उन दिनों स्वामी विवेकानंद पैरिस में थे। वहां इटालियन डचेस (राजकुमारी) ने उनसे अनुरोध किया कि वह उन्हें आसपास के इलाके में घुमाना चाहती हैं। दोनों घोड़ागाड़ी से घूमने निकले। चलते हुए वे शहर से बाहर आ गए। कोचवान ने एक जगह गाड़ी रोकी और सड़क किनारे के एक पार्क में चला गया। वहां एक बूढ़ी नौकरानी एक लड़का-लड़की का हाथ पकड़ कर बैठी थी। कोचवान ने उन बच्चों को प्यार किया। बच्चों से कुछ देर बात करने के बाद वह फिर से घोड़ागाड़ी चलाने लगा।
डचेस को यह सब थोड़ा अजीब लगा। उन दिनों वहां अमीर-गरीब के बीच बड़ा कठोर विभाजन था। वे बच्चे अभिजात लग रहे थे और कोचवान का इस तरह उन्हें प्यार करना डचेस को खटका। डचेस ने उससे पूछा कि उसने ऐसा क्यों किया। कोचवान ने डचेस से कहा, 'वे मेरे बच्चे हैं। मैं पैरिस के सबसे बड़े बैंक का मैनेजर था। मैंने इतना घाटा उठाया कि उसे चुकाने में कई साल लग जाएंगे। अपनी पत्नी और बच्चों को मैंने इस जगह पर एक किराए के मकान में रखा है। एक बूढ़ी औरत उनकी देखभाल करती है। कुछ रकम जुटाकर मैंने यह घोड़ागाड़ी ले ली और अब इसे चलाकर अपने परिवार का भरण-पोषण करता हूं। कर्ज चुका देने के बाद मैं फिर से एक बैंक खोलूंगा और उसे विकसित करूंगा।' उसका आत्मविश्वास देखकर विवेकानंद बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने डचेस से कहा, 'इसे वेदांत का मर्म मालूम है। अपनी हैसियत से गिरने के बाद भी अपने व्यक्तित्व और कर्म पर उसकी आस्था डिगी नहीं है। यह अपने मकसद में अवश्य सफल होगा।'
Tuesday, October 18, 2011
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