बहुत पुरानी कथा है। मिस्त्र में सेरापियो नामक एक संत रहते थे। दूसरों की सेवा करना ही उनके जीवन का एकमात्र मकसद था। उनके शरीर पर हमेशा मोटे कपड़े का एक चोगा होता था। जरूरत पड़ने पर दीन-दुखियों की सहायता के लिए वह उसे भी बेच दिया करते थे। सेरापियो में सेवा भावना इतनी प्रबल थी कि कई बार वह स्वयं को भी एक निश्चित अवधि के लिए बेचकर गरीबों को आथिर्क मदद पहुंचाते थे। उनका यह आचरण सबके लिए आश्चर्य का विषय था। एक बार उनकी अपने घनिष्ठ मित्र से भेंट हुई। उन्हें बिल्कुल फटेहाल देखकर वह चकित रह गया। उसने प्रश्न किया, 'भाई, आपको नंगा और भूखा रहने के लिए कौन विवश करता है?'
संत ने उत्तर दिया 'गरीब और असहाय लोगों की दशा देखकर मुझसे रहा नहीं जाता। मेरी धर्म पुस्तक का आदेश है कि दीन-दुखियों की सेवा के लिए अपनी सारी वस्तुएं बेच डालो। मैंने ईश्वर की आज्ञा के पालन को ही अपने जीवन का उद्देश्य बनाया है।' मित्र ने पूछा, 'पर आपकी धर्म पुस्तक कहां है?' संत बोले, 'मैंने असहायों की सहायता के लिए उसे भी बेच दिया है। जो पुस्तक सेवा के लिए सारे सामान बेच देने का आदेश देती है, जरूरत पड़ने पर उसको भी बेचा जा सकता है। इसके दो लाभ हैं, पहला जिसके हाथों में ऐसी दिव्य पुस्तक पड़ेगी, उसकी त्याग-वृत्ति निखर उठेगी और दूसरा, पुस्तक के बदले जो पैसे मिलेंगे, उनसे जरूरतमंदों की सेवा भी हो सकेगी।' उनकी बात सुनकर मित्र सोच में पड़ गया और कुछ ही दिनों बाद उसने भी सेरापियों की राह पकड़ ली।
Friday, October 14, 2011
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