राजा भोज अपनी न्यायप्रियता के साथ विद्वानों का आदर करने के लिए भी जाने जाते थे। वे अकसर विद्वानों और दरबारियों से भिन्न-भिन्न विषयों पर चर्चा करते रहते। एक बार उनके राज्य के सबसे बडे़ विद्वान उनके दरबार में आए। एक दिन वे दोनों खाने की मेज पर बैठे, तभी भोज के मन में एक सवाल उठा। उन्होंने विद्वान से पूछा,' कृपया बताएं कि हक की रोटी कैसी होती है।' विद्वान ने कहा, 'इसका जवाब मैं आपको दूं इससे अच्छा है कि आप इसे अपने नगर में ही रहने वाली एक वृद्धा से पूछें। आप उनसे हक की रोटी मांग भी सकते हैं। आपके प्रश्न का सटीक जवाब आपको मिल जाएगा।'
भोज उस वृद्धा के पास पहुंचे और बोले, 'माता मुझे हक की रोटी दें।' वृद्धा ने कहा, 'राजन् मेरे पास बस एक रोटी है, पर उसमें आधी हक की है और आधी बेहक की।' भोज ने पूछा, 'भला ऐसा कैसे?' वृद्धा ने कहा, 'एक दिन मैं शाम के समय चरखा काट रही थी। अंधेरा हो चला था। इतने में रास्ते से गाने वालों की मंडली निकली। उन लोगों ने मशालें भी जला रखी थीं। मशालों की रोशनी में मैं चरखा कातती रही। मैंने उस रोशनी में आधी पूनी काती जबकि आधी पहले की थी। उस पूनी को बेचकर मैंने आटा खरीदा, फिर रोटी बनाई। इसलिए आधी रोटी हक की है और आधी बेहक की। इस आधी रोटी पर तो उस मंडली का हक है।' भोज समझ गए कि कई बार हम जिसे अपना मानते हैं उस पर दूसरों का हक होता है।
Thursday, October 13, 2011
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