Tuesday, October 18, 2011

संतोष का धन

आसफउद्दौला एक नेक बादशाह था। जो भी उसके सामने हाथ फैलाता, वह उसकी झोली भर देता। एक दिन उसने एक फकीर को गाते सुना- जिसको न दे मौला उसे दे आसफउद्दौला। बादशाह खुश हुआ। उसने फकीर को एक बड़ा तरबूज दिया।

फकीर ने तरबूज ले लिया, मगर वह दुखी था। उसने सोचा कि बादशाह को कुछ बहुमूल्य चीज देनी चाहिए थी। कुछ ही देर बाद एक और फकीर बादशाह के पास से गाता हुआ गुजरा- आसफउद्दौला है कौन भला, देने वाला तो सिर्फ मौला। ये बोल बादशाह को अच्छे नहीं लगे। उसने फकीर को बेमन से दो आने दिए। फकीर दो आने लेकर खुशी से झूमता हुआ वहां से चल दिया। रास्ते में दोनों फकीरों की मुलाकात हुई। पहले फकीर ने दूसरे से पूछा कि उसे बादशाह ने क्या दिया। यह जानकर कि उसे दो आने मिले हैं, वह बोला- तुम्हें तो फिर भी अधिक मिले, मुझे तो सिर्फ तरबूज मिला।

फिर पहले फकीर ने दूसरे से दो आने लेकर वह तरबूज उसे बेच दिया। दूसरा फकीर खुशी-खुशी तरबूज लेकर घर लौटा। उसने तरबूज काटा तो उसकी आंखें फटी रह गईं। उसमें अशर्फियां भरी हुई थीं। कुछ दिन बाद पहला फकीर फिर आसफउद्दौला के पास खैरात मांगने पहुंचा।

आसफउद्दौला ने उसे पहचानकर पूछा- उस दिन जो तरबूज दिया था, वह कैसा निकला? फकीर ने बताया कि उसे तो उसने दो आने में बेच दिया। तब बादशाह ने कहा- तरबूज में अशर्फियां थीं, पर तुमने उसे बेच दिया। तुम्हारे पास संतोष का धन नहीं है, इसलिए दूसरा कोई धन तुम्हारी चाह पूरी नहीं कर सकता।

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