एक साधु एक राजा के अतिथि बने। राजा ने साधु से पूछा, 'बताएं, पूजा और भक्ति में क्या अंतर है?' साधु ने राजा को कुछ दिन प्रतीक्षा करने के लिए कहा। एक दिन जब राजा और साधु एक साथ भोजन कर रहे थे तब राजा ने रसोइए को बुलाया और कहा, 'आज सभी सब्जियां स्वादिष्ट हैं लेकिन बैंगन की सब्जी लाजवाब है।' रसोइए ने प्रसन्न होकर कहा, 'महाराज, बैंगन तो है ही शाही सब्जी। जैसे आप शहंशाह हैं वैसे ही बैंगन भी सब्जियों का शहंशाह है।' रसोइए ने अगले दिन फिर से बैंगन की सब्जी बनाई। अब वह रोज बैंगन बनाने लगा।
एक दिन राजा ने भोजन की थाली परे सरकाते हुए रसोइए को बुलाकर फटकार लगाई। रसोइया हाथ जोड़कर बोला, 'महाराज गलती हो गई। बैंगन तो घटिया सब्जी है। इसमें तो कोई गुण नहीं होता तभी तो इसका नाम बैंगन पड़ा। आदमी तो क्या, इसे जानवर भी नहीं खाते। अब मैं कभी इसकी सब्जी नहीं बनाऊंगा।' राजा रसोइए की बात सुनकर हैरान था।
उसने कहा, 'अभी कुछ दिन पहले तो तुम बैंगन की तारीफ कर रहे थे और आज इसे घटिया कह रहे हो।' रसोइया तपाक से बोला, 'महाराज, मैं नौकर आपका हूं, बैंगन का नहीं।' तभी साधु ने बीच में टोकते हुए राजा से कहा, 'रसोइए ने ऐसा मेरे कहने पर किया है। यही आपके प्रश्न का उत्तर है। हम मंदिर जाकर पूजा करते हैं, करवाते है, पुजारी को दक्षिणा देते हैं। यह भक्ति नहीं है। पुजारी तो ठहरा दक्षिणा का भोगी। जैसी दक्षिणा वैसी पूजा, वैसा ही आशीर्वाद। पूजा में हमें परमात्मा की भक्ति कहां याद रहती है।' राजा को अपने प्रश्न का उत्तर मिल गया।
Saturday, October 22, 2011
गांधीजी की सीख
महात्मा गांधी अपना जन्मदिन बड़ी सादगी से साबरमती आश्रम के कार्यकर्ताओं के साथ मिल कर मनाते थे। एक बार सेवा ग्राम के लोगों ने उनका जन्मदिन अपने यहां मनाने का फैसला किया। जन्मदिन पर बड़ी संख्या में वहां के लोग गांधी जी को मुबारकबाद देने पहुंचे।
सेवा ग्राम में गांधी जी का जन्म दिन मनाया जा रहा है, यह सोच कर कस्तूरबा गांधी पास के गांव से कुछ दीये ले आईं। जब गांधी जी प्रार्थना सभा में पहुंचे तो वहां देसी घी के दीये जलते देख कर वह चौंके मगर उन्होंने कहा कुछ नहीं। प्रार्थना खत्म हुई तो गांधी जी ने पूछा, 'ये दीये कौन लाया है?' बा ने कहा, 'पास के गांव से खरीद कर लाई हूं।' गांधीजी ने फिर पूछा, 'और यह घी कहां से आया?' बा ने कहा, 'वह भी गांव के एक किसान के यहां से लाई हूं।' गांधी जी दुखी मन से बोले, 'आप ने यह अच्छा काम नहीं किया।'
बा कुछ समझ नहीं पाईं। उन्हें चुप देख कर गांधी जी ने फिर कहा, 'आप तो जानती हो कि देश के लाखों किसानों और मजदूरों को सूखी रोटी भी मयस्सर नहीं होती। खाने की बात तो छोडि़ए, उन्हें तो देसी घी देखने को भी नहीं मिल पाता। इस हालत में हमारे जन्मदिन पर देसी घी का दीया जले यह देश के लोगों के साथ अन्याय है।
देसी घी के दीये जलते देख कर तभी सुख मिलता जब देश के सभी बच्चों को दूध घी खाने को मिले। मुझे तो आश्चर्य है कि आप की आत्मा ने आपको ऐसा कार्य कैसे करने दिया।' बा को गलती का अहसास हो गया। उन्होंने कहा, 'अब ऐसी गलती नहीं होगी।'
सेवा ग्राम में गांधी जी का जन्म दिन मनाया जा रहा है, यह सोच कर कस्तूरबा गांधी पास के गांव से कुछ दीये ले आईं। जब गांधी जी प्रार्थना सभा में पहुंचे तो वहां देसी घी के दीये जलते देख कर वह चौंके मगर उन्होंने कहा कुछ नहीं। प्रार्थना खत्म हुई तो गांधी जी ने पूछा, 'ये दीये कौन लाया है?' बा ने कहा, 'पास के गांव से खरीद कर लाई हूं।' गांधीजी ने फिर पूछा, 'और यह घी कहां से आया?' बा ने कहा, 'वह भी गांव के एक किसान के यहां से लाई हूं।' गांधी जी दुखी मन से बोले, 'आप ने यह अच्छा काम नहीं किया।'
बा कुछ समझ नहीं पाईं। उन्हें चुप देख कर गांधी जी ने फिर कहा, 'आप तो जानती हो कि देश के लाखों किसानों और मजदूरों को सूखी रोटी भी मयस्सर नहीं होती। खाने की बात तो छोडि़ए, उन्हें तो देसी घी देखने को भी नहीं मिल पाता। इस हालत में हमारे जन्मदिन पर देसी घी का दीया जले यह देश के लोगों के साथ अन्याय है।
देसी घी के दीये जलते देख कर तभी सुख मिलता जब देश के सभी बच्चों को दूध घी खाने को मिले। मुझे तो आश्चर्य है कि आप की आत्मा ने आपको ऐसा कार्य कैसे करने दिया।' बा को गलती का अहसास हो गया। उन्होंने कहा, 'अब ऐसी गलती नहीं होगी।'
योग्यता का सम्मान
कोलकाता के एक कॉलेज में संस्कृत व्याकरण के शिक्षक का पद खाली हुआ। उन दिनों चारों तरफ ईश्वरचंद्र विद्यासागर की धूम थी। वह संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे। स्थान खाली होते ही कॉलेज के प्रिंसिपल के मन में संस्कृत अध्यापक के पद के लिए ईश्वरचंद्र विद्यासागर का नाम आया।
उन्होंने उन्हें पत्र भिजवाया और आग्रह किया कि वह पद ग्रहण करके कॉलेज व उसके विद्यार्थियों को गौरवान्वित करें । ईश्वरचंद्र ने पत्र पढ़ा तो तत्काल जवाब लिखने बैठ गए। उन्होंने लिखा, 'आपको व्याकरण पढ़ाने वाले अध्यापक की आवश्यकता है। मैं सोचता हूं कि व्याकरण के मामले में मैं इस नगर का योग्यतम व्यक्ति नहीं हूं। इस विषय में मुझसे अधिक विद्वान मेरे मित्र वाचस्पति हैं। यदि आप उनकी नियुक्ति कर सकें तो मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी।
मेरा उस पद पर आना वाचस्पति की योग्यता का अपमान होगा। इसलिए कृपया मुझे आवेदन करने को न कहें।' कॉलेज के प्राचार्य विद्यासागर का पत्र पढ़कर उनके प्रति नतमस्तक हो गए और सोचने लगे कि यह व्यक्ति कितना महान है। किसी दूसरे व्यक्ति को अपने से बड़ा बताना हर किसी के बस की बात नहीं। कोई भी व्यक्ति दूसरे के सामने स्वयं को कमतर कभी नहीं साबित करता। लेकिन बेहद गुणी व विनम्र ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने ऐसा किया है । निश्चित रूप से उनका हृदय अत्यंत विशाल है।
उनके इस प्रस्ताव को कॉलेज की प्रबंध समिति ने खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया। मित्र की नियुक्ति पाकर ईश्वरचंद्र विद्यासागर को हार्दिक प्रसन्नता हुई। जब वाचस्पति को इस घटना का पता चला तो वह तुरंत विद्यासागर के पास पहुंचे और उन्हें गले लगाते हुए बोले, 'मित्र वास्तव में आपके बड़प्पन व विशाल हृदय का कोई सानी नहीं। इतना अद्भुत व गौरवशाली व्यक्तित्व व सोच सिर्फ आपकी ही हो सकती है। मुझे सच में नौकरी की बेहद आवश्यकता थी।' यह कहते हुए उनकी आंखों में आंसू आ गए। विद्यासागर ने उनकी पीठ थपथपाते हुए कहा, 'मित्र, जो योग्य है उसे उपयुक्त अवसर मिलना ही चाहिए।'
उन्होंने उन्हें पत्र भिजवाया और आग्रह किया कि वह पद ग्रहण करके कॉलेज व उसके विद्यार्थियों को गौरवान्वित करें । ईश्वरचंद्र ने पत्र पढ़ा तो तत्काल जवाब लिखने बैठ गए। उन्होंने लिखा, 'आपको व्याकरण पढ़ाने वाले अध्यापक की आवश्यकता है। मैं सोचता हूं कि व्याकरण के मामले में मैं इस नगर का योग्यतम व्यक्ति नहीं हूं। इस विषय में मुझसे अधिक विद्वान मेरे मित्र वाचस्पति हैं। यदि आप उनकी नियुक्ति कर सकें तो मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी।
मेरा उस पद पर आना वाचस्पति की योग्यता का अपमान होगा। इसलिए कृपया मुझे आवेदन करने को न कहें।' कॉलेज के प्राचार्य विद्यासागर का पत्र पढ़कर उनके प्रति नतमस्तक हो गए और सोचने लगे कि यह व्यक्ति कितना महान है। किसी दूसरे व्यक्ति को अपने से बड़ा बताना हर किसी के बस की बात नहीं। कोई भी व्यक्ति दूसरे के सामने स्वयं को कमतर कभी नहीं साबित करता। लेकिन बेहद गुणी व विनम्र ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने ऐसा किया है । निश्चित रूप से उनका हृदय अत्यंत विशाल है।
उनके इस प्रस्ताव को कॉलेज की प्रबंध समिति ने खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया। मित्र की नियुक्ति पाकर ईश्वरचंद्र विद्यासागर को हार्दिक प्रसन्नता हुई। जब वाचस्पति को इस घटना का पता चला तो वह तुरंत विद्यासागर के पास पहुंचे और उन्हें गले लगाते हुए बोले, 'मित्र वास्तव में आपके बड़प्पन व विशाल हृदय का कोई सानी नहीं। इतना अद्भुत व गौरवशाली व्यक्तित्व व सोच सिर्फ आपकी ही हो सकती है। मुझे सच में नौकरी की बेहद आवश्यकता थी।' यह कहते हुए उनकी आंखों में आंसू आ गए। विद्यासागर ने उनकी पीठ थपथपाते हुए कहा, 'मित्र, जो योग्य है उसे उपयुक्त अवसर मिलना ही चाहिए।'
स्वर्ग और नरक
एक युवा सैनिक ने धर्मशास्त्रों का अध्ययन किया था। वह जानना चाहता था कि स्वर्ग और नरक में क्या अंतर है? उसने एक संत से पूछा, 'बताएं कि क्या स्वर्ग और नरक वास्तव में होते हैं या ये सिर्फ कल्पना हैं?' संत ने उसे अच्छी तरह देखा और पूछा, 'युवक, तुम्हारा पेशा क्या है?'
