यह लो तुम्हारे लिए आटा, चावल, घी और नमक लाया हूं।' बहू ने निगाह उठाकर देखा और बोली, 'हमें नहीं चाहिए। आज हमारे पास खाने के लिए है। हम अगले दिन के लिए इकट्ठा नहीं करते, भगवान हमें रोज देता है।'

सेठ हैरान हुआ। उसने सोचा कि मैं तो बच्चों के बच्चों की चिंता कर रहा हूं और यह लोग कल की चिंता नहीं करते। उसकी आंखें खुल गईं। उसने धन के पीछे भागना छोड़ दिया। वह अपने जीवन से संतुष्ट रहने लगा।

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