नवलगढ़ के राजा भीमसिंह जब गद्दी पर बैठे तो उन्हें राजा होने के साथ - साथ खजांची का काम भी देखना पड़ा। उनके यहां यह परंपरा चली आ रही थी कि राजा ही खजांची होगा। कुछ ही दिनों बाद भीम सिंह खजांची का कार्यभार संभालते - संभालते थक गए और अपने मंत्री से बोले , ' मंत्री जी , हमने तो ऐसा कहीं नहीं देखा कि राजा ही अपने राज्य के खजांची का कार्यभार संभाले। आखिर हमारे यहां यह नियम क्यों है ?' इस पर मंत्री बोला , ' महाराज , आपके पिताश्री भी खजांची का कार्यभार स्वयं संभालते थे। इसका कारण यह है कि उनके समय में जो खजांची था , उसने राजकोष से बहुत सा धन चुराया और जब उसकी चोरी का पता लगा तो वह मर गया। इसलिए किसी को भी यह पता नहीं चला कि चोरी का वह धन कहां गया ? बस तभी से आपके पिताजी ने अपना खजाना स्वयं संभालना शुरू कर दिया। '
भीम सिंह बोले , ' लेकिन हमारे राज्य में केवल चोर नहीं , ईमानदार लोग भी तो होते होंगे। आप शीघ्र एक ईमानदार खजांची की नियुक्ति कराइए। ' इस पर मंत्री बोला , ' महाराज , आपके आदेश का पालन किया जाएगा किंतु उसके लिए बाहर के किसी व्यक्ति को न रखकर दरबार में से ही किसी योग्य कर्मचारी को रख लिया जाए तो बेहतर है। ' राजा ने मंत्री की बात मान ली। पचीस दरबारियों ने खजांची के लिए आवेदन कर दिया।
राजा बोले , ' हमारे यहां छब्बीस दरबारी हैं। फिर एक दरबारी ने आवेदन क्यों नहीं किया ?' मंत्री बोला , ' महाराज खजांची का वेतन दरबारी के वेतन से कम है। इसलिए उसने आवेदन नहीं किया। ' इस पर राजा ने कहा , ' इसका अर्थ यह हुआ कि बाकी दरबारी जानते हैं कि खजांची बनने पर वे अनुचित फायदा उठाकर धनोपार्जन कर सकते हैं जबकि छब्बीसवें दरबारी के मन में ऐसा कुछ नहीं है क्योंकि वह ईमानदार है। ' उन्होंने छब्बीसवें दरबारी को खजांची नियुक्त कर दिया। इस प्रकार राजा की कुशलता से एक ईमानदार खजांची राज्य को मिल गया।
Friday, October 14, 2011
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