सत्यसेन बड़े प्रतापी एवं धर्मनिष्ठ राजा थे। उनका संकल्प था कि वह संसार के सर्वोच्च धार्मिक पंथ को ही स्वीकार करेंगे। इसके लिए उन्होंने अनेक धार्मिक नेताओं को बुलाया और उनसे मंत्रणा शुरू की। विभिन्न समुदायों एवं पंथों के नेता आते एवं अपने पंथ की सराहना और अन्य पंथ की आलोचना करते। यह देखकर राजा संशय में पड़ गए।
वह एक प्रसिद्ध संत के पास गए और उन्हें अपनी समस्या बताई। सारी बात जानकर संत राजा को अपने साथ एक नदी पर ले गए और बोले, 'मैं आपको सर्वोच्च पंथ का मार्ग बता सकता हूं किंतु उसके लिए आपको नदी के पार चलना होगा।'
राजा बोले, 'इसमें कौन सी बड़ी बात है। नाव से कुछ ही क्षणों में हम नदी के पार पहुंच जाएंगे।' अनेक नावें नदी के पास आ लगीं। संत सभी नावों में कुछ न कुछ मीन-मेख निकाल देते। यह देखकर राजा कुछ देर तो चुप रहे फिर खीझ कर संत से बोले, 'हमें किनारे पर ही तो जाना है उसके लिए सर्वश्रेष्ठ नाव चुनने की क्या आवश्यकता है। किसी भी ठीकठाक नाव को चुन लीजिए, वह हमें किनारे तक पहुंचा ही देगी।'
यह सुनकर संत बोले, 'राजन्, यही तो मैं तुमको बताना चाहता हूं कि माया के बने भवसागर को पार करने के लिए कोई भी पंथ पर्याप्त है। तुम जीवन के अमूल्य क्षणों को व्यर्थ क्यों खो रहे हो? किसी भी पंथ से आगे बढ़ो। छोटी-छोटी पगडंडियां भी महापथ तक पहुंचा देती हैं और मनुष्य अपना लक्ष्य पा जाता है।' संत की बात सुनकर राजा की आंखें खुल गईं।
Thursday, October 13, 2011
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