पाटलिपुत्र पहुंचकर यूनानी दूत मेगास्थनीज ने आचार्य विष्णुगुप्त से भेंट करने का समय मांगा तो आचार्य ने उसे शाम में अपनी कुटिया पर आकर मिलने को कहा। नियत कार्यक्रम के अनुसार मेगास्थनीज आचार्य की नगर की सीमा से बाहर स्थित कुटिया पर जा पहुंचा। शाम ढलने ही वाली थी। अंधेरा छाने लगा था। मेगास्थनीज ने बाहर से ही देखा कि आचार्य अपने आसन पर बैठे कुछ काम करने में लगे हुए हैं। प्रकाश की व्यवस्था के लिए वहीं रखी एक तिपाई पर दीया जल रहा था।
मेगास्थनीज जैसे ही प्रवेश द्वार के निकट पहुंचा, आचार्य ने उसे भीतर आकर आसन ग्रहण करने का संकेत किया और स्वयं अपने कार्य में तल्लीन रहे। कुछ पल यूं ही बीत गए। तब आचार्य ने अपना कार्य समाप्त किया, पत्रांक आदि समेट कर एक ओर रखे और उस दीपक को, जो उस समय प्रकाशमान था, बुझा दिया और पास ही रखा एक अन्य दीप जला लिया।
फिर आचार्य ने मेगास्थनीज से हालचाल पूछा। मेगास्थनीज आचार्य के व्यवहार को देखकर आश्चर्यचकित था। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि जब एक दीपक जल ही रहा था और उपयुक्त प्रकाश भी दे रहा था तो आचार्य ने उसे बुझाकर दूसरा दीपक क्यों जलाया? उससे रहा नहीं गया। थोड़ी देर की बातचीत के बाद उसने आचार्य से इसका कारण पूछ ही लिया।
आचार्य ने सहजता से कहा, 'तुम जब यहां आए, तब मैं जो काम कर रहा था, वह राज्य व्यवस्था से संबंधित था और तब जो दीपक जल रहा था, उसका खर्च शासन तंत्र उठाता है। लेकिन अब चूंकि वह कार्य समाप्त हो गया इसलिए मैंने वह दीपक बुझा दिया। अभी जो दीपक मैंने जला रखा है, उसके खर्च का वहन मैं अपनी आय से करता हूं। मैं अपने व्यक्तिगत कार्य के लिए राज्य के संसाधन का दुरुपयोग कैसे कर सकता हूं।' मेगास्थनीज ने नैतिक जवाबदेही का ऐसा उदाहरण कहीं और नहीं देखा था। वह समझ गया कि मौर्य शासन का भविष्य उज्ज्वल है।
Tuesday, October 18, 2011
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