किसी शहर में धार्मिक प्रवृत्ति का एक व्यक्ति रहता था। उसकी इच्छा थी कि इस जन्म में चाहे जो करना पड़े, लेकिन मरने के बाद उसे स्वर्ग अवश्य मिले, इसलिए वह गरीबों की सेवा करता, दान-दक्षिणा देता, कमाई का अधिकांश भाग परोपकार में ही लगा देता। लेकिन जैसे-जैसे उसकी परोपकार की भावना का विकास हो रहा था वैसे ही उसमें अहंकार भी बढ़ रहा था। कोई उसकी दानशीलता पर टीका-टिप्पणी कर देता तो उसके क्रोध की सीमा न रहती। एक बार एक प्रसिद्ध संत उसके घर के पास आकर रुके तो वह फौरन उनकी सेवा में उपस्थित हो गया और उनसे भी स्वर्ग जाने का उपाय पूछने लगा।
संत ने उस व्यक्ति को ध्यानपूर्वक ऊपर से नीचे तक देखा और उपेक्षा से कहा, 'तुम स्वर्ग जाओगे? तुम तो देखकर ही लंपट मालूम पड़ रहे हो। तुम परोपकारी या दानी व्यक्ति नहीं धर्म के ठेकेदार ज्यादा लग रहे हो।' इतना सुनते ही वह व्यक्ति क्रोध से भर उठा और उसने संत को मारने के लिए डंडा उठा लिया। संत ने मुस्कराते हुए कहा,' तुम में तो तनिक भी धैर्य नहीं। इतनी अधीरता और अहंकार के होते हुए तुम स्वर्ग कैसे जा पाओगे?' व्यक्ति को संत की कही हुई बातों का मर्म समझ में आ गया तो वह संत के चरणों में गिर पड़ा और अपनी गलती के लिए क्षमा मांगने लगा। उसने आगे से कभी क्रोध न करने तथा अहंकार वृत्ति के त्याग का भी प्रण किया। संत ने कहा, 'जिस दिन तुम सब अवगुणों से मुक्त हो जाओगे उस दिन स्वर्ग की सृष्टि यहीं पर हो जाएगी।'
Thursday, October 13, 2011
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