Tuesday, October 18, 2011

कर्त्तव्य की रक्षा

बात सोलहवीं सदी की है। फ्रांसीसी शहर तूलोन के पास एक टापू के प्रकाश गृह (लाइट हाउस) में काम करने वाला व्यक्ति अचानक बीमार हो गया। सवाल उठा कि अब जहाजों को रोशनी दिखाने का काम कौन करे। रात के केवल नौ ही बजे थे। रोशनी दिखाने वाले की पत्नी ने अपने कर्त्तव्य का महत्व समझ खुद ही लैम्प जला दिया। लैम्प जलाकर वह लौटी ही थी कि उसने पाया उसका पति मरणासन्न है। वह चिंतित हो गई। इतने में उसके सात साल के बेटे और नौ साल की बेटी ने आकर बताया कि लैम्प घूम नहीं रहा है।

दरअसल प्रकाश गृह का लैम्प चारों ओर घूमकर अपना प्रकाश फैलाता था। यदि वह एक ही दिशा को प्रकाशित करता तो जहाजों के टकराने और डूबने की आशंका थी। पत्नी पति को मृत्यु शय्या पर छोड़ बच्चों के साथ लैम्प ठीक करने चली गई, पर वह ठीक नहीं हुआ। उसने अपने बच्चों को वहीं बैठाते हुए कहा,' तुम लोग रातभर लैम्प को चारों ओर घुमाते रहना। आज बादलों के कारण चांद की रोशनी भी नहीं है।' यह कहकर वह अपने पति के पास चली गई।

दोनों बच्चे सुबह के छह बजे तक लैम्प घुमाते रहे। इस तरह उन्होंने कई जहाजों को रोशनी दिखाई और उन्हें दुर्घटना से बचाया। सुबह तक उन बच्चों के पिता का निधन हो चुका था। उनकी मां रो रही थी लेकिन उसके चेहरे पर कर्त्तव्य निभाने का संतोष झलक रहा था। वह जानती थी कि उसने और दोनों बच्चों ने एक महान काम को अंजाम दिया है और यही उसके पति के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि है।

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