चंद्रगुप्त मौर्य दोपहर में वेश बदलकर नगर का निरीक्षण करने के लिए निकले। धूप व गर्मी से वह बेहाल थे। एक जगह घना वृक्ष देखकर वह उसके नीचे बैठ गए। उन्हीं के ठीक सामने पेड़ के नीचे एक भिखारी फटेहाल, चिथड़ों में बैठा प्रसन्न कुछ गुनगुना रहा था। तभी वहां एक और भिखारी आया और चंद्रगुप्त से बोला, 'भगवान के नाम पर कुछ दे दो। मैं दो दिन से भूखा हूं।' चंद्रगुप्त बोले, 'भाग यहां से, हट्टा-कट्टा होने पर भी हाथ फैलाता है।' भिखारी डांट खाकर सामने बैठे भिखारी के पास गया और उसके सामने गिड़गिड़ाने लगा।
उस भिखारी ने अपनी पोटली खोली और उसमें से एक सिक्का निकालते हुए बोला, 'जा इस समय मेरे पास यही है। इसी से खरीद कर कुछ खा ले।' दूसरा भिखारी पहले भिखारी को आशीष देता हुआ चला गया और पहला भिखारी फिर उसी तरह गुनगुनाने लगा। चंद्रगुप्त यह देखकर दंग रह गए कि उनके राज्य में भिखारी भी दाता है। फिर उन्हें संदेह हुआ कि कहीं यह कोई विदेशी गुप्तचर न हो। वह उसके पास जा पहुंचे और उसके बारे में पूछने लगे। भिखारी बोला, 'मैं भिखारी हूं और मेरा नाम कालीचरण है।' चंद्रगुप्त बोले, 'पर तुम्हारे चेहरे पर भिखारियों जैसी दीनता नहीं बल्कि राजाओं जैसी चमक है।' इस पर भिखारी मुस्कराते हुए बोला, 'असल में मैं अपने लिए कभी कुछ नहीं चाहता, सदा दूसरों के लिए कुछ करता रहता हूं। इससे मुझे सुख मिलता है और शायद यही मेरे चेहरे पर चमक का राज है।' चंद्रगुप्त इस सीख को अपने जीवन में उतारने का संकल्प लिए चल पड़े।
Friday, October 14, 2011
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