सैनिक ने अपने पेशे के बारे में बताया तो संत ने उसका तिरस्कार करते हुए कहा, 'तुम और सैनिक! तुम्हें कौन सैनिक कहेगा। किसने तुम्हारी भर्ती कर दी। देखकर तो तुम कायर लगते हो। भय और आशंका तुम्हारे चेहरे पर स्पष्ट झलक रही है।' यह सुनकर उस सैनिक का खून खौल उठा। उसने बंदूक निकाल ली। संत ने कहा, 'तुम बंदूक भी रखते हो। बहुत अच्छे! तुम क्या इस खिलौने वाली बंदूक से मुझे डराओगे।
इस बंदूक से तो बच्चा भी नहीं डरेगा।' यह सुनकर सैनिक अपना आपा खो बैठा, उसने झट से बंदूक का घोड़ा दबाने के लिए हाथ बढ़ाया तो संत ने कहा, 'लो, बस यही है नरक का द्वार।' संत की बात का मर्म समझते ही युवक की आंखें खुल गई और अपने किए पर वह ग्लानि से भर गया। वह संत के चरणों में गिर पड़ा। चरणों में गिरते ही संत ने कहा, 'लो, स्वर्ग का द्वार खुल गया। स्वर्ग एवं नरक, आनंद एवं दु:ख ही वह स्थिति है जो हम शांत रहकर या क्रोध करके उत्पन्न करते हैं। जिस क्षण व्यक्ति को क्रोध आता है उसका संपूर्ण अस्तित्व गहरी अशांति को प्राप्त हो जाता है। यह प्रत्यक्ष नरक के समान दुखदायी होता है। खुद की शांति के लिए हम स्वयं जिम्मेदार हैं जब हम इस जिम्मेदारी को उठाते हैं, स्वर्ग का निर्माण कर रहे होते हैं। संसार हमारी ही सृष्टि है।'
सैनिक ने अपने पेशे के बारे में बताया तो संत ने उसका तिरस्कार करते हुए कहा, 'तुम और सैनिक! तुम्हें कौन सैनिक कहेगा। किसने तुम्हारी भर्ती कर दी। देखकर तो तुम कायर लगते हो। भय और आशंका तुम्हारे चेहरे पर स्पष्ट झलक रही है।' यह सुनकर उस सैनिक का खून खौल उठा। उसने बंदूक निकाल ली। संत ने कहा, 'तुम बंदूक भी रखते हो। बहुत अच्छे! तुम क्या इस खिलौने वाली बंदूक से मुझे डराओगे।
इस बंदूक से तो बच्चा भी नहीं डरेगा।' यह सुनकर सैनिक अपना आपा खो बैठा, उसने झट से बंदूक का घोड़ा दबाने के लिए हाथ बढ़ाया तो संत ने कहा, 'लो, बस यही है नरक का द्वार।' संत की बात का मर्म समझते ही युवक की आंखें खुल गई और अपने किए पर वह ग्लानि से भर गया। वह संत के चरणों में गिर पड़ा। चरणों में गिरते ही संत ने कहा, 'लो, स्वर्ग का द्वार खुल गया। स्वर्ग एवं नरक, आनंद एवं दु:ख ही वह स्थिति है जो हम शांत रहकर या क्रोध करके उत्पन्न करते हैं। जिस क्षण व्यक्ति को क्रोध आता है उसका संपूर्ण अस्तित्व गहरी अशांति को प्राप्त हो जाता है। यह प्रत्यक्ष नरक के समान दुखदायी होता है। खुद की शांति के लिए हम स्वयं जिम्मेदार हैं जब हम इस जिम्मेदारी को उठाते हैं, स्वर्ग का निर्माण कर रहे होते हैं। संसार हमारी ही सृष्टि है।'
ईश्वर की खोज
एक सेठ के पास अपार धन-संपत्ति थी, पर उसका मन हमेशा अशांत रहता था। एक बार उसके शहर में एक सिद्ध महात्मा आए। उन्होंने अपने प्रवचन में कहा कि परमात्मा को पाने पर ही सच्ची खुशी एवं पूर्ण शांति मिल सकती है। इसलिए ईश्वर की खोज करो और अपने जीवन को सार्थक करो। यह सुनकर सेठ ईश्वर की खोज में लग गया। वह इधर-उधर भटकने लगा। ऐसा करते हुए दो वर्ष बीत गए किंतु ईश्वर की प्राप्ति नहीं हुई। वह निराश होकर घर की ओर लौट पड़ा। रास्ते में उसे एक चिर-परिचित आवाज सुनाई पड़ी। उसे कोई बुला रहा था। उसने पीछे मुड़कर देखा तो पाया कि उसके पीछे वही सिद्ध महात्मा खड़े थे, जिन्होंने ईश्वर को ढूंढने की बात कही थी। सेठ उनके पैरों में गिरकर बोला, 'बाबा, मैं अनेक स्थानों पर भटका किंतु मुझे अभी तक ईश्वर नहीं मिले। आखिर मेरी खोज कहां पूरी होगी? आप ने ही कहा था कि सच्ची खुशी ईश्वर के साथ मिल सकती है।' उसकी बात पर महात्मा मुस्कराए और उन्होंने उसे उठाते हुए कहा, 'पुत्र, मैंने सही कहा था। यदि तुमने ठीक ढंग से ईश्वर की खोज की होती तो अब तक तुम उन्हें पा चुके होते।' यह सुनकर सेठ हैरान रह गया और बोला, 'कैसे बाबा?' महात्मा बोले, 'पुत्र, ईश्वर किसी दूर-दराज के क्षेत्र में नहीं तुम्हारे अपने भीतर ही है। तुम अच्छे कर्म करोगे और नेक राह पर चलोगे तो वह स्वयं तुम्हें मिल जाएगा। तुम्हें उसे कहीं खोजने नहीं जाना पड़ेगा। हां, उसे पाने के लिए ईश्वर का नेक बंदा अवश्य बनना होगा।' यह सुनकर सेठ महात्मा के प्रति नतमस्तक हो गया और वापस अपने घर चला आया। घर आने के बाद उसने पाठशालाएं खुलवाईं, लोगों को पीने का पानी उपलब्ध कराया, गरीब कन्याओं के विवाह कराए और अपने पास आने वाले हर जरूरतमंद की समस्या का समाधान किया। कुछ ही समय बाद उसके भीतर की अशांति जाती रही और उसने अपने भीतर नई स्फूर्ति महसूस की।
संघर्ष की राह
बालक ईश्वरचंद्र के पिता को तीन रुपये मासिक वेतन मिलता था। परिवार बड़ा था इसलिए घर का खर्च चलना मुश्किल था। ऐसी स्थिति में बालक ईश्वरचंद्र की पढ़ाई का प्रबंध कैसे होता। ईश्वरचंद्र ने अपने पिता की विवशता को देख कर अपनी पढ़ाई के लिए रास्ता खुद ही निकाल लिया। उसने गांव के उन लड़कों को अपना मित्र बनाया, जो पढ़ने जाते थे। उनकी पुस्तकों के सहारे उसने अक्षर ज्ञान प्राप्त कर लिया। एक दिन कोयले से जमीन पर लिख कर उसने अपने पिता को दिखाया। पिता ने ईश्वरचंद्र की विद्या के प्रति लगन देखकर तंगी का जीवन जीते हुए भी उसे गांव की पाठशाला में भर्ती करा दिया। स्कूल की सभी परीक्षाओं में ईश्वरचंद्र ने प्रथम स्थान प्राप्त किया। आगे की पढ़ाई के लिए फिर आर्थिक तंगी आड़े आ रही थी। ईश्वरचंद्र ने फिर स्वयं अपनी राह बनाई और आगे पढ़ने के लिए माता-पिता से केवल आशीर्वाद भर मांगा।
उसने कहा, 'आप मुझे किसी विद्यालय में भर्ती करा दें। फिर मैं आप से किसी प्रकार का खर्च नहीं मांगूंगा।' ईश्वरचंद्र का कोलकाता के एक संस्कृत विद्यालय में दाखिला करा दिया गया। विद्यालय में ईश्वरचंद्र ने अपनी लगन और प्रतिभा से शिक्षकों को प्रसन्न कर लिया। उसकी फीस माफ हो गई। ईश्वरचंद्र के मित्रों ने किताबें उपलब्ध करा दीं। फिर उसने अपना खर्च पूरा करने के लिए मजदूरी शुरू कर दी। ऐसी स्थिति में भी उसने इतना परिश्रम किया कि उन्नीस वर्ष की आयु तक पहुंचते-पहुंचते वह व्याकरण, साहित्य, स्मृति तथा वेदशास्त्र में निपुण हो गया। जिसके लिए पढ़ना ही कठिन था वह एक बड़ा विद्वान बन गया। आगे चल कर यही बालक ईश्वरचंद्र विद्यासागर के नाम से विख्यात हुआ।
उसने कहा, 'आप मुझे किसी विद्यालय में भर्ती करा दें। फिर मैं आप से किसी प्रकार का खर्च नहीं मांगूंगा।' ईश्वरचंद्र का कोलकाता के एक संस्कृत विद्यालय में दाखिला करा दिया गया। विद्यालय में ईश्वरचंद्र ने अपनी लगन और प्रतिभा से शिक्षकों को प्रसन्न कर लिया। उसकी फीस माफ हो गई। ईश्वरचंद्र के मित्रों ने किताबें उपलब्ध करा दीं। फिर उसने अपना खर्च पूरा करने के लिए मजदूरी शुरू कर दी। ऐसी स्थिति में भी उसने इतना परिश्रम किया कि उन्नीस वर्ष की आयु तक पहुंचते-पहुंचते वह व्याकरण, साहित्य, स्मृति तथा वेदशास्त्र में निपुण हो गया। जिसके लिए पढ़ना ही कठिन था वह एक बड़ा विद्वान बन गया। आगे चल कर यही बालक ईश्वरचंद्र विद्यासागर के नाम से विख्यात हुआ।
जनकल्याण की राह
एक बार अयोध्या के राजा रघु के दरबार में इस प्रश्न पर बहस चल रही थी कि राजकोष का उपयोग किन प्रयोजनों के लिए किया जाए? एक पक्ष का मत था कि सैन्य शक्ति बढ़ाई जाए ताकि न केवल अपनी सुरक्षा हो बल्कि राज्य के विस्तार की योजना भी आगे बढ़े। इस अभियान पर जो खर्च होगा उसकी भरपाई पराजित देशों से मिलने वाले संसाधनों से की जा सकेगी।
दूसरे पक्ष का कहना था कि राजकोष प्रजा जन के हित में खर्च किया जाए ताकि उनका जीवन स्तर बढ़ सके। अगर सुखी, संतुष्ट, साहसी और सहृदय नागरिक हों तो देश समृद्ध होता है। इस प्रकार युद्ध करके नए क्षेत्र जीतने की अपेक्षा मैत्री का विस्तार कहीं अधिक लाभदायक है। उससे स्वेच्छया सहयोग और अपनत्व की ऐसी उपलब्धियां प्राप्त होती हैं, जिनके कारण छोटा देश भी चक्रवर्ती स्तर का बन सकता है। दोनों पक्षों के तर्क चलते रहे। सबके मन में उत्सुकता थी कि आखिर राजा रघु क्या निर्णय देते हैं। जब सबने अपनी बात समाप्त की तब उन्होंने कहा, 'युद्ध पीढि़यों से लड़े जाते रहे हैं। उनके कड़वे-मीठे परिणाम भी स्मृति पटल पर अंकित हैं। लेकिन इस बार युद्ध छोड़ दिया जाए और लोकमंगल को अपनाया जाए। देखते हैं क्या होता है। समस्त संपत्ति जनकल्याण की योजनाओं पर खर्च कर दी जाए।'
कुछ सभासद दबे-छुपे इस निर्णय की आलोचना करने लगे। उन्हें अनिष्ट की आशंका सताने लगी। उधर रघु के निर्णय के मुताबिक विकास योजनाएं तेज कर दी गईं। धीरे-धीरे प्रजाजन हर दृष्टि से समुन्नत हो गए। आक्रमण की चर्चाएं समाप्त हो गई। सुख-शांति के समाचार पाकर अन्य देशों के समर्थ लोग वहां आकर बसने लगे। बंजर भूमि सोना उगलने लगी और अयोध्या में खुशहाली फैल गई।
दूसरे पक्ष का कहना था कि राजकोष प्रजा जन के हित में खर्च किया जाए ताकि उनका जीवन स्तर बढ़ सके। अगर सुखी, संतुष्ट, साहसी और सहृदय नागरिक हों तो देश समृद्ध होता है। इस प्रकार युद्ध करके नए क्षेत्र जीतने की अपेक्षा मैत्री का विस्तार कहीं अधिक लाभदायक है। उससे स्वेच्छया सहयोग और अपनत्व की ऐसी उपलब्धियां प्राप्त होती हैं, जिनके कारण छोटा देश भी चक्रवर्ती स्तर का बन सकता है। दोनों पक्षों के तर्क चलते रहे। सबके मन में उत्सुकता थी कि आखिर राजा रघु क्या निर्णय देते हैं। जब सबने अपनी बात समाप्त की तब उन्होंने कहा, 'युद्ध पीढि़यों से लड़े जाते रहे हैं। उनके कड़वे-मीठे परिणाम भी स्मृति पटल पर अंकित हैं। लेकिन इस बार युद्ध छोड़ दिया जाए और लोकमंगल को अपनाया जाए। देखते हैं क्या होता है। समस्त संपत्ति जनकल्याण की योजनाओं पर खर्च कर दी जाए।'
कुछ सभासद दबे-छुपे इस निर्णय की आलोचना करने लगे। उन्हें अनिष्ट की आशंका सताने लगी। उधर रघु के निर्णय के मुताबिक विकास योजनाएं तेज कर दी गईं। धीरे-धीरे प्रजाजन हर दृष्टि से समुन्नत हो गए। आक्रमण की चर्चाएं समाप्त हो गई। सुख-शांति के समाचार पाकर अन्य देशों के समर्थ लोग वहां आकर बसने लगे। बंजर भूमि सोना उगलने लगी और अयोध्या में खुशहाली फैल गई।
सेवा की भावना
जर्मनी का महान समाजसेवी ओबरलीन एक बार अपनी यात्रा के दौरान मुसीबतों से घिर गया। तेज आंधी-तूफान और ओलों ने उसे बुरी तरह परेशान कर दिया। वह मदद के लिए चिल्लाता रहा, लेकिन सबको अपनी जान बचाने की पड़ी थी, सो उसकी पुकार कौन सुनता? वह बेहोशी की हालत में नीचे गिर पड़ा। कुछ देर बाद उसे अहसास हुआ कि किसी व्यक्ति ने उसे थामा हुआ है और उसे सुरक्षित जगह पर ले जाने की कोशिश कर रहा है। होश में आने पर ओबरलीन ने देखा कि एक गरीब किसान उसकी सेवा में जुटा हुआ है।
ओबरलीन ने किसान से कहा कि वह उसकी सेवा करने के एवज में उसे इनाम देगा। फिर उसने किसान से उसका नाम जानना चाहा। यह सुनकर किसान मुस्कराया और बोला, 'मित्र! बताओ, बाइबिल में कहीं किसी परोपकारी का नाम लिखा है। नहीं न। तो फिर मुझे भी अनाम ही रहने दो। आप भी तो नि:स्वार्थ सेवा में विश्वास रखते हो। फिर मुझे इनाम का लालच क्यों दे रहे हो? वैसे भी पुरस्कार का लालच किसी को भी नि:स्वार्थ सेवा करने के लिए मजबूर नहीं कर सकता। सेवा की भावना तो हमारे अंदर से उत्पन्न होती है। इसे न ही पैदा किया जा सकता है और न ही मिटाया जा सकता है।'
