इंग्लैंड के मुख्य न्यायाधीश के सामने सम्राट एडवर्ड सप्तम अपराधी के रूप में खडे़ थे। सम्राट ने स्वयं अपने अपराध का विवरण देते हुए न्यायाधीश से न्याय की मांग की। न्यायाधीश को समझ में नहीं आया कि अपने सम्राट को क्या सजा दी जाए, मगर बिना कुछ व्यवस्था दिए भी स्थिति को टाला नहीं जा सकता था।
उसने काफी सोच- विचार के बाद निर्णय दिया, 'चूंकि मामला सम्राट का है इसलिए इसकी न्याय प्रक्रिया भी विशेष होनी चाहिए। मैं चाहता हूं कि मामले को उन सब न्यायालयों को भेजा जाए जो सम्राट की शासन-सीमा में आते हैं। फिर सभी न्यायाधीशों के बहुमत को ही उचित ठहराया जाए।'
सम्राट समझ गए कि न्यायाधीश ने चतुराई से अपनी बला दूसरे के सिर मढ़ दी है, लेकिन मुख्य न्यायाधीश के निर्णय को भला चुनौती कौन देता! जिन-जिन देशों में एडवर्ड सप्तम का शासन फैला था उन-उन देशों के न्यायालयों में वह केस न्याय के लिए भेज दिया गया।
एक निश्चित समय के भीतर सब अदालतों ने अपना निर्णय इंग्लैंड भेज दिया किंतु उन सभी फैसलों में सम्राट को क्षमा किया गया था, हालांकि युक्तियां तर्क और दांव-पेच सबके भिन्न थे। हां मद्रास हाई कोर्ट के जस्टिस सर टी. मुथ्थुस्वामी ने अपना निर्णय लिखा, 'हमें सबसे पहले तो यह बात भूलनी होगी कि फैसला सम्राट के केस का है।
क्योंकि कानून की नजर में न कोई सम्राट होता है और न भिखारी। फिर न्यायालय का यह भी कर्त्तव्य हो जाता है कि फैसला इस ढंग से दिया जाए कि वह एक उदाहरण बन सके। मेरे विचार से सम्राट का ताज उतार कर एक करोड़ सिक्कों में उन्हें नंगे सिर वाला दिखाया जाए और उन सिक्कों को पूरे साम्राज्य में फैला दिया जाए। मैं समझता हूं कि सम्राट की शोभा भी इसी में है कि वह इस फैसले से स्वयं को अपमानित न महसूस कर इसे सहर्ष शिरोधार्य करें।' सम्राट ने सर मुथ्थुस्वामी का फैसला मान लिया।
Thursday, October 13, 2011
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