Thursday, October 13, 2011

मन की जीत

आदि शंकराचार्य जी अपने भक्तों को प्रेम और विश्वास की शिक्षा देते थे। उनके भक्त उनसे अपनी समस्याओं के समाधान पाकर अपना जीवन सुधारते थे और अपनी गलतियों का प्रायश्चित कर नेक राह पर चलते थे। एक दिन उनके पास एक व्यक्ति आया और बोला, 'महाराज, मैं एक साधारण गृहस्थ हूं। मैं अपने जीवन को बेहद सफल बनाना चाहता हूं और यह तभी संभव है जब मैं जगत को जीत पाऊं।

क्या जगत पर जीत संभव है?' उस व्यक्ति की बात सुनकर शंकराचार्य जी बोले, 'भाई, यह संभव तो है लेकिन बेहद कठिन है। जगत को जीतना अगर सरल ही होता तो प्रत्येक व्यक्ति जगत को जीत लेता।' इस पर वह गृहस्थ बोला, 'पर मुझे तो जगत को जीतना ही है। आप मुझे उपाय बताइए कि मैं इसके लिए क्या करूं?'

शंकराचार्य जी बोले, 'जगत को वही जीत सकता है, जो मन को जीत लेता है। यह मन बड़ा चंचल है। संसार की जड़-वस्तुएं इस चंचल मन को सहज ही अपनी ओर आकर्षित कर लेती हैं और व्यक्ति मन के वशीभूत होकर जड़ वस्तुओं की ओर खिंचता चला जाता है। वह जितना ज्यादा जड़-वस्तुओं की ओर आकर्षित होता जाता है उतना ही जगत को जीतने की उसकी कल्पना धूमिल होती जाती है।'

शंकराचार्य जी की बात सुनकर गृहस्थ बोला, 'महाराज, मन को नियंत्रण में रखना तो वाकई मुश्किल कार्य है। क्या आप मन को जीतने का कोई उपाय बता सकते हैं?' इस पर शंकराचार्य बोले, 'संसार की निस्सारता के ज्ञान तथा ईश्वर की आराधना के माध्यम से मन को जीता जा सकता है। मन को नियंत्रण में करने के लिए तुम्हें ऐसी वस्तुओं को अपने सामने रखकर अभ्यास करना होगा जिन्हें पाकर तुम्हें लालच आता हो।

उन वस्तुओं को सामने रखकर तुम्हें उनसे दूर जाने का अभ्यास करना होगा। यह जटिल अवश्य है, किंतु इस पर विजय पाई जा सकती है।' गृहस्थ मन को जीतने का मंत्र पाकर प्रसन्नतापूर्वक चला गया ।

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