ओबरलीन उस निर्धन किसान की बातें सुनकर दंग रह गया। वह मन ही मन सोचने लगा कि आज उसे इस किसान ने एक पाठ पढ़ाया है। सेवा जैसा भाव तो अनमोल है। उसकी कोई कीमत नहीं लगाई जा सकती और सेवा के लिए कोई भी पुरस्कार अधूरा है। यह किसान कितना महान है जो बिना किसी स्वार्थ के परोपकार करने में विश्वास करता है। आज कितने ऐसे लोग हैं जो इस निर्धन किसान की परोपकार की भावना का मुकाबला कर सकते हैं। ओबरलीन को इस बात के लिए अफसोस हुआ कि उसने किसान को इनाम देने की बात कही। ओबरलीन ने किसान से कहा, 'अगर आपके जैसे इंसान हर जगह हों तो कहीं पर दुराचार शेष नहीं रहेगा।'
ओबरलीन ने किसान से कहा कि वह उसकी सेवा करने के एवज में उसे इनाम देगा। फिर उसने किसान से उसका नाम जानना चाहा। यह सुनकर किसान मुस्कराया और बोला, 'मित्र! बताओ, बाइबिल में कहीं किसी परोपकारी का नाम लिखा है। नहीं न। तो फिर मुझे भी अनाम ही रहने दो। आप भी तो नि:स्वार्थ सेवा में विश्वास रखते हो। फिर मुझे इनाम का लालच क्यों दे रहे हो? वैसे भी पुरस्कार का लालच किसी को भी नि:स्वार्थ सेवा करने के लिए मजबूर नहीं कर सकता। सेवा की भावना तो हमारे अंदर से उत्पन्न होती है। इसे न ही पैदा किया जा सकता है और न ही मिटाया जा सकता है।'
ओबरलीन उस निर्धन किसान की बातें सुनकर दंग रह गया। वह मन ही मन सोचने लगा कि आज उसे इस किसान ने एक पाठ पढ़ाया है। सेवा जैसा भाव तो अनमोल है। उसकी कोई कीमत नहीं लगाई जा सकती और सेवा के लिए कोई भी पुरस्कार अधूरा है। यह किसान कितना महान है जो बिना किसी स्वार्थ के परोपकार करने में विश्वास करता है। आज कितने ऐसे लोग हैं जो इस निर्धन किसान की परोपकार की भावना का मुकाबला कर सकते हैं। ओबरलीन को इस बात के लिए अफसोस हुआ कि उसने किसान को इनाम देने की बात कही। ओबरलीन ने किसान से कहा, 'अगर आपके जैसे इंसान हर जगह हों तो कहीं पर दुराचार शेष नहीं रहेगा।'
समय का उपयोग
एक दिन एक व्यक्ति किसी महात्मा के पास पहुंचा और कहने लगा, 'जीवन अल्पकाल का है। इस थोड़े समय में क्या-क्या करूं? बचपन में ज्ञान नहीं होता। युवावस्था में गृहस्थी का बोझ होता है। बुढ़ापा रोगग्रस्त और पीड़ादायक होता है। तब भला ज्ञान कैसे मिले? लोक सेवा कब की जाए?' यह कहकर वह रोने लगा। उस रोते देख महात्मा जी भी रोने लगे।
उस आदमी ने पूछा, 'आप क्यों रोते हैं?' महात्मा ने कहा, 'क्या करूं, खाने के लिए अन्न चाहिए। लेकिन अन्न उपजाने के लिए मेरे पास जमीन नहीं है। परमात्मा के एक अंश में माया है। माया के एक अंश में तीन गुण है। गुणों के एक अंश में आकाश है। आकाश में थोड़ी सी वायु है और वायु में बहुत आग है। आग के एक भाग में पानी है। पानी का शतांश पृथ्वी है। पृथ्वी के आधे हिस्से पर पर्वतों का कब्जा है। जमीन पर जहां देखो नदियां बिखरी पड़ी हैं। मेरे लिए भगवान ने जमीन का एक नन्हा सा टुकड़ा भी नहीं छोड़ा। थोड़ी सी जमीन थी उस पर भी दूसरे लोगों ने अधिकार जमा लिया। तब बताओ, मैं भूखा नहीं मरूंगा।'
उस व्यक्ति ने कहा, 'यह सब होते हुए भी आप जीवित तो हैं न। फिर रोते क्यों हैं?' महात्मा ने तुरंत उत्तर दिया, 'तुम्हें भी तो समय मिला है, बहुमूल्य जीवन मिला है, फिर समय न मिलने की बात कहकर क्यों हाय-हाय करते हो। अब आगे से समयाभाव का बहाना न करना। जो कुछ भी है, उसका उपयोग करो, उसी में संतोष पाओ। संसार में हर किसी ने सीमित समय का सदुपयोग करके ही सब कुछ हासिल किया है।'
उस आदमी ने पूछा, 'आप क्यों रोते हैं?' महात्मा ने कहा, 'क्या करूं, खाने के लिए अन्न चाहिए। लेकिन अन्न उपजाने के लिए मेरे पास जमीन नहीं है। परमात्मा के एक अंश में माया है। माया के एक अंश में तीन गुण है। गुणों के एक अंश में आकाश है। आकाश में थोड़ी सी वायु है और वायु में बहुत आग है। आग के एक भाग में पानी है। पानी का शतांश पृथ्वी है। पृथ्वी के आधे हिस्से पर पर्वतों का कब्जा है। जमीन पर जहां देखो नदियां बिखरी पड़ी हैं। मेरे लिए भगवान ने जमीन का एक नन्हा सा टुकड़ा भी नहीं छोड़ा। थोड़ी सी जमीन थी उस पर भी दूसरे लोगों ने अधिकार जमा लिया। तब बताओ, मैं भूखा नहीं मरूंगा।'
उस व्यक्ति ने कहा, 'यह सब होते हुए भी आप जीवित तो हैं न। फिर रोते क्यों हैं?' महात्मा ने तुरंत उत्तर दिया, 'तुम्हें भी तो समय मिला है, बहुमूल्य जीवन मिला है, फिर समय न मिलने की बात कहकर क्यों हाय-हाय करते हो। अब आगे से समयाभाव का बहाना न करना। जो कुछ भी है, उसका उपयोग करो, उसी में संतोष पाओ। संसार में हर किसी ने सीमित समय का सदुपयोग करके ही सब कुछ हासिल किया है।'
खुद की पहचानq
उद्दालक ने अपने पुत्र श्वेतकेतु को एक प्रसिद्ध ऋषि के पास पढ़ने भेजा। श्वेतकेतु की दृष्टि में उसके पिता उद्दालक बहुत बड़े विद्वान थे। वह चाहता था कि वह अपने पिता से ही शिक्षा ग्रहण करे पर उद्दालक ने समझाया , ' गुरु पिता से ऊपर होता है , इसलिए तुम्हें शिक्षा ग्रहण करने के लिए गुरु के पास ही जाना चाहिए। '
श्वेतकेतु गुरु के पास गया। वहां बारह वर्ष पढ़ने के बाद जब वह अपने घर आया तो उसे लगा कि अपने पिता उद्दालक से भी उसे बहुत अधिक ज्ञान हो गया है। उसके व्यवहार में अहं अधिक व नम्रता कम थी। विद्वान उद्दालक श्वेतकेतु की मनोवृत्ति भांप गए। उन्होंने श्वेतकेतु को बुलाया और पूछा , ' श्वेतकेतु तुमने क्या - क्या पढ़ा ? हमको बताओ। ' श्वेतकेतु बताने लगा , ' मैंने व्याकरण पढ़ा , शास्त्र पढ़ा , उपनिषदों को पढ़ा। ' इस प्रकार उसने एक बड़ी सूची प्रस्तुत कर दी। सूची पूरी होने के बाद उद्दालक ने पूछा , ' श्वेतकेतु क्या तुमने वह पढ़ा जिसको पढ़ने के बाद और कुछ पढ़ने के लिए शेष नहीं रहता ? क्या तुमने वह देखा जिसको देखने के बाद और कुछ देखने के लिए है ही नहीं ? क्या तुमने वह सुना जिसको सुनने के बाद और सुनने के लिए कुछ बचता नहीं ?' श्वेतकेतु अचंभे में पड़ गया। उसने कहा , ' क्या है वह ? मैं नहीं जानता हूं। मैंने वह पढ़ा नहीं। न सुना , न देखा न प्रयत्न किया। वह क्या है ?'
उद्दालक बोले , ' जाओ फिर से अपने गुरुजी के पास जाओ। उनसे कहो कि वह तुम्हें सिखाएं। जाओ वह पढ़कर आओ। ' श्वेतकेतु गुरु के पास गया। गुरु जी बोले , ' वह तुम्हारे पिता जी के पास ही है , उनसे ही वह ले लो। ' श्वेतकेतु घर लौट आया। अब वह अपने को बदला हुआ सा अनुभव कर रहा था। उसका अहं खत्म हो गया था। व्यवहार में पूर्ण नम्रता थी। वह शांत था। एक दिन उद्दालक ने उसे बुलाया और कहा , ' श्वेतकेतु वह तुम हो। ' श्वेतकेतु जीवन का अभिप्राय समझ गया था। वह जान गया कि अपने आपको जानने के बाद कुछ जानना शेष नहीं रहता।
श्वेतकेतु गुरु के पास गया। वहां बारह वर्ष पढ़ने के बाद जब वह अपने घर आया तो उसे लगा कि अपने पिता उद्दालक से भी उसे बहुत अधिक ज्ञान हो गया है। उसके व्यवहार में अहं अधिक व नम्रता कम थी। विद्वान उद्दालक श्वेतकेतु की मनोवृत्ति भांप गए। उन्होंने श्वेतकेतु को बुलाया और पूछा , ' श्वेतकेतु तुमने क्या - क्या पढ़ा ? हमको बताओ। ' श्वेतकेतु बताने लगा , ' मैंने व्याकरण पढ़ा , शास्त्र पढ़ा , उपनिषदों को पढ़ा। ' इस प्रकार उसने एक बड़ी सूची प्रस्तुत कर दी। सूची पूरी होने के बाद उद्दालक ने पूछा , ' श्वेतकेतु क्या तुमने वह पढ़ा जिसको पढ़ने के बाद और कुछ पढ़ने के लिए शेष नहीं रहता ? क्या तुमने वह देखा जिसको देखने के बाद और कुछ देखने के लिए है ही नहीं ? क्या तुमने वह सुना जिसको सुनने के बाद और सुनने के लिए कुछ बचता नहीं ?' श्वेतकेतु अचंभे में पड़ गया। उसने कहा , ' क्या है वह ? मैं नहीं जानता हूं। मैंने वह पढ़ा नहीं। न सुना , न देखा न प्रयत्न किया। वह क्या है ?'
उद्दालक बोले , ' जाओ फिर से अपने गुरुजी के पास जाओ। उनसे कहो कि वह तुम्हें सिखाएं। जाओ वह पढ़कर आओ। ' श्वेतकेतु गुरु के पास गया। गुरु जी बोले , ' वह तुम्हारे पिता जी के पास ही है , उनसे ही वह ले लो। ' श्वेतकेतु घर लौट आया। अब वह अपने को बदला हुआ सा अनुभव कर रहा था। उसका अहं खत्म हो गया था। व्यवहार में पूर्ण नम्रता थी। वह शांत था। एक दिन उद्दालक ने उसे बुलाया और कहा , ' श्वेतकेतु वह तुम हो। ' श्वेतकेतु जीवन का अभिप्राय समझ गया था। वह जान गया कि अपने आपको जानने के बाद कुछ जानना शेष नहीं रहता।
शायर की दावत
ईरान में एक बादशा ह था। उसकी एक शायर से बड़ी गहरी दोस्ती थी। बादशाह का दरबार लगता, दावतें होतीं तो शायर भी उसमें शामिल होता। दावत में तरह-तरह के पकवान परोसे जाते। शायर उनका मजा लेता। बादशाह पूछते, 'कहो, दावत कैसी रही?' शायर हमेशा जवाब देता, 'हुजूर दावत तो शानदार थी, पर दावते शिराज की बात कुछ और है।' बादशाह इस उत्तर को सुन परेशान होता। आखिर यह दावते शिराज क्या बला है? कहां होती है? एक दिन उसने यह प्रश्न शायर से पूछ ही लिया।
शायर ने कहा, 'हुजूर यह दावत मेरे शहर शिराज में होती है। कभी शिराज पधारें तो उसका लुत्फ उठाइए।' संयोग से कुछ दिनों के बाद ही बादशाह का शिराज शहर में जाना हुआ। बादशाह ने शायर को बुलाया और कहा, 'तैयारी करो, आज हो जाए- दावते शिराज।' शायर बोला, 'हुजूर, दावते शिराज तैयार है, आप मेरे साथ चलें।' शायर बादशाह को अपने घर ले गया। एक साधारण कुर्सी पर बिठाया, थाली में रोटी-सब्जी और चटनी रखी और बादशाह को पेश कर दी।
बादशाह ने पूछा, ' ये क्या है?' शायर ने कहा, 'हुजूर, यही दावते शिराज है। घर में आए मेहमान को जो कुछ घर में उपलब्ध है, उसे प्रेम और आदर से प्रस्तुत करना ही दावते शिराज है। इसका मजा ही कुछ और है। बादशाही दावतों में लंबे चौड़े आयोजन होते हैं। नौकर-चाकर दौड़ते- भागते हैं। दिखावा ही दिखावा होता है, उसमें यह प्रेम और सम्मान कहां। दावते- शिराज की बात ही कुछ और है।' बादशाह ने प्रेमपूर्वक भोजन किया। बोले, ' ठीक कहते हो। ऐसा शांत अपनत्व भरा भोजन हमारे भाग्य में कहां? दावते-शिराज के सुख का आज हमें पता चला।'
शायर ने कहा, 'हुजूर यह दावत मेरे शहर शिराज में होती है। कभी शिराज पधारें तो उसका लुत्फ उठाइए।' संयोग से कुछ दिनों के बाद ही बादशाह का शिराज शहर में जाना हुआ। बादशाह ने शायर को बुलाया और कहा, 'तैयारी करो, आज हो जाए- दावते शिराज।' शायर बोला, 'हुजूर, दावते शिराज तैयार है, आप मेरे साथ चलें।' शायर बादशाह को अपने घर ले गया। एक साधारण कुर्सी पर बिठाया, थाली में रोटी-सब्जी और चटनी रखी और बादशाह को पेश कर दी।
बादशाह ने पूछा, ' ये क्या है?' शायर ने कहा, 'हुजूर, यही दावते शिराज है। घर में आए मेहमान को जो कुछ घर में उपलब्ध है, उसे प्रेम और आदर से प्रस्तुत करना ही दावते शिराज है। इसका मजा ही कुछ और है। बादशाही दावतों में लंबे चौड़े आयोजन होते हैं। नौकर-चाकर दौड़ते- भागते हैं। दिखावा ही दिखावा होता है, उसमें यह प्रेम और सम्मान कहां। दावते- शिराज की बात ही कुछ और है।' बादशाह ने प्रेमपूर्वक भोजन किया। बोले, ' ठीक कहते हो। ऐसा शांत अपनत्व भरा भोजन हमारे भाग्य में कहां? दावते-शिराज के सुख का आज हमें पता चला।'
सचाई का पाठ
