स्वामी विवेकानंद और उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस बैठे थे। विवेकानंद ने अपने मन की बात कही , ' मेरे मन में तपस्या की चाहत जगी है। लेकिन मैं तपस्या किसी साधारण स्थल पर न करके हिमालय की शांत कंदराओं में करना चाहता हूं।
वहां तपस्या में न विघ्न - बाधाएं आएंगी और न ही कभी मेरी एकाग्रता भंग होगी। इस बारे में आपका क्या कहना है ?' इस पर परमहंस मुस्कराते हुए बोले , ' जब तुमने निश्चय कर ही लिया है तो मेरी राय क्यों पूछ रहे हो ?' यह सुनकर विवेकानंद बोले , ' गुरुजी , अभी मेरे जीवन की शुरुआत है।
मैं गलत फैसले भी ले सकता हूं। इसलिए तो आप से मार्गदर्शन चाहता हूं। ' विवेकानंद की इस बात पर परमहंस बोले , ' यदि मेरा मार्गदर्शन चाहते हो तो वह मैं अवश्य दूंगा। मैं यह कहूंगा कि हमारे क्षेत्र के लोग भूख से तड़प रहे हैं , रोगों से ग्रस्त हैं। चारों ओर अशिक्षा एवं अज्ञान का अंधेरा छाया हुआ है। यहां लोग रोते - चिल्लाते रहें और तुम हिमालय की किसी गुफा में तपस्या में , समाधि में निमग्न रहो , क्या इसे तुम्हारी आत्मा स्वीकार करेगी ?'
रामकृष्ण परमहंस के इन शब्दों ने स्वामी विवेकानंद की आत्मा को झकझोर डाला। उनकी दृष्टि ही बदल गई। उन्होंने उसी समय संकल्प किया कि वह अपना जीवन गरीबों की सेवा एवं शिक्षा का प्रचार कर अज्ञान को दूर करने में लगाएंगे। वह रामकृष्ण परमहंस का आशीर्वाद लेकर वहां से चले आए। इसके बाद आजीवन वह मानव सेवा के कार्य में लगे रहे और सबसे यही कहते रहे कि सच्चे मन से मनुष्य की सेवा ही सबसे बड़ा कर्म है।
Friday, October 14, 2011
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