Thursday, October 13, 2011

अहंकार का त्याग

राजा शूरसेन के राज्य में अमन चैन और संपन्नता भरपूर थी। मगर अपने राज्य के और विस्तार एवं अपने वंशजों की समृद्धि के लिए उन्होंने ऋषि याज्ञवल्क्य से उनके आश्रम में जाकर विशेष यज्ञ कराने की प्रार्थना की। ऋषि ने राजा का मान रखते हुए प्रसन्नतापूर्वक यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और उन्हें यज्ञ संबंधी तैयारियां करने को कहा।

शूरसेन दो दिनों के बाद ही पूरे लाव-लश्कर के साथ कई रथों में हवन सामग्री, खाद्य सामग्री, फल, मिठाइयां और वस्त्रादि लेकर ऋषि के आश्रम में पहुंच गए। अपनी संपन्नता को दर्शाते हुए शूरसेन का चेहरा गर्व से चमक रहा था।

ऋषि ने राजा को इतने जमावडे़ और व्यर्थ के प्रपंच के साथ आश्रम में आते देखा तो खिन्न होकर बोले, 'राजन, आप यहां यज्ञ करने आए हैं या अपने वैभव का प्रदर्शन करने? यज्ञ संपन्न करने के लिए व्यर्थ के इस आडंबर और दिखावटी सामग्री की यहां कोई आवश्यकता और औचित्य नहीं है। मैंने तैयारी करने के लिए अवश्य कहा था पर मेरा आशय न्यूनतम अपेक्षित सामग्री और मानसिक तैयारी से था। जिस कामना के चलते आप यह यज्ञ करना चाहते हैं, उसके लिए तो आपको स्वयं का अहंकार, अनाचार और कदाचार ही होम करना होगा, तभी यज्ञ सफल हो पाएगा। अगर आप ऐसा कर सकते हैं तो मैं यज्ञ प्रारंभ कर सकता हूं।'

राजा को अपनी गलती का अहसास हो गया। उन्होंने ऋषि के चरणों में झुककर उनसे क्षमा मांगी। फिर सारे रथ और अपने समर्थक तुरंत वापस राजधानी लौटा दिए और समर्पित भाव से यज्ञ संपन्न करने में जुट गए।

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