एक सेठ दान-पुण्य के लिए हर रोज भंडारे का आयोजन करता था। सेठ का अनाज का व्यापार था। हर साल अनाज के गोदामों की सफाई होती थी। उस समय घुन लगे बेकार गेहूं को इकट्ठा करके सेठ उसे पिसवाता और उसी आटे का भंडारा साल भर चलता था। लेकिन इसकी जानकारी किसी को न थी। सेठ का एक बेटा था। उसकी शादी हुई। सेठ के घर काफी समझदार बहू आई। जब बहू को पता चला कि उसके ससुर सड़े हुए गेहंू के आटे की रोटियां गरीबों को खिलाते हैं, तो उसे बहुत दुख पहुंचा। एक दिन जब सेठ भोजन करने बैठा तो बहू ने उसकी थाली में उसी आटे की रोटियां परोस दीं। सेठ ने समझा कि बहू ने कोई नया पकवान बनाया है। लेकिन जैसे ही मुंह में पहला कौर डाला, हिचकी आने लगी। उसने उस कौर को थूक दिया और बहू से बोला, 'यह आटा कहां से आया है? क्या घर में और आटा नहीं था?' बहू विनम्रता से बोली, 'आटा तो बहुत है बाबूजी, लेकिन मैंने सोचा कि आपके भंडारे में जिस आटे की रोटी बनती है उसी से घर में भी बनाई जाए।' इस पर सेठ ने कहा, 'लेकिन बहू वह आटा तो गरीबों के खाने के लिए होता है।' बहू बोली, 'पिता जी मुझे बताया गया है कि परलोक में भी प्राणी को वही खाना मिलता है जो वह गरीबों को खिलाता है, इसलिए सोचा कि क्यों न अभी से आपको उसी रोटी की आदत डलवाई जाए।' सेठ लज्जित हो गया। उसने उसी दिन सारा बेकार आटा पशुओं को खिला दिया और गरीबों के खाने के लिए अच्छे गेहूं निकलवाए।
बुढि़या की सीख
एक राजा ने एक बड़ा यज्ञ करने का निश्चय किया। उसने सोचा कि इस अवसर पर राज्य के सारे गांवों से दूध इकट्ठा करके ब्रह्मभोज किया जाए। उसने आदेश दिया कि निर्धारित तिथि को सभी किसान अपने घरों से दूध लाकर महल के बाहर रखे बर्तन में डालें। राजा ने यह भी हुक्म दिया कि उस दिन जिसके घर जितना दूध हो वह सारा का सारा लाया जाए। राजा के हुक्म का पालन हुआ। किसी ने एक बूंद भी दूध अपने घर नहीं रखा। सारा दूध महल के बाहर रखे बर्तन में डाल दिया। राजा दूध देखने आया तो उसे यह जानकर हैरानी हुई कि राज्य का सारा दूध आने पर बर्तन आधा भी नहीं भरा। उसने सिपाहियों को गांव-गांव जाकर हर घर से दूध लाने को कहा। उन्होंने घर-घर देख डाला पर किसी के यहां दूध नहीं मिला। सिपाही निराश लौट आए। राजा भी अचंभे में था। तभी एक बुढि़या छोटे से लोटे में दूध लेकर आई। उसने जैसे ही बर्तन में दूध डाला बर्तन लबालब भर गया। सभी आश्चर्यचकित होकर यह अजीब दृश्य देख रहे थे। राजा ने उस बुढि़या से पूछा, 'क्या तुम्हें कोई जादू आता है?' बुढि़या बोली, 'जादू क्या होता है महाराज! मैंने आपकी आज्ञा का पालन नहीं किया। मैंने सुबह उठकर गाय को दुहा। पहले उसके बछड़े ने आधा दूध पिया, बाकी बचे आधे दूध में थोड़ा-थोड़ा कुत्ते और बिल्ली ने पिया। बचा हुआ दूध मैंने आपके बर्तन में डाल दिया।' राजा ने क्रोधित होकर कहा, 'मगर तूने ऐसा क्यों किया? तूने भगवान को बचा हुआ दूध दिया।' इस पर बुढि़या ने कहा, 'महाराज, भगवान का पेट भरना है तो उसके बनाए हुए जीवों का पेट भरना चाहिए। आपने घर-घर का सारा दूध मंगवा लिया। आज कितने बच्चे दूध के बगैर भूखे होंगे। क्या भगवान ऐसा दूध पिएंगे? शायद इसी से यह बर्तन खाली था।' बुढि़या की बात सुनकर राजा की आंखें खुल गई। उसने सारा दूध घर-घर बंटवा दिया।
संगीत का सौंदर्य
फ्रांस के प्रसिद्ध संगीतकार गाल्फर्ड के पास एक लड़की संगीत सीखने आया करती थी जो अत्यंत कुरूप थी। एक दिन लड़की ने गाल्फर्ड को बताया कि जब कभी वह मंच पर जाती है तो सोचने लगती है कि अन्य लड़कियां तो बहुत ही आकर्षक हैं। कहीं लोग उसकी हंसी तो नहीं उड़ाएंगे। इस आशंका से वह ढंग से नहीं गा पाती। लेकिन घर पर अपने लोगों के बीच वह ठीक से गाती है और वहां सभी उसके गायन की प्रशंसा करते हैं। बस मंच पर जाने के समय ही वह अपनी सारी क्षमता गंवा बैठती है।
गाल्फर्ड ने उसकी बातें ध्यान से सुनी। फिर अत्यंत स्नेहपूर्वक बोले, 'बेटी, संगीत का अपना सौंदर्य होता है। जो उस सौंदर्य का रस पीने आते हैं, वे गायक व गायिका का रूप नहीं देखते। फिर भी तुम ऐसा करो कि रोजाना एक बड़े शीशे के सामने खड़े होकर अपनी छवि निहारो और ऐसा करते हुए गीत गाओ। इससे तुम्हारी झिझक अपने आप खत्म हो जाएगी और यह भी समझ में आ जाएगा कि संगीत की मधुरता और संगीतकार के रूप का आपस में कोई संबंध नहीं है। दर्पण के सामने जब तुम भाव विभोर होकर गाओगी तो तुम्हारे मन से हर तरह का डर निकल जाएगा। फिर धीरे-धीरे तुम मंच पर बेफिक्र होकर गा सकोगी।'
लड़की ने अपने गुरु की सलाह पर उसी दिन से अमल करना शुरू कर दिया। इससे उसके भीतर आत्मविश्वास आने लगा। फिर जब वह मंच पर उतरी तो उसकी झिझक पूरी तरह खत्म हो गई। संगीत के क्षेत्र में उसने काफी प्रसिद्धि प्राप्त की। उसका नाम था मेरी वुडलनाल्ड।
गाल्फर्ड ने उसकी बातें ध्यान से सुनी। फिर अत्यंत स्नेहपूर्वक बोले, 'बेटी, संगीत का अपना सौंदर्य होता है। जो उस सौंदर्य का रस पीने आते हैं, वे गायक व गायिका का रूप नहीं देखते। फिर भी तुम ऐसा करो कि रोजाना एक बड़े शीशे के सामने खड़े होकर अपनी छवि निहारो और ऐसा करते हुए गीत गाओ। इससे तुम्हारी झिझक अपने आप खत्म हो जाएगी और यह भी समझ में आ जाएगा कि संगीत की मधुरता और संगीतकार के रूप का आपस में कोई संबंध नहीं है। दर्पण के सामने जब तुम भाव विभोर होकर गाओगी तो तुम्हारे मन से हर तरह का डर निकल जाएगा। फिर धीरे-धीरे तुम मंच पर बेफिक्र होकर गा सकोगी।'
लड़की ने अपने गुरु की सलाह पर उसी दिन से अमल करना शुरू कर दिया। इससे उसके भीतर आत्मविश्वास आने लगा। फिर जब वह मंच पर उतरी तो उसकी झिझक पूरी तरह खत्म हो गई। संगीत के क्षेत्र में उसने काफी प्रसिद्धि प्राप्त की। उसका नाम था मेरी वुडलनाल्ड।
सच्चा सहयोगी
किसी राजा को अपने मंत्रियों में से एक बहुत प्रिय था। वह राजा का विश्वासपात्र था। राजा हर मामले में उसकी सलाह जरूर लेता था। कुछ ईर्ष्यालु स्वभाव वाले मंत्रियों-दरबारियों को यह सहन नहीं होता था। उनमें से कुछ ने एक दिन राजा से शिकायत की। वे बोले, 'अपराध क्षमा हो, राजन! जिस मंत्री को आप अपना प्रिय व विश्वासपात्र समझते हैं वास्तव में वह भ्रष्टाचारी है। राज्य में जो भ्रष्टाचार फैला हुआ है, इसका मुख्य कारण यह मंत्री ही है।' यह सुनकर राजा ने अपने उस प्रिय मंत्री को उन मंत्रियों के सामने बुलाया और कहा, 'ये लोग तुम्हारे ऊपर जो आक्षेप लगा रहे हैं उसके निराकरण के लिए तुम्हें एक सप्ताह का समय दिया जाता है। तुम्हें खुद को निर्दोष सिद्ध करना पड़ेगा नहीं तो दंड भुगतना पड़ेगा।' उस मंत्री ने अपने घर आकर राजा को एक पत्र लिखा, 'राजन! अपमानित होने से मरना अच्छा है, इसलिए मैं मरने जा रहा हूं, अलविदा।' और मंत्री पत्र लिखकर अज्ञात स्थान पर चला गया।
राजा ने पत्र पढ़ा और उसकी छानबीन की। मंत्री के न मिलने से राजा ने उसे मृत समझकर शोकसभा आयोजित की। वह मंत्री भी वेश बदलकर अपनी शोकसभा में पहुंचा। वहां उपस्थित जन समूह उसको श्रद्धांजलि दे रहा था। शिकायत करने वाले भी कह रहे थे, 'मंत्री जी बहुत ईमानदार, विश्वासपात्र व उच्च विचारों वाले व्यक्ति थे। उनकी असामयिक मृत्यु से हम सब दुखी हैं।' यह सुनते ही वह मंत्री अपने असली रूप में आ गया। उसे देख उसके विरोधियों के होश उड़ गए। मंत्री ने राजा से कहा, 'देखा महाराज। इन लोगों की राय कैसे बदल गई। अगर मैं बुरा था तो आज ये मेरी प्रशंसा क्यों कर रहे हैं। क्या आप ऐसे लोगों पर विश्वास करेंगे जिनके विचार हमेशा बदलते रहते हैं।' राजा को अपनी भूल का अहसास हो गया। उसने उस मंत्री को गले से लगाया और उन लोगों को राजसेवा से निकाल बाहर किया जिन्होंने मंत्री की शिकायत की थी।
राजा ने पत्र पढ़ा और उसकी छानबीन की। मंत्री के न मिलने से राजा ने उसे मृत समझकर शोकसभा आयोजित की। वह मंत्री भी वेश बदलकर अपनी शोकसभा में पहुंचा। वहां उपस्थित जन समूह उसको श्रद्धांजलि दे रहा था। शिकायत करने वाले भी कह रहे थे, 'मंत्री जी बहुत ईमानदार, विश्वासपात्र व उच्च विचारों वाले व्यक्ति थे। उनकी असामयिक मृत्यु से हम सब दुखी हैं।' यह सुनते ही वह मंत्री अपने असली रूप में आ गया। उसे देख उसके विरोधियों के होश उड़ गए। मंत्री ने राजा से कहा, 'देखा महाराज। इन लोगों की राय कैसे बदल गई। अगर मैं बुरा था तो आज ये मेरी प्रशंसा क्यों कर रहे हैं। क्या आप ऐसे लोगों पर विश्वास करेंगे जिनके विचार हमेशा बदलते रहते हैं।' राजा को अपनी भूल का अहसास हो गया। उसने उस मंत्री को गले से लगाया और उन लोगों को राजसेवा से निकाल बाहर किया जिन्होंने मंत्री की शिकायत की थी।
बड़ा कौन
एक बार सम्राट अशोक अपने विश्वस्त मंत्री भ्रामात्य के साथ कहीं जा रहे थे। रास्ते में एक संत को आते देख वह घोड़े से नीचे उतरे और उन्होंने संत को दंडवत प्रणाम किया। यह बात भ्रामात्य को अच्छी नहीं लगी। संत के जाने के बाद भ्रामात्य ने अशोक से पूछा, 'राजन्, मेरी समझ में नहीं आया कि इतने बड़े सम्राट होकर आपने एक साधारण साधु को दंडवत प्रणाम क्यों किया।' उस समय अशोक ने कोई उत्तर नहीं दिया। दो दिनों के बाद उसने कई जानवरों के मुखौटों के साथ एक साधु और एक राजा का सुंदर मुखौटा भ्रामात्य को देते हुए कहा, 'गांव में जाकर इन मुखौटों को बेच दीजिए। मैं जानना चाहता हूं कि प्रजा किसे ज्यादा पसंद करती है।'
भ्रामात्य उन मुखौटों को बेचने के लिए गांव में गया। साधु का मुखौटा सबसे पहले बिक गया। उसके बाद सभी जानवरों के मुखौटे भी बिक गए। मगर राजा का मुखौटा किसी ने नहीं खरीदा। भ्रामात्य उसे लेकर लौट आया। अशोक ने उसे फिर से जाने को कहा। और यह भी निर्देश दिया कि यह मुखौटा किसी को मुफ्त दे दे। भ्रामात्य दोबारा गया मगर गांव वालों ने मुखौटा लेने से इनकार कर दिया। बोले, 'इस कचरे को लेकर हम क्या करेंगे।' भ्रामात्य फिर लौट आया और सम्राट को गांव वालों की बात बताई। अशोक ने कहा, 'अब तो तुम्हारे प्रश्न का उत्तर मिल गया होगा। संत हमेशा पूजनीय होते हैं क्योंकि वे मोह माया से दूर रह कर पूरे समाज के हित की बात सोचते हैं। राजा का महत्व तात्कालिक होता है पर संत की कीर्ति हमेशा बनी रहती है।'
भ्रामात्य उन मुखौटों को बेचने के लिए गांव में गया। साधु का मुखौटा सबसे पहले बिक गया। उसके बाद सभी जानवरों के मुखौटे भी बिक गए। मगर राजा का मुखौटा किसी ने नहीं खरीदा। भ्रामात्य उसे लेकर लौट आया। अशोक ने उसे फिर से जाने को कहा। और यह भी निर्देश दिया कि यह मुखौटा किसी को मुफ्त दे दे। भ्रामात्य दोबारा गया मगर गांव वालों ने मुखौटा लेने से इनकार कर दिया। बोले, 'इस कचरे को लेकर हम क्या करेंगे।' भ्रामात्य फिर लौट आया और सम्राट को गांव वालों की बात बताई। अशोक ने कहा, 'अब तो तुम्हारे प्रश्न का उत्तर मिल गया होगा। संत हमेशा पूजनीय होते हैं क्योंकि वे मोह माया से दूर रह कर पूरे समाज के हित की बात सोचते हैं। राजा का महत्व तात्कालिक होता है पर संत की कीर्ति हमेशा बनी रहती है।'
मूर्खों की चिंता
महान दार्शनिक सुकरात बेहद साधारण जीवन जीते थे। उन्हें जो मिल जाता वह उसी में संतोष करते थे। उनके प्रशंसकों और मित्रों की एक बड़ी जमात थी। एक दिन दोपहर में सुकरात विश्राम कर रहे थे। तभी उनके कुछ मित्र आ गए। सुकरात ने आगे बढ़कर स्नेहपूर्वक उनका स्वागत किया। फिर अनेक मुद्दों पर बातचीत होने लगी। बात करते हुए अचानक सुकरात को ख्याल आया कि उन्होंने तो मित्रों से भोजन के बारे में पूछा ही नहीं। सुकरात ने अपने दोस्तों से कहा, 'माफ कीजिए, मैं एक बात तो पूछना भूल ही गया। यह बताएं कि आप लोग भोजन करके आए हैं या आप सबका भोजन तैयार कराऊं ?'
