एक विद्वान महर्षि ने घोर तप आरंभ किया। आंधी - तूफान और अन्य विघ्न - बाधाएं भी उन्हें तप से नहीं डिगा सकीं। देवराज इंद्र को जब इसकी सूचना मिली तो वह हमेशा की तरह भयग्रस्त हो गए। उन्हें लगा कि यह महर्षि कहीं उनके लिए खतरा न बन जाएं। यही सोच कर वह एक शिकारी का रूप धारण कर महर्षि के पास पहुंचे और उनसे हाथ जोड़कर बोले , ' गुरुजी , मुझे किसी आवश्यक काम से जाना है। मैं अपना धनुष - बाण आपके पास रखना चाहता हूं। जब मैं वापस आऊंगा तो आपसे ले लूंगा। कृपया इसे संभाल कर रख लें। '
महर्षि शिकारी वेश में इंद्रदेव को नहीं पहचान पाए। उन्होंने धनुष - बाण रखने से साफ मना कर दिया। किंतु इंद्रदेव भला इतनी आसानी से कहां हार मानने वाले थे ? उन्होंने महर्षि पर इतना जोर डाला कि उन्हें धनुष - बाण रखना पड़ा लेकिन वह बोले , ' तुम नहीं मानते तो इसे कुटिया के एक कोने में रख दो। किंतु मैं तप में इतना लीन होता हूं कि मुझे किसी का ध्यान ही नहीं रहता। ऐसे में इसकी रखवाली मुमकिन नहीं है। ' इस पर शिकारी बने इंद्रदेव बोले , ' चिंता न करें गुरुजी , इसे कोई लेकर जाने वाला नहीं है। बस आते - जाते एक नजर डाल लिया करें। ' इसके बाद वह वहां से चले गए।
महर्षि तप में लीन हो गए। मगर कई बार उनकी नजर कोने में पड़े धनुष - बाण पर अवश्य पड़ जाती। वे भी कभी राजा थे और राजपाट छोड़कर संन्यासी बनकर तप में लगे थे। कई दिनों तक उस पर नजर पड़ते - पड़ते उनके मन में धनुष - बाण चलाने की इच्छा जागने लगी। बस , अब वे तप से समय बचाकर जंगल में निकल जाते। उनका ध्यान बंटने लगा। तप में कमी आ गई। इंद्रदेव यही तो चाहते थे। उन्हें महर्षि के कठोर तप से अपना सिंहासन हिलता हुआ नजर आने लगा था जो अब सुरक्षित था। महर्षि के मन के कोने में दबी उनकी एक कमजोरी ने उनका कठोर तप भंग कर दिया।
Thursday, October 13, 2011
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