यह घटना उस समय की है जब राष्ट्रीय आंदोलन जोरों पर था। इसमें आम जन ही नहीं, राजा-महाराजा तक अपना योगदान देने को तैयार थे। एक दिन काशी के महाराजा गांधीजी के आश्रम में आए और बोले, 'बापू, मैं भी राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल होना चाहता हूं।' इस पर गांधीजी प्रसन्नता से बोले, 'यह तो बहुत अच्छी बात है कि राजा आगे आए हैं। उनके साथ प्रजा भी आगे आएगी। एक राजा अपने साथ लाखों प्रजा भी लेकर आएगा।'
भोजन का समय होने पर गांधीजी ने महाराजा को खाने के लिए अपने साथ बिठाया। महाराजा को भी वैसा ही सादा भोजन दिया गया जैसा गांधीजी खाते थे। लेकिन गांधीजी के भोजन में एक वस्तु अधिक थी -चटनी। महाराजा को चटनी नहीं दी गई थी। जब महाराजा ने देखा कि गांधीजी चटनी मजे से खा रहे हैं, तो वह बार-बार उनकी ओर देखने लगे। गांधीजी ने पूछा, 'आपको भी चटनी चाहिए?' फिर तुरंत गांधीजी ने चम्मच भर चटनी उनकी थाली में रख दी। महाराजा ने उसका स्वाद लेने की जल्दी में ढेर सारी चटनी अपने मुंह में भर ली। चटनी मुंह में रखते ही उनके मुंह का स्वाद बिगड़ गया। उनसे न निगलते बन रहा था न उगलते। महाराजा ने पूछा, 'बापू, चटनी बड़ी कड़वी है। नीम की है क्या?' गांधीजी बोले, 'हां नीम की है। मैं तो वर्षों से रोज खा रहा हूं। तुम अगर मुंह का स्वाद नहीं बदलोगे तो आंदोलन के कष्ट कैसे भोगोगे?' महाराजा बापू का आशय समझ गए। वह जी कड़ा कर चटनी खाने लगे।
Friday, October 14, 2011
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment