गौतम बुद्ध के मठ में आने वाले लोग उनके सत्संग का लाभ उठाते हुए अपार शांति पाते थे। सुरम्य वन के एकांत में बने मठ में आने-जाने वाला हर व्यक्ति उनसे अपनी समस्याओं का समाधान पाकर तनावमुक्त होकर वापस जाता था। एक दिन एक गृहस्थ बुद्ध की सभा में आया और प्रवचन समाप्त होने के बाद भी बैठा रहा। बुद्ध ने भांप लिया कि वह किसी गहरे तनाव में है। उन्होंने पूछा, 'वत्स, तुम अभी तक गए नहीं। क्या किसी परेशानी में हो?'
गृहस्थ ने कहा, 'प्रभु, एक चिंता हो तो बताऊं। सिर से पांव तक चिंताओं का बोझ लदा हुआ है। समझ में नहीं आता, क्या करूं?' बुद्ध पीतल का अपना कमंडल उठाते हुए बोले, 'आओ नदी किनारे चलें। वहीं बात करेंगे।' नदी के तट पर बैठकर बुद्ध कमंडल मांजने लगे। वह जितना मांजते, कमंडल उतना ही चमकता। बुद्ध ने कहा, 'जानते हो, मैं इसे क्यों रगड़ रहा हूं।' गृहस्थ ने कहा, 'इसे और निखारने के लिए।' बुद्ध बोले, 'बिल्कुल ठीक। ईश्वर भी जिन्हें प्रेम करता है, उन्हें रगड़-रगड़कर निखारता और चमकाता जाता है। इस क्रिया में कुछ मूढ़मति घबरा जाते हैं और अपने कर्त्तव्यों से डिगने लगते हैं। लेकिन ज्ञानवान अपने आसपास एक सकारात्मक वातावरण निमिर्त कर लेते हैं। दुनिया में एक तुम ही अकेले नहीं हो जो इस तरह की परीक्षाओं से गुजर रहे हो। इन परेशानियों को परीक्षाओं की तरह लोगे तो कष्ट बेहद कम होगा। जाओ इनका सामना करो।' बुद्ध की बातों से गृहस्थ को बड़ी राहत मिली। उसे अपनी समस्या का हल मिल गया था। वह बुद्ध को प्रणाम कर चल पड़ा।
Friday, October 14, 2011
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