मित्रों ने कहा, 'भोजन हुआ तो नहीं है। यदि कष्ट न हो तो तैयार कराएं।' सुकरात घर के अंदर गए। उन्होंने पत्नी से कहा, 'मेरे कुछ दोस्त आए हुए हैं। उनके लिए भोजन का प्रबंध करना है।' पत्नी नाराज हुई। बोली, 'आप कैसी बात कर रहे हैं। आखिर घर में रखा ही क्या है जो मेहमानों को प्रस्तुत किया जाए। अभी तो प्रबंध होना संभव नहीं।' सुकरात ने कहा, 'घर में जो कुछ है, वही तैयार कर मेहमानों को परोस दो। कोई परेशानी नहीं है।' पत्नी बोली, 'अच्छा नहीं लगेगा। अपनी बात अलग है। मेहमान क्या सोचेंगे और क्या कहेंगे।' सुकरात हंसे और बोले, 'तुम जो कुछ है वही तैयार कर लो। यदि वे बुद्धिमान होंगे तो हमारी मजबूरी समझेंगे और कुछ न कहेंगे और यदि बुद्धिमान न हुए, मूर्ख हुए तो जो कहना चाहें कहें। हम मूर्खों की चिंता क्यों करें।'
मित्रों ने कहा, 'भोजन हुआ तो नहीं है। यदि कष्ट न हो तो तैयार कराएं।' सुकरात घर के अंदर गए। उन्होंने पत्नी से कहा, 'मेरे कुछ दोस्त आए हुए हैं। उनके लिए भोजन का प्रबंध करना है।' पत्नी नाराज हुई। बोली, 'आप कैसी बात कर रहे हैं। आखिर घर में रखा ही क्या है जो मेहमानों को प्रस्तुत किया जाए। अभी तो प्रबंध होना संभव नहीं।' सुकरात ने कहा, 'घर में जो कुछ है, वही तैयार कर मेहमानों को परोस दो। कोई परेशानी नहीं है।' पत्नी बोली, 'अच्छा नहीं लगेगा। अपनी बात अलग है। मेहमान क्या सोचेंगे और क्या कहेंगे।' सुकरात हंसे और बोले, 'तुम जो कुछ है वही तैयार कर लो। यदि वे बुद्धिमान होंगे तो हमारी मजबूरी समझेंगे और कुछ न कहेंगे और यदि बुद्धिमान न हुए, मूर्ख हुए तो जो कहना चाहें कहें। हम मूर्खों की चिंता क्यों करें।'
सच्चा कलाकार
प्रख्यात चित्रकार माइकल एंजेलो से कई चित्रकार ईर्ष्या करते थे। उन्हीं में से एक चित्रकार ने सोचा कि मैं एक ऐसा चित्र बनाऊंगा जिसके आगे एंजेलो की कलाकृति फीकी पड़ जाएगी। यह सोचकर उसने काफी मेहनत से एक महिला का चित्र बनाया। उसने उस चित्र को एक ऊंचे स्थान पर रखा ताकि वहां से गुजरते लोग उसे आसानी से देख सकें। यद्यपि चित्र बहुत सुंदर था, फिर भी चित्रकार को अहसास हो रहा था कि इसमें कुछ कमी रह गई है। पर कमी कहां है और क्या है, यह जानने में वह खुद को असमर्थ पा रहा था। एक दिन एंजेलो उस रास्ते से जा रहे थे। उनकी नजर उस चित्र पर पड़ी। उन्हें वह चित्र बड़ा खूबसूरत लगा और उसमें जो कमी थी, वह भी उनके ध्यान में आ गई। एंजेलो चित्रकार के घर पहुंचे। चित्रकार ने एंजेलो को पहले कभी देखा नहीं था। उसने उनका स्वागत किया और आने का कारण पूछा। एंजेलो ने कहा, 'तुमने चित्र तो बहुत सुंदर बनाया है, पर मुझे इसमें एक कमी लग रही है। 'चित्रकार बोला, 'हां मुझे भी आभास हो रहा है कि कुछ कमी रह गई है।' एंजेलो ने कहा, 'जरा तुम अपनी कूची देना, मैं उस कमी को पूरा कर देता हूं।' चित्रकार बोला, 'मैने उसे बड़ी मेहनत से बनाया है, कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारे हाथ से मेरा चित्र बिगड़ जाए।' एंजेलो ने कहा, ' विश्वास करो, मैं तुम्हारा चित्र खराब नहीं करूंगा।' उस चित्रकार से कूची लेकर एंजेलो ने चित्र की दोनों आंखों में दो बिंदी लगा दी। दरअसल चित्रकार आंखों में दो काली बिंदियां लगाना भूल गया था, जिस कारण चित्र अपूर्ण लग रहा था। अब वह चित्र सजीव प्रतीत होने लगा। उसका सौंदर्य बढ़ गया। उस चित्रकार के पूछने पर जब एंजेलो ने अपना नाम बताया तो चित्रकार के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। उसने एंजेलो को बताया कि वह उनके बारे में क्या सोचता रहा था। उसने एंजेलो से क्षमा मांगी।
सफलता का रहस्य
किसी गांव में रमेश और दीपक नामक दो मूर्तिकार रहते थे। रमेश की बनाई प्रतिमाएं इतनी सुंदर होती थीं कि लोग उन्हें मुंहमांगे दामों पर खरीद लेते थे। दीपक की मूर्तियां कोई नहीं खरीदता था।
एक दिन दीपक ने देखा कि रमेश प्रतिमाएं बनाने में व्यस्त है। उस समय पास से एक सेठ की बरात गुजर रही थी। बरात में बहुत सारे लोग शामिल थे। ढोल-नगाड़े बज रहे थे और आतिशबाजी भी हो रही थी। रमेश प्रतिमाएं बनाने में व्यस्त रहा, उसने बरात की ओर देखा तक नहीं। यह देखकर दीपक रमेश के पास पहुंचा और बोला, 'अभी यहां से बरात गुजरी थी। गांव के सभी लोगों ने अपने-अपने काम छोड़कर बरात को देखा, पर तुमने तो नजर भी नहीं उठाई।' दीपक की बात सुनकर रमेश भौंचक रह गया।
उसने आश्चर्य से कहा, 'तुम किस बरात की बात कर रहे हो। मैंने तो किसी बरात के गुजरने की आवाज नहीं सुनी।' दीपक ने कहा, 'अरे भाई कुछ ही देर पहले एक बरात गुजरी है। सभी ने उसे देखा और ढोल-नगाड़ों की आवाज भी सुनी। ऐसा कैसे हो सकता है कि तुम्हें पता ही न लगा हो?' दीपक की बात सुनकर रमेश बोला, 'मैं जब अपना कार्य करता हूं तो मेरा संपूर्ण ध्यान सिर्फ उस कार्य पर ही केंद्रित रहता है। यहां तक कि उस समय मुझे अपने शरीर की भी सुध नहीं रहती।' रमेश की बात सुनकर दीपक को उसकी सफलता का कारण समझ में गया। वह जान गया कि एक कलाकार के लिए एकाग्रता सबसे बड़ी चीज है। उस दिन से वह भी ध्यान लगाकर काम करने लगा।
एक दिन दीपक ने देखा कि रमेश प्रतिमाएं बनाने में व्यस्त है। उस समय पास से एक सेठ की बरात गुजर रही थी। बरात में बहुत सारे लोग शामिल थे। ढोल-नगाड़े बज रहे थे और आतिशबाजी भी हो रही थी। रमेश प्रतिमाएं बनाने में व्यस्त रहा, उसने बरात की ओर देखा तक नहीं। यह देखकर दीपक रमेश के पास पहुंचा और बोला, 'अभी यहां से बरात गुजरी थी। गांव के सभी लोगों ने अपने-अपने काम छोड़कर बरात को देखा, पर तुमने तो नजर भी नहीं उठाई।' दीपक की बात सुनकर रमेश भौंचक रह गया।
उसने आश्चर्य से कहा, 'तुम किस बरात की बात कर रहे हो। मैंने तो किसी बरात के गुजरने की आवाज नहीं सुनी।' दीपक ने कहा, 'अरे भाई कुछ ही देर पहले एक बरात गुजरी है। सभी ने उसे देखा और ढोल-नगाड़ों की आवाज भी सुनी। ऐसा कैसे हो सकता है कि तुम्हें पता ही न लगा हो?' दीपक की बात सुनकर रमेश बोला, 'मैं जब अपना कार्य करता हूं तो मेरा संपूर्ण ध्यान सिर्फ उस कार्य पर ही केंद्रित रहता है। यहां तक कि उस समय मुझे अपने शरीर की भी सुध नहीं रहती।' रमेश की बात सुनकर दीपक को उसकी सफलता का कारण समझ में गया। वह जान गया कि एक कलाकार के लिए एकाग्रता सबसे बड़ी चीज है। उस दिन से वह भी ध्यान लगाकर काम करने लगा।
सेवा ही धर्म है
एक बार राजेंद्र प्रसाद ट्रेन के तीसरे दर्जे में बैठ कर कहीं जा रहे थे। गर्मी का महीना था। गाड़ी में भीड़ बहुत थी। ट्रेन एक स्टेशन पर रुकी। संयोग से उसी समय प्लैटफॉर्म के दूसरी ओर भी एक गाड़ी आकर रुकी। उसमें भी बहुत भीड़ थी। राजेंद्र बाबू ने देखा कि दूसरी ट्रेन के एक डिब्बे में लोग पानी के लिए चिल्ला रहे हैं। चूंकि भीड़ बहुत ज्यादा थी इसलिए वे डिब्बे से नीचे उतर नहीं सकते थे। कोई उन पर ध्यान नहीं दे रहा था। तभी राजेंद्र बाबू की नजर एक महिला पर गई जो अपने छोटे बच्चे को गोद में लिए खिड़की से पानी-पानी चिल्ला रही थी। प्यास से बच्चा रो रहा था। उसकी तरफ भी किसी का ध्यान नहीं जा रहा था।
राजेंद्र बाबू से रहा नहीं गया। वह अपने डिब्बे के लोगों को धकियाते हुए किसी तरह नीचे उतरे और दौड़ कर नल से अपने लोटे में पानी भरकर उसे दिया। तब तक उनकी गाड़ी खुल गई। लेकिन दौड़ कर किसी तरह उन्होंने अपनी ट्रेन पकड़ ली। उनकी सीट के बगल वाले व्यक्ति ने कहा, 'आप तो दुबले-पतले कमजोर आदमी हैं। इस तरह जोखिम उठा कर आप को ऐसा काम नहीं करना चाहिए था। यात्रियों की सुविधा का ध्यान रखना तो सरकार का काम है।' राजेंद्र बाबू बोले, 'भइया, जब हम लोग ही दूसरे की मदद नहीं करेंगे तो सरकार क्या करेगी। उसको क्यों दोष देते हो। वैसे भी प्यासे को पानी पिलाना तो पुण्य का काम है। आप तो हट्टे-कट्टे हो। आपको यह काम सबसे पहले करना चाहिए था।'
बातचीत में जब उस व्यक्ति को मालूम हुआ कि यह सज्जन कोई और नहीं राजेंद्र बाबू हैं, तो वह शर्मिंदा हो गया और उसने राजेंद्र बाबू से क्षमा मांगी। राजेंद्र बाबू ने कहा, 'अरे इसमें क्षमा मांगने की क्या बात है। आज से तुम भी प्रण कर लो कि जरूरतमंद की सेवा का कोई अवसर नहीं छोड़ोगे। सेवा ही सबसे बड़ा धर्म है।' उस व्यक्ति ने वैसा ही करने का वचन दिया।
राजेंद्र बाबू से रहा नहीं गया। वह अपने डिब्बे के लोगों को धकियाते हुए किसी तरह नीचे उतरे और दौड़ कर नल से अपने लोटे में पानी भरकर उसे दिया। तब तक उनकी गाड़ी खुल गई। लेकिन दौड़ कर किसी तरह उन्होंने अपनी ट्रेन पकड़ ली। उनकी सीट के बगल वाले व्यक्ति ने कहा, 'आप तो दुबले-पतले कमजोर आदमी हैं। इस तरह जोखिम उठा कर आप को ऐसा काम नहीं करना चाहिए था। यात्रियों की सुविधा का ध्यान रखना तो सरकार का काम है।' राजेंद्र बाबू बोले, 'भइया, जब हम लोग ही दूसरे की मदद नहीं करेंगे तो सरकार क्या करेगी। उसको क्यों दोष देते हो। वैसे भी प्यासे को पानी पिलाना तो पुण्य का काम है। आप तो हट्टे-कट्टे हो। आपको यह काम सबसे पहले करना चाहिए था।'
बातचीत में जब उस व्यक्ति को मालूम हुआ कि यह सज्जन कोई और नहीं राजेंद्र बाबू हैं, तो वह शर्मिंदा हो गया और उसने राजेंद्र बाबू से क्षमा मांगी। राजेंद्र बाबू ने कहा, 'अरे इसमें क्षमा मांगने की क्या बात है। आज से तुम भी प्रण कर लो कि जरूरतमंद की सेवा का कोई अवसर नहीं छोड़ोगे। सेवा ही सबसे बड़ा धर्म है।' उस व्यक्ति ने वैसा ही करने का वचन दिया।
गुरु की सीख
किसी नदी के किनारे एक आश्रम था, जिसमें दो शिष्य शिक्षा प्राप्त करते थे। गुरु को दोनों बहुत प्रिय थे। शिष्य भी अपने गुरु से बहुत स्नेह करते थे और उनकी प्रत्येक आज्ञा का पालन भी करते थे। दोनों बहुत गुणी थे, लेकिन उनके विचार एक-दूसरे से भिन्न थे। दोनों अक्सर एक-दूसरे के कार्यों में विघ्न डालते रहते थे, जिससे दोनों में से किसी का काम कभी पूर्ण नहीं हो पाता था। गुरु उनके इस व्यवहार से बहुत दुखी थे।
एक दिन गुरु नदी में स्नान करके आश्रम लौट रहे थे। उन्हें एक मछुआरा मिला। मछुआरे के पास बहुत सी मछलियां और केकड़े थे। गुरु ने मछुआरे से कुछ केकड़े खरीद लिए। जब वह केकड़े लेकर आश्रम पहुंचे तो शिष्य बहुत हैरान हुए। गुरु ने केकड़ों को टोकरी में डाल दिया। लेकिन उन्होंने टोकरी का मुंह खुला ही छोड़ दिया। इस पर शिष्यों ने टोका, 'गुरुदेव, आपने टोकरी का मुंह तो खुला ही छोड़ दिया है। केकड़े तो टोकरी से बाहर आ जाएंगे।' यह सुनकर गुरु कुछ देर शांत रहे फिर बोले, 'चिंता न करो, मैं इन केकड़ों के स्वभाव से परिचित हूं। यह रात भर उछल-कूद मचाने पर भी इस टोकरी की कैद से छूट नहीं सकते, क्योंकि जो केकड़े ऊपर चढ़ने की कोशिश करेंगे, नीचे वाले केकड़े उनकी टांगें खींचकर उन्हें फिर नीचे ले जाएंगे।
