यह घटना उस समय की है जब प्रसिद्ध न्यायवेत्ता महादेव गोविंद रानाडे हाई कोर्ट के जज थे। उन्हें अनेक भारतीय एवं विदेशी भाषाओं का ज्ञान था। फिर भी वह हमसे कुछ न कुछ नया सीखने को लालायित रहते थे। वह बंगला सीखने को आतुर थे लेकिन उन्हें अभी तक बंगला सिखाने के लिए कोई व्यक्ति नहीं मिला था। उन्हीं दिनों उन्हें पता चला कि उनके एक पड़ोसी की हजामत बनाने के लिए जो व्यक्ति आता है वह बंगला भाषी है। महादेव गोविंद रानाडे ने उसी से अपनी हजामत बनवाने का निश्चय किया। उन्होंने सोचा कि हजामत बनवाने से वह उसके साथ रहकर बंगला भी सीख जाएंगे। हजामत बनाते-बनाते नाई रानाडे को बंगला की जानकारी देता रहता था। उनकी पत्नी यह सब देखती रहती थी।
एक दिन वह झुंझला कर बोली, 'आप एक नाई से बंगला सीख रहे हैं । यदि यह बात किसी को पता चल गई तो वह क्या सोचेगा? इससे आपका मान-सम्मान धूमिल हो जाएगा।' यह सुनकर रानाडे बोले, 'इसमें सम्मान घटने की या धूमिल होने की कौन सी बात है? मैं कोई ऐसा काम नहीं कर रहा हूं जिससे किसी को कोई हानि हो अथवा जो कानून के विरुद्ध हो। मैं ज्ञान का प्यासा हूं और बंगला सीख रहा हूं। फिर ज्ञान की कोई जाति नहीं होती। वह तो जिससे भी जहां से भी मिले तुरंत ले लेना चाहिए। और व्यक्ति अपनी जाति से नहीं ज्ञान से जाना जाता है।' उनकी पत्नी को अपनी गलती का अहसास हो गया और उन्होंने अपनी गलत सोच के लिए रानाडे से माफी मांगी।
Friday, October 14, 2011
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