महादेव गोविंद रानाडे के घर एक दिन उनके किसी मित्र ने आम भेजे। रानाडे की पत्नी रमाबाई ने आम धोकर रानाडे के पास खाने के लिए रखे। रानाडे ने एक-दो टुकड़े खाकर उनके स्वाद की प्रशंसा की और कहा, 'इसे तुम भी खाकर देखो और सेवकों को भी दो।' रमाबाई को आश्चर्य हुआ कि उनके पतिदेव ने आम के केवल एक-दो टुकड़े ही खाए। उन्होंने पूछा, 'आपका स्वास्थ्य तो ठीक है?' रानाडे बोले, 'तुम सोच रही होगी कि आम स्वादिष्ट हैं तो फिर मैंने ज्यादा क्यों नहीं खाए? दरअसल ये मुझे बहुत स्वादिष्ट लगे इसलिए मैं अधिक नहीं ले रहा।' पति की यह अजीब बात रमाबाई को समझ में नहीं आई।
रानाडे बोले, 'बचपन में मेरे पड़ोस में एक महिला रहती थी। वह पहले काफी संपन्न थी किंतु दुर्भाग्य से उसकी सारी संपत्ति चली गई। किसी प्रकार उसका और उसके पुत्र का पालन-पोषण हो सके, इतनी ही आय उसके पास बची। वह कई बार जब अकेली होती, तब अपने आप से कहती- मेरी जीभ बहुत चटोरी है। इसे बहुत समझाती हूं कि अब चार-छह साग मिलने के दिन गए। कई प्रकार की मिठाइयां अब दुर्लभ हैं। पकवानों को याद करने से कोई लाभ नहीं, फिर भी मेरी जीभ नहीं मानती, जबकि मेरा बेटा रूखी-सूखी खाकर पेट भर लेता है। उस महिला की बात सुनकर तभी से मैंने नियम बना लिया कि जीभ जिस वस्तु को पसंद करे, उसे थोड़ा ही खाना है। अपनी जरूरतों को कम रखने से जहां सुख के दिनों में आनंद रहता है, वहीं दुख के दिनों में भी कष्ट नहीं होता।'
Friday, October 14, 2011
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
 
No comments:
Post a Comment