ईर्ष्यालु लोग भी इसी तरह एक-दूसरे को आगे बढ़ने से रोकते रहते हैं।' शिष्य गुरु का इशारा समझ गए। उन्होंने उस दिन के बाद एक-दूसरे के कार्यों में विघ्न डालना बंद कर दिया। कुछ दिनों के बाद गुरु केकड़ों को तालाब में छोड़ आए।
एक दिन गुरु नदी में स्नान करके आश्रम लौट रहे थे। उन्हें एक मछुआरा मिला। मछुआरे के पास बहुत सी मछलियां और केकड़े थे। गुरु ने मछुआरे से कुछ केकड़े खरीद लिए। जब वह केकड़े लेकर आश्रम पहुंचे तो शिष्य बहुत हैरान हुए। गुरु ने केकड़ों को टोकरी में डाल दिया। लेकिन उन्होंने टोकरी का मुंह खुला ही छोड़ दिया। इस पर शिष्यों ने टोका, 'गुरुदेव, आपने टोकरी का मुंह तो खुला ही छोड़ दिया है। केकड़े तो टोकरी से बाहर आ जाएंगे।' यह सुनकर गुरु कुछ देर शांत रहे फिर बोले, 'चिंता न करो, मैं इन केकड़ों के स्वभाव से परिचित हूं। यह रात भर उछल-कूद मचाने पर भी इस टोकरी की कैद से छूट नहीं सकते, क्योंकि जो केकड़े ऊपर चढ़ने की कोशिश करेंगे, नीचे वाले केकड़े उनकी टांगें खींचकर उन्हें फिर नीचे ले जाएंगे।
ईर्ष्यालु लोग भी इसी तरह एक-दूसरे को आगे बढ़ने से रोकते रहते हैं।' शिष्य गुरु का इशारा समझ गए। उन्होंने उस दिन के बाद एक-दूसरे के कार्यों में विघ्न डालना बंद कर दिया। कुछ दिनों के बाद गुरु केकड़ों को तालाब में छोड़ आए।
नागरिकों का महत्व
एक बार मगध की सेना ने कौशल राज्य पर चढ़ाई कर दी और कौशल नरेश को उनके अंगरक्षकों तथा कुछ और व्यक्तियों के साथ एक स्थान पर घेर लिया। यह देखकर कौशल नरेश ने मगध के सेनानायक से कहा कि वह उनके सामने बिना किसी प्रतिरोध के समर्पण कर देंगे यदि उनके साथ आए हुए दस व्यक्तियों को यहां से सकुशल जाने दिया जाए। सेनानायक ने यह शर्त मान ली और दस व्यक्तियों को सकुशल छोड़ दिया।
फिर उसने कौशल नरेश को बंदी बनाकर मगध सम्राट के सामने प्रस्तुत किया। और उन्हें सारा विवरण भी सुनाया। यह सुनकर मगध सम्राट भी हैरान हो गए। उन्होंने कौशल नरेश से पूछा, 'जिन व्यक्तियों की सुरक्षा के लिए आपने स्वयं को कैद करवा दिया, वे कौन थे?' कौशल नरेश बोले, 'राजन, वे हमारे राज्य के महत्वपूर्ण विद्वान और संत थे। मैं भले मारा जाऊं मगर उनका जीवित रहना जरूरी है। वे रहेंगे तो राज्य में आदर्श, कर्त्तव्य, दया, परोपकार, सत्यनिष्ठा आदि की परंपराएं व भावनाएं जीवित रहेंगी।
ऐसा होने से कर्त्तव्यनिष्ठ नागरिकों के निर्माण का कार्य बराबर होता रहेगा तथा उपयुक्त शासक भी पुन: पैदा हो जाएंगे। राष्ट्र की सच्ची संपत्ति उसके श्रेष्ठ नागरिक ही होते है। और उन्हें बनाने वाले होते हैं ये विद्वान और संत।' मगध के राजा कौशल नरेश की ये बातें सुनकर दंग रह गए। उन्होंने कहा, 'जिस राज्य में जनकल्याण में लगे सत्पुरुषों को इतना महत्व दिया जाता है, वहां की शासन-व्यवस्था में परिवर्तन की कोई जरूरत नहीं है। उससे तो हमें भी प्रेरणा लेनी चाहिए।' यह कहकर उन्होंने कौशल नरेश को मुक्त कर दिया।
फिर उसने कौशल नरेश को बंदी बनाकर मगध सम्राट के सामने प्रस्तुत किया। और उन्हें सारा विवरण भी सुनाया। यह सुनकर मगध सम्राट भी हैरान हो गए। उन्होंने कौशल नरेश से पूछा, 'जिन व्यक्तियों की सुरक्षा के लिए आपने स्वयं को कैद करवा दिया, वे कौन थे?' कौशल नरेश बोले, 'राजन, वे हमारे राज्य के महत्वपूर्ण विद्वान और संत थे। मैं भले मारा जाऊं मगर उनका जीवित रहना जरूरी है। वे रहेंगे तो राज्य में आदर्श, कर्त्तव्य, दया, परोपकार, सत्यनिष्ठा आदि की परंपराएं व भावनाएं जीवित रहेंगी।
ऐसा होने से कर्त्तव्यनिष्ठ नागरिकों के निर्माण का कार्य बराबर होता रहेगा तथा उपयुक्त शासक भी पुन: पैदा हो जाएंगे। राष्ट्र की सच्ची संपत्ति उसके श्रेष्ठ नागरिक ही होते है। और उन्हें बनाने वाले होते हैं ये विद्वान और संत।' मगध के राजा कौशल नरेश की ये बातें सुनकर दंग रह गए। उन्होंने कहा, 'जिस राज्य में जनकल्याण में लगे सत्पुरुषों को इतना महत्व दिया जाता है, वहां की शासन-व्यवस्था में परिवर्तन की कोई जरूरत नहीं है। उससे तो हमें भी प्रेरणा लेनी चाहिए।' यह कहकर उन्होंने कौशल नरेश को मुक्त कर दिया।
असली गरीब
एक भिक्षुक को दिन भर में जो कुछ मिलता था, उसे वह खा-पीकर समाप्त कर देता था। प्राय: उसे आवश्यकता के अनुसार भिक्षा मिल जाया करती थी। एक दिन उसे उसकी जरूरत से ज्यादा एक पैसा मिल गया। वह सोचने लगा-इसका क्या उपयोग करूं? उसने उस एक पैसे को अपने चीथड़े के कोने में बांध लिया और एक पंडित के पास गया। उसने उनसे पूछा, 'महाराज, मैं अपनी संपत्ति का क्या सदुपयोग करूं?' पंडित जी ने पूछा, 'तुम्हारे पास कितनी संपत्ति है?' उसने कहा, 'एक पैसा।' इस पर पंडित जी चिढ़ गए। उन्होंने कहा, 'जा-जा, तू एक पैसे के लिए मुझे परेशान करने आया है।' वह भिक्षुक निराश नहीं हुआ। वह कई पंडितों के पास गया। कहीं हंसी मिली तो कहीं दुत्कार।
किसी सज्जन ने सलाह दी कि पैसा किसी गरीब को दे दो। अब भिक्षुक गरीब की तलाश में चल पड़ा। उसने अनेक भिखारियों से प्रश्न किया कि तुम गरीब हो? परंतु एक पैसे के लिए किसी ने गरीब बनना स्वीकार नहीं किया। तभी भिक्षुक को पता चला कि किसी देश काराजा अपने पड़ोसी राज्य पर चढ़ाई करने जा रहा है। उसने लोगों से पूछा, 'राजा चढ़ाई क्यों कर रहे हैं?' लोगों ने बताया 'धन-संपत्ति प्राप्त करने के लिए।' भिक्षुक को लगा कि राजा बहुत गरीब होगा। तभी तो धन-संपत्ति के लिए मारकाट करने पर आमादा है। क्यों न उसे ही पैसा दे दिया जाए।
जब राजा की सवारी उसके पास से गुजरने लगी, तो वह खड़ा हो गया और झटपट अपने चीथड़े में से पैसा निकालकर उसने राजा के हाथ पर डाल दिया। उसने कहा, 'मुझे बहुत दिनों से एक गरीब की तलाश थी। आज आपको पाकर मेरा मनोरथ पूरा हो गया, आप मेरी पूंजी संभालिए।' राजा रुक गया। भिक्षुक ने उसे अपनी कहानी सुनाई तो उसने धावा बोलने का इरादा बदल दिया और सारी फौज के सामने यह बात कबूल की- असली गरीब वह है, जिसके लालच का कोई अंत नहीं।
किसी सज्जन ने सलाह दी कि पैसा किसी गरीब को दे दो। अब भिक्षुक गरीब की तलाश में चल पड़ा। उसने अनेक भिखारियों से प्रश्न किया कि तुम गरीब हो? परंतु एक पैसे के लिए किसी ने गरीब बनना स्वीकार नहीं किया। तभी भिक्षुक को पता चला कि किसी देश काराजा अपने पड़ोसी राज्य पर चढ़ाई करने जा रहा है। उसने लोगों से पूछा, 'राजा चढ़ाई क्यों कर रहे हैं?' लोगों ने बताया 'धन-संपत्ति प्राप्त करने के लिए।' भिक्षुक को लगा कि राजा बहुत गरीब होगा। तभी तो धन-संपत्ति के लिए मारकाट करने पर आमादा है। क्यों न उसे ही पैसा दे दिया जाए।
जब राजा की सवारी उसके पास से गुजरने लगी, तो वह खड़ा हो गया और झटपट अपने चीथड़े में से पैसा निकालकर उसने राजा के हाथ पर डाल दिया। उसने कहा, 'मुझे बहुत दिनों से एक गरीब की तलाश थी। आज आपको पाकर मेरा मनोरथ पूरा हो गया, आप मेरी पूंजी संभालिए।' राजा रुक गया। भिक्षुक ने उसे अपनी कहानी सुनाई तो उसने धावा बोलने का इरादा बदल दिया और सारी फौज के सामने यह बात कबूल की- असली गरीब वह है, जिसके लालच का कोई अंत नहीं।
मनुष्य का स्वभाव
पुराने जमाने की बात है। एक राजा था , जिसके तीन पुत्र थे। वह अपने तीनों पुत्रों को बहुत चाहता था , लेकिन उनके भविष्य को लेकर हमेशा चिंतित भी रहता था। एक दिन राजा अपने तीनों पुत्रों के साथ नगर भ्रमण के लिए निकला। रास्ते में एक तेजस्वी महात्मा मिले। राजा ने उन्हें नमस्कार किया और अपने पुत्रों के भविष्य के विषय में उनसे पूछा। महात्मा ने राजा के तीनों पुत्रों को प्यार से बुलाया और उन तीनों को दो - दो केले खाने को दिए। एक बच्चे ने केले खाकर छिलके रास्ते पर फेंक दिए।
दूसरे ने केले खाकर छिलके रास्ते में न फेंककर कूड़ेदान में डाले। और तीसरे ने छिलके फेंकने के बजाय गाय को खिला दिया। महात्मा जी यह सब बड़े गौर से देख रहे थे। उन्होंने राजा को अलग ले जाकर कहा , ' तुम्हारा पहला पुत्र मूर्ख और उद्दंड है , जबकि दूसरा गुणी और समझदार है। तीसरा पुत्र सज्जन और उदार बनेगा। हो सकता है वह बड़ा समाजसेवी बने। ' महात्मा की बात सुनकर राजा ने पूछा , ' आपने कौन सा गणित लगाकर जवाब दिया ?' महात्मा बोले , ' व्यवहार के गणित से बढ़कर निर्धारण करने का और कोई उपाय नहीं होता। आपके आचरण से आपके विचार और स्वभाव का पता चलता है। हम जैसा आचरण करते हैं वैसा ही बनते भी हैं। मैंने एक मामूली आचरण के आधार पर आपके तीनों पुत्रों के स्वभाव का पता लगाया है। मूलभूत स्वभाव का पता चलने के बाद उसमें परिवर्तन के लिए प्रयास किया जा सकता है। ' यह कहकर महात्मा ने राजा और उसके पुत्रों को आशीर्वाद दिया और चल पड़े।
दूसरे ने केले खाकर छिलके रास्ते में न फेंककर कूड़ेदान में डाले। और तीसरे ने छिलके फेंकने के बजाय गाय को खिला दिया। महात्मा जी यह सब बड़े गौर से देख रहे थे। उन्होंने राजा को अलग ले जाकर कहा , ' तुम्हारा पहला पुत्र मूर्ख और उद्दंड है , जबकि दूसरा गुणी और समझदार है। तीसरा पुत्र सज्जन और उदार बनेगा। हो सकता है वह बड़ा समाजसेवी बने। ' महात्मा की बात सुनकर राजा ने पूछा , ' आपने कौन सा गणित लगाकर जवाब दिया ?' महात्मा बोले , ' व्यवहार के गणित से बढ़कर निर्धारण करने का और कोई उपाय नहीं होता। आपके आचरण से आपके विचार और स्वभाव का पता चलता है। हम जैसा आचरण करते हैं वैसा ही बनते भी हैं। मैंने एक मामूली आचरण के आधार पर आपके तीनों पुत्रों के स्वभाव का पता लगाया है। मूलभूत स्वभाव का पता चलने के बाद उसमें परिवर्तन के लिए प्रयास किया जा सकता है। ' यह कहकर महात्मा ने राजा और उसके पुत्रों को आशीर्वाद दिया और चल पड़े।
निंदक और चाटुकार
आदर्श नगर के महाराज आदर्शसेन अपने दरबार में बैठे थे। अनेक विषयों पर मंत्रणा चल रही थी। अचानक आदर्शसेन को न जाने क्या सूझा कि वह बीच में ही बोल उठे, 'क्या कोई मुझे बताएगा कि सबसे तेज कौन काटता है और सबसे जहरीला विष किसका होता है?' यह सुनकर सभी दरबारी व विद्वान एक-दूसरे की ओर देखने लगे। काफी देर बाद एक विद्वान उठकर बोला, 'महाराज, मेरी नजर में तो सबसे तेज विष सांप का होता है।
उसका काटा पानी भी नहीं मांगता।' राजा इस जवाब से संतुष्ट नहीं दिखे। यह भांप कर एक दरबारी बोला, 'मेरी नजर में तो सबसे तेज ततैया काटता है। उसके काटते ही चीख निकल जाती है।' राजा ने इस पर भी अधिक ध्यान नहीं दिया। तब एक और विद्वान खड़ा हुआ और राजा से बोला, 'हुजूर, मेरी नजर में तो सबसे तेज काटने वाली मधुमक्खी होती है। उसके काटते ही किसी व्यक्ति का शरीर सूज जाता है और वह कई दिनों तक दर्द से बिलबिलाता रहता है। भला उससे तेज विष किसका हो सकता है?'
इस प्रकार सभी व्यक्तियों ने अपने अनुसार एक से बढ़ कर एक जवाब दिए, किंतु राजा किसी के भी जवाब से संतुष्ट नहीं हुए। तभी एक युवा विद्वान ने उठकर कहा, 'महाराज, मेरी नजर में तो सबसे तेज व जहरीले दो ही होते हैं -निंदक और चाटुकार। निंदक के हृदय में निंदा द्वेष रूपी जहर भरा रहता है। वह निंदा करके पीछे से ऐसे काटता है कि मनुष्य तिलमिला उठता है।
चाटुकार अपनी वाणी में मीठा विष भरकर ऐसी चापलूसी करता है कि मनुष्य अपने दुर्गुणों को गुण समझकर अहंकार के नशे मंे चूर हो जाता है। चापलूस की वाणी विवेक को काटकर जड़मूल से नष्ट कर देती है। अनेक ऐसे उदाहरण सामने हैं, जिनमें निंदक व चापलूस ने मनुष्य को इस प्रकार काटा कि वे समूल नष्ट हो गए।' इस जवाब से राजा और सारे विद्वान पूरी तरह संतुष्ट हो गए।
उसका काटा पानी भी नहीं मांगता।' राजा इस जवाब से संतुष्ट नहीं दिखे। यह भांप कर एक दरबारी बोला, 'मेरी नजर में तो सबसे तेज ततैया काटता है। उसके काटते ही चीख निकल जाती है।' राजा ने इस पर भी अधिक ध्यान नहीं दिया। तब एक और विद्वान खड़ा हुआ और राजा से बोला, 'हुजूर, मेरी नजर में तो सबसे तेज काटने वाली मधुमक्खी होती है। उसके काटते ही किसी व्यक्ति का शरीर सूज जाता है और वह कई दिनों तक दर्द से बिलबिलाता रहता है। भला उससे तेज विष किसका हो सकता है?'
इस प्रकार सभी व्यक्तियों ने अपने अनुसार एक से बढ़ कर एक जवाब दिए, किंतु राजा किसी के भी जवाब से संतुष्ट नहीं हुए। तभी एक युवा विद्वान ने उठकर कहा, 'महाराज, मेरी नजर में तो सबसे तेज व जहरीले दो ही होते हैं -निंदक और चाटुकार। निंदक के हृदय में निंदा द्वेष रूपी जहर भरा रहता है। वह निंदा करके पीछे से ऐसे काटता है कि मनुष्य तिलमिला उठता है।
चाटुकार अपनी वाणी में मीठा विष भरकर ऐसी चापलूसी करता है कि मनुष्य अपने दुर्गुणों को गुण समझकर अहंकार के नशे मंे चूर हो जाता है। चापलूस की वाणी विवेक को काटकर जड़मूल से नष्ट कर देती है। अनेक ऐसे उदाहरण सामने हैं, जिनमें निंदक व चापलूस ने मनुष्य को इस प्रकार काटा कि वे समूल नष्ट हो गए।' इस जवाब से राजा और सारे विद्वान पूरी तरह संतुष्ट हो गए।
सीखने की उम्र
स्वामी रामतीर्थ जापान की यात्रा पर थे। जिस जहाज से वह जा रहे थे, उसमें नब्बे वर्ष के एक बुजुर्ग भी थे। स्वामी जी ने देखा कि वह एक पुस्तक खोल कर चीनी भाषा सीख रहे हैं। वह बार-बार पढ़ते और लिखते जाते थे। स्वामी जी सोचने लगे कि यह इस उम्र में चीनी सीख कर क्या करेंगे।
एक दिन स्वामी जी ने उनसे पूछ ही लिया, 'क्षमा करना। आप तो काफी वृद्ध और कमजोर हो गए हैं। इस उम्र में यह कठिन भाषा कब तक सीख पाएंगे। अगर सीख भी लेंगे तो उसका उपयोग कब और कैसे करेंगे।' यह सुन कर उस वृद्ध ने पहले तो स्वामी जी को घूरा, फिर पूछा, 'आपकी उम्र कितनी है?' स्वामी जी ने कहा, 'तीस वर्ष।'
बुजुर्ग मुस्कराए और बोले, 'मुझे अफसोस है कि इस उम्र में आप यात्रा के दौरान अपना कीमती समय बेकार कर रहे हैं। मैं आप लोगों की तरह नहीं सोचता। मैं जब तक जिंदा रहूंगा तब तक कुछ न कुछ सीखता रहूंगा। सीखने की कोई उम्र नहीं होती। यह नहीं सोचूंगा कि कब तक जिंदा रहूंगा, क्योंकि मृत्यु उम्र को नहीं देखती। वह तो कभी भी आ सकती है। आपकी बात से आपकी सोच का पता चलता है। शायद इसी सोच के कारण आप का देश पिछड़ा है।'
स्वामी जी ने उससे माफी मांगते हुए कहा, 'आप ठीक कहते हैं। मैं जापान कुछ सीखने जा रहा था, लेकिन जीवन का बहुमूल्य पहला पाठ तो आप ने रास्ते में ही, एक क्षण में मुझे सिखा दिया।' बुजुर्ग बिना कुछ बोले फिर अपने काम में व्यस्त हो गए।
एक दिन स्वामी जी ने उनसे पूछ ही लिया, 'क्षमा करना। आप तो काफी वृद्ध और कमजोर हो गए हैं। इस उम्र में यह कठिन भाषा कब तक सीख पाएंगे। अगर सीख भी लेंगे तो उसका उपयोग कब और कैसे करेंगे।' यह सुन कर उस वृद्ध ने पहले तो स्वामी जी को घूरा, फिर पूछा, 'आपकी उम्र कितनी है?' स्वामी जी ने कहा, 'तीस वर्ष।'
बुजुर्ग मुस्कराए और बोले, 'मुझे अफसोस है कि इस उम्र में आप यात्रा के दौरान अपना कीमती समय बेकार कर रहे हैं। मैं आप लोगों की तरह नहीं सोचता। मैं जब तक जिंदा रहूंगा तब तक कुछ न कुछ सीखता रहूंगा। सीखने की कोई उम्र नहीं होती। यह नहीं सोचूंगा कि कब तक जिंदा रहूंगा, क्योंकि मृत्यु उम्र को नहीं देखती। वह तो कभी भी आ सकती है। आपकी बात से आपकी सोच का पता चलता है। शायद इसी सोच के कारण आप का देश पिछड़ा है।'
स्वामी जी ने उससे माफी मांगते हुए कहा, 'आप ठीक कहते हैं। मैं जापान कुछ सीखने जा रहा था, लेकिन जीवन का बहुमूल्य पहला पाठ तो आप ने रास्ते में ही, एक क्षण में मुझे सिखा दिया।' बुजुर्ग बिना कुछ बोले फिर अपने काम में व्यस्त हो गए।
परोपकार का दंभ
एक गुरु अपने शिष्यों से कहते थे कि दिन भर में एक नेक कार्य अवश्य करना चाहिए। इससे ही जन्म सफल होता है। एक दिन गुरु ने उत्सुकतावश शिष्यों से पूछा कि कल किस-किसने कोई नेक कार्य किया था?
उनके तीन शिष्यों ने कहा कि उन्होंने नेक कार्य किया था। गुरु ने उनमें से एक से पूछा, 'बताओ कल तुमने क्या नेक कार्य किया?' शिष्य बोला, 'गुरुजी, मैंने एक असहाय बुढि़या को हाथ पकड़कर सड़क पार करवाई।' गुरु ने उसकी पीठ थपथपाई, फिर दूसरे से वही प्रश्न किया। दूसरा शिष्य बोला, 'गुरुजी, मैंने भी एक बुढि़या को सड़क पार कराई।'
फिर गुरु ने तीसरे शिष्य की ओर नजरें घुमाईं। उसने भी यही कहा कि मैंने एक वृद्धा को सड़क पार कराई। तीनों की एक ही जैसी बात सुनकर गुरुजी को संदेह हुआ। वह बोले, 'भला ऐसा कैसे हो सकता है कि तुम तीनों ने ही वृद्धा को सड़क पार कराई। तुम तीनों एक ही वृद्धा को सड़क पार कैसे करा सकते हो?' इस पर तीनों एक साथ बोले, 'गुरुजी जब हम जा रहे थे तो रास्ते में हमें एक वृद्धा मिली।
हमने उसे सड़क पार कराने के लिए कहा तो वह बोली कि मुझे सड़क पार नहीं करनी है। इस पर हम तीनों ने उसे जबरदस्ती पकड़कर सड़क पार कराई।' उनकी बात सुनकर गुरुजी दंग रह गए। उन्होंने शिष्यों को समझाते हुए कहा, 'नेक कार्य तब होता है जब वास्तव में परोपकार किया जाए। केवल परोपकार का दंभ भरने के लिए किया गया कार्य परोपकार नहीं कहलाता।' तीनों शिष्यों ने अपनी गलती के लिए गुरु से क्षमा मांगी।
उनके तीन शिष्यों ने कहा कि उन्होंने नेक कार्य किया था। गुरु ने उनमें से एक से पूछा, 'बताओ कल तुमने क्या नेक कार्य किया?' शिष्य बोला, 'गुरुजी, मैंने एक असहाय बुढि़या को हाथ पकड़कर सड़क पार करवाई।' गुरु ने उसकी पीठ थपथपाई, फिर दूसरे से वही प्रश्न किया। दूसरा शिष्य बोला, 'गुरुजी, मैंने भी एक बुढि़या को सड़क पार कराई।'
फिर गुरु ने तीसरे शिष्य की ओर नजरें घुमाईं। उसने भी यही कहा कि मैंने एक वृद्धा को सड़क पार कराई। तीनों की एक ही जैसी बात सुनकर गुरुजी को संदेह हुआ। वह बोले, 'भला ऐसा कैसे हो सकता है कि तुम तीनों ने ही वृद्धा को सड़क पार कराई। तुम तीनों एक ही वृद्धा को सड़क पार कैसे करा सकते हो?' इस पर तीनों एक साथ बोले, 'गुरुजी जब हम जा रहे थे तो रास्ते में हमें एक वृद्धा मिली।
हमने उसे सड़क पार कराने के लिए कहा तो वह बोली कि मुझे सड़क पार नहीं करनी है। इस पर हम तीनों ने उसे जबरदस्ती पकड़कर सड़क पार कराई।' उनकी बात सुनकर गुरुजी दंग रह गए। उन्होंने शिष्यों को समझाते हुए कहा, 'नेक कार्य तब होता है जब वास्तव में परोपकार किया जाए। केवल परोपकार का दंभ भरने के लिए किया गया कार्य परोपकार नहीं कहलाता।' तीनों शिष्यों ने अपनी गलती के लिए गुरु से क्षमा मांगी।
महात्मा की शिक्षा
एक बार मगध के राजा चित्रांगद वन विहार के लिए निकले। साथ में कुछ बेहद करीबी मंत्री और दरबारी भी थे। वे घूमते हुए काफी दूर निकल गए। एक जगह सुंदर सरोवर के किनारे किसी महात्मा की कुटिया दिखाई दी। वह जगह राजा को बहुत पसंद आई हालांकि वह उसे दूर से ही देखकर निकल गए। राजा ने सोचा कि महात्मा अभावग्रस्त होंगे, इसलिए उनकी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कुछ धन भिजवा दिया। महात्मा ने वह धनराशि लौटा दी। कुछ दिनों बाद और अधिक धन भेजा गया, पर सब लौटा दी गई। तब राजा स्वयं गए और उन्होंने महात्मा से पूछा, 'आपने हमारी भेंट स्वीकार क्यों नहीं की?'
महात्मा हंसते हुए बोले, 'मेरी अपनी जरूरत के लिए मेरे पास पर्याप्त धन है।' राजा ने कुटिया में इधर-उधर देखा, केवल एक तुंबा, एक आसन एवं ओढ़ने का एक वस्त्र था, यहां तक कि धन रखने के लिए कोई अलमारी आदि भी नहीं थी। राजा ने फिर कहा, 'मुझे तो कुछ दिखाई नहीं देता।' महात्मा ने राजा को पास बुलाकर उनके कान में कहा, 'मैं रसायनी विद्या जानता हूं। किसी भी धातु से सोना बना सकता हूं।' अब राजा बेचैन हो गए, उनकी नींद उड़ गई। धन-दौलत के आकांक्षी राजा ने किसी तरह रात काटी और सुबह होते ही महात्मा के पास पहुंचकर बोले, 'महाराज! मुझे वह विद्या सिखा दीजिए, ताकि मैं राज्य का कल्याण कर सकूं।' महात्मा ने कहा, 'ठीक है पर इसके लिए तुम्हें समय देना होगा। वर्ष भर प्रतिदिन मेरे पास आना होगा। मैं जो कहूं उसे ध्यान से सुनना होगा। साल पूरा होते ही विद्या सिखा दूंगा।' राजा रोज आने लगे। महात्मा के साथ रहने का प्रभाव जल्दी ही दिखने लगा। एक वर्ष में राजा की सोच पूरी तरह बदल गई। महात्मा ने एक दिन पूछा, 'वह विद्या सीखोगे?' राजा ने कहा, 'गुरुदेव! अब तो मैं स्वयं रसायन बन गया। अब किसी नश्वर विद्या को सीखकर क्या करूंगा।'
महात्मा हंसते हुए बोले, 'मेरी अपनी जरूरत के लिए मेरे पास पर्याप्त धन है।' राजा ने कुटिया में इधर-उधर देखा, केवल एक तुंबा, एक आसन एवं ओढ़ने का एक वस्त्र था, यहां तक कि धन रखने के लिए कोई अलमारी आदि भी नहीं थी। राजा ने फिर कहा, 'मुझे तो कुछ दिखाई नहीं देता।' महात्मा ने राजा को पास बुलाकर उनके कान में कहा, 'मैं रसायनी विद्या जानता हूं। किसी भी धातु से सोना बना सकता हूं।' अब राजा बेचैन हो गए, उनकी नींद उड़ गई। धन-दौलत के आकांक्षी राजा ने किसी तरह रात काटी और सुबह होते ही महात्मा के पास पहुंचकर बोले, 'महाराज! मुझे वह विद्या सिखा दीजिए, ताकि मैं राज्य का कल्याण कर सकूं।' महात्मा ने कहा, 'ठीक है पर इसके लिए तुम्हें समय देना होगा। वर्ष भर प्रतिदिन मेरे पास आना होगा। मैं जो कहूं उसे ध्यान से सुनना होगा। साल पूरा होते ही विद्या सिखा दूंगा।' राजा रोज आने लगे। महात्मा के साथ रहने का प्रभाव जल्दी ही दिखने लगा। एक वर्ष में राजा की सोच पूरी तरह बदल गई। महात्मा ने एक दिन पूछा, 'वह विद्या सीखोगे?' राजा ने कहा, 'गुरुदेव! अब तो मैं स्वयं रसायन बन गया। अब किसी नश्वर विद्या को सीखकर क्या करूंगा।'
चार मित्र
राजा आदर्श सेन के राज्य में प्रजा बहुत खुशहाल और संतुष्ट थी। वहां कभी किसी तरह का तनाव नहीं होता था। यह बात पड़ोसी राज्य के राजा कुशल सेन तक भी पहुंची। उसके यहां आए-दिन झगड़े होते रहते थे और प्रजा बहुत दु:खी थी। राजा कुशल सेन अपने पड़ोसी राज्य की सुख-शांति व खुशहाली का राज जानने के लिए आदर्श सेन के पास पहुंचा और बोला, 'मेरे यहां हर ओर दु:ख-दर्द व बीमारी फैली है। पूरे राज्य में त्राहि-त्राहि मची हुई है। कृपया मुझे भी अपने राज्य की सुख-शांति का राज बताएं।' कुशल सेन की बात सुनकर राजा आदर्श सेन मुस्कुरा कर बोला, 'मेरे राज्य में सुख-शांति मेरे चार मित्रों के कारण आई है।' इससे कुशल सेन की उत्सुकता बढ़ गई।
उसने कहा, 'कौन हैं वे आपके मित्र? क्या वे मेरी मदद नहीं कर सकते?' आदर्श सेन ने कहा, 'जरूर कर सकते हैं। सुनिए मेरा पहला मित्र है सत्य। वह कभी मुझे असत्य नहीं बोलने देता। मेरा दूसरा मित्र प्रेम है, वह मुझे सबसे प्रेम करने की शिक्षा देता है और कभी भी घृणा करने का अवसर नहीं देता। मेरा तीसरा मित्र न्याय है। वह मुझे कभी भी अन्याय नहीं करने देता और हर वक्त मेरे आंख-कान खुले रखता है ताकि मैं राज्य में होने वाली घटनाओं पर निरंतर अपनी दृष्टि बनाए रखूं। और मेरा चौथा मित्र त्याग है। त्याग की भावना ही मुझे स्वार्थ व ईर्ष्या से बचाती है। ये चारों मिलकर मेरा साथ देते हैं और मेरे राज्य की रक्षा करते हैं।' कुशल सेन को आदर्श सेन की सफलता का रहस्य समझ में आ गया।
उसने कहा, 'कौन हैं वे आपके मित्र? क्या वे मेरी मदद नहीं कर सकते?' आदर्श सेन ने कहा, 'जरूर कर सकते हैं। सुनिए मेरा पहला मित्र है सत्य। वह कभी मुझे असत्य नहीं बोलने देता। मेरा दूसरा मित्र प्रेम है, वह मुझे सबसे प्रेम करने की शिक्षा देता है और कभी भी घृणा करने का अवसर नहीं देता। मेरा तीसरा मित्र न्याय है। वह मुझे कभी भी अन्याय नहीं करने देता और हर वक्त मेरे आंख-कान खुले रखता है ताकि मैं राज्य में होने वाली घटनाओं पर निरंतर अपनी दृष्टि बनाए रखूं। और मेरा चौथा मित्र त्याग है। त्याग की भावना ही मुझे स्वार्थ व ईर्ष्या से बचाती है। ये चारों मिलकर मेरा साथ देते हैं और मेरे राज्य की रक्षा करते हैं।' कुशल सेन को आदर्श सेन की सफलता का रहस्य समझ में आ गया।
मन की जीत
नमि नामक राजा राजपाट छोड़कर तपस्या करने निकले। वह ज्यों ही राजमहल से बाहर आए, एक देवदूत उनकी परीक्षा लेने के उद्देश्य से सामने आकर खड़ा हो गया और बोला, 'राजन्! आप जा रहे हैं। किंतु पहले आपका कर्त्तव्य है कि आप अपने महल की रक्षा के लिए मजबूत दरवाजे, बुर्ज, खाई और तोपखाना आदि बनाकर जाएं ताकि प्रजा और भावी सम्राट सुरक्षित रह सकें।'
इस पर नमि ने कहा, 'हे देव। मैंने ऐसा नगर बनाया है जिसके चारों ओर श्रद्धा, तप और संयम की दीवारें हैं। मन, वचन और काया की एकरूपता की खाई भी है। जिस तरह शत्रु जमीन की खाई को पार कर नगर में प्रवेश नहीं कर सकता, उसी तरह अन्य स्थानों पर व्याप्त वैमनस्य, छल-कपट, काम, क्रोध और लोभ भी मेरी बनाई खाइयों को लांघकर आत्मा में प्रविष्ट नहीं हो सकते। मेरा पराक्रम मेरा धनुष है। मैंने उसमें धैर्य की मूठ लगाई है और सत्य की प्रत्यंचा चढ़ाई है। भौतिक संग्राम से मुझे क्या लेना-देना।
मैंने तो आध्यात्मिक संग्राम के लिए सामग्री इकट्ठी की है। मेरे जीवन की दिशा बदलने के साथ ही मेरे संग्राम का रूप भी बदल गया है। ऐसा नहीं है कि ये सारी शिक्षाएं मैंने स्वयं ली हैं अपितु यह मेरे राज्य के एक-एक नागरिक के तन-मन में रची-बसी हैं। इसलिए मुझे अपने राज्य की चिंता करने की आवश्यकता नहीं है।' देवदूत ने कहा, 'राजा का कर्त्तव्य है कि वह अपने आसपास के सभी राज्यों को अपने अधीन करे।
आप इस कार्य को पूरा करके ही साधु बनें।' यह सुन कर नमि बोले, 'जो रणभूमि में दस हजार योद्धाओं को जीतता है, वह बलवान माना जाता है, किंतु उससे भी अधिक बलवान वह है, जो अपने मन को जीत लेता है। दूसरों को अधीन करने से अच्छा है अपने मन को अधीन करना। जिसने मन को जीत लिया उसने विश्व को जीत लिया।' यह सुनकर देवपुरुष उनके आगे नतमस्तक हो गया और उन्हें शुभकामनाएं देकर चला गया।
इस पर नमि ने कहा, 'हे देव। मैंने ऐसा नगर बनाया है जिसके चारों ओर श्रद्धा, तप और संयम की दीवारें हैं। मन, वचन और काया की एकरूपता की खाई भी है। जिस तरह शत्रु जमीन की खाई को पार कर नगर में प्रवेश नहीं कर सकता, उसी तरह अन्य स्थानों पर व्याप्त वैमनस्य, छल-कपट, काम, क्रोध और लोभ भी मेरी बनाई खाइयों को लांघकर आत्मा में प्रविष्ट नहीं हो सकते। मेरा पराक्रम मेरा धनुष है। मैंने उसमें धैर्य की मूठ लगाई है और सत्य की प्रत्यंचा चढ़ाई है। भौतिक संग्राम से मुझे क्या लेना-देना।
मैंने तो आध्यात्मिक संग्राम के लिए सामग्री इकट्ठी की है। मेरे जीवन की दिशा बदलने के साथ ही मेरे संग्राम का रूप भी बदल गया है। ऐसा नहीं है कि ये सारी शिक्षाएं मैंने स्वयं ली हैं अपितु यह मेरे राज्य के एक-एक नागरिक के तन-मन में रची-बसी हैं। इसलिए मुझे अपने राज्य की चिंता करने की आवश्यकता नहीं है।' देवदूत ने कहा, 'राजा का कर्त्तव्य है कि वह अपने आसपास के सभी राज्यों को अपने अधीन करे।
आप इस कार्य को पूरा करके ही साधु बनें।' यह सुन कर नमि बोले, 'जो रणभूमि में दस हजार योद्धाओं को जीतता है, वह बलवान माना जाता है, किंतु उससे भी अधिक बलवान वह है, जो अपने मन को जीत लेता है। दूसरों को अधीन करने से अच्छा है अपने मन को अधीन करना। जिसने मन को जीत लिया उसने विश्व को जीत लिया।' यह सुनकर देवपुरुष उनके आगे नतमस्तक हो गया और उन्हें शुभकामनाएं देकर चला गया।
सत्य की राह
एक चोर था। एक दिन उसे एक महात्मा मिले। महात्मा ने उससे कहा कि अगर वह हमेशा सत्य बोले तो उसका कल्याण होगा। चोर को यह कठिन काम नजर आया पर चूंकि वह महात्मा से बहुत प्रभावित हुआ था, इसलिए उसने उनकी बात पर अमल करने का फैसला किया।
एक दिन वह राजमहल में चोरी करने गया। बाहर निकलते ही वह पकड़ा गया। द्वारपाल ने पूछा, 'तुम इतनी रात में यहां क्या कर रहे हो?' चोर ने कहा, 'मैं चोर हूं और चोरी करके वापस जा रहा हूं।' द्वारपाल को उसकी बात मजाक लगी। वह हंसने लगा। उसने चोर के हाथ में पोटली देखी तो पूछा, 'इसमें क्या है?' चोर बोला, 'इसमें रानी के गहने हैं।' द्वारपाल ने पोटली खोली तो उसमें सचमुच गहने थे।
चोर को अगले दिन राजा के सामने पेश किया गया। राजा ने कहा, 'तुम जानते हो राजमहल में चोरी के लिए मृत्युदंड भी दिया जा सकता है, फिर भी तुम कह रहे हो कि तुमने चोरी की है।' चोर ने कहा, 'महाराज मैंने तय कर लिया है कि केवल सत्य ही बोलूंगा।' राजा ने कहा, 'अगर अभी भी तुम कहो कि तुमने चोरी नहीं की है तो तुम्हें माफ किया जा सकता है।' चोर ने कहा, 'मैं सत्य से नहीं हटूंगा।
चोरी मैंने ही की है।' राजा ने कहा, 'तो फिर तुम्हें सजा मिलेगी। तुम्हारी सजा यह है कि तुम आज से हमारे मंत्री रहोगे। तुमने विवशता में चोरी करना जरूर शुरू कर दिया पर तुम में सत्य को अपनाने और उस पर टिके रहने की शक्ति है। मुझे ऐसे ही लोगों की आवश्यकता है।'
एक दिन वह राजमहल में चोरी करने गया। बाहर निकलते ही वह पकड़ा गया। द्वारपाल ने पूछा, 'तुम इतनी रात में यहां क्या कर रहे हो?' चोर ने कहा, 'मैं चोर हूं और चोरी करके वापस जा रहा हूं।' द्वारपाल को उसकी बात मजाक लगी। वह हंसने लगा। उसने चोर के हाथ में पोटली देखी तो पूछा, 'इसमें क्या है?' चोर बोला, 'इसमें रानी के गहने हैं।' द्वारपाल ने पोटली खोली तो उसमें सचमुच गहने थे।
चोर को अगले दिन राजा के सामने पेश किया गया। राजा ने कहा, 'तुम जानते हो राजमहल में चोरी के लिए मृत्युदंड भी दिया जा सकता है, फिर भी तुम कह रहे हो कि तुमने चोरी की है।' चोर ने कहा, 'महाराज मैंने तय कर लिया है कि केवल सत्य ही बोलूंगा।' राजा ने कहा, 'अगर अभी भी तुम कहो कि तुमने चोरी नहीं की है तो तुम्हें माफ किया जा सकता है।' चोर ने कहा, 'मैं सत्य से नहीं हटूंगा।
चोरी मैंने ही की है।' राजा ने कहा, 'तो फिर तुम्हें सजा मिलेगी। तुम्हारी सजा यह है कि तुम आज से हमारे मंत्री रहोगे। तुमने विवशता में चोरी करना जरूर शुरू कर दिया पर तुम में सत्य को अपनाने और उस पर टिके रहने की शक्ति है। मुझे ऐसे ही लोगों की आवश्यकता है।'
धैर्य का पाठ
भंसाली जी संस्कृत के प्रख्यात विद्वान थे। वह प्राध्यापक के रूप में कार्य भी करते थे। वह संस्कृत के उत्थान के लिए रोज नई योजनाएं बनाते रहते थे। एक दिन इसी संदर्भ में उन्होंने गांधीजी से मिलने का मन बनाया और उनके आश्रम पहुंच गए। आश्रम में पहुंचते ही उनकी नजर एक साधारण से दिखने वाले कमजोर व्यक्ति पर पड़ी। वह व्यक्ति कुएं से पानी खींच-खींच कर पौधों में डाल रहा था। वह अपने कार्य में मगन था।
उसे व्यस्त देखकर भंसाली जी बोले, 'सुनो भाई! मुझे महात्मा जी से मिलना है।' यह सुनकर वह व्यक्ति गर्दन उठाते हुए बोला, 'उनसे क्या काम है? कहिए।' उसकी बात सुनकर भंसाली जी बोले, 'तुमसे क्या कहूं। मेरी बातें तुम्हारी समझ में नहीं आएंगी। मुझे उनसे संस्कृत के संबंध में कुछ चर्चा करनी है।' वह व्यक्ति बोला, 'ठीक है, आप मेरे साथ कुएं पर चलिए। वह वहीं मिलेंगे।' दोनों कुएं पर गए। वहां जाते ही वह व्यक्ति जूठे बर्तन मांजने लगा। यह देखकर थोड़ी देर तक तो भंसाली जी इधर-उधर देखते रहे। किंतु जब कुछ देर बाद भी उन्हें उन दोनों के अलावा कोई और नजर नहीं आया तो वह थोड़ा गुस्से से बोले 'तुम बर्तन बाद में मांज लेना। पहले मुझे महात्मा जी से तो मिला दो।' यह सुनकर वह व्यक्ति मुस्कराते हुए बोला, 'मैं ही गांधी हूं। संस्कृत पर चर्चा करने के लिए थोड़ा धैर्य भी तो चाहिए। पर आपको तो बहुत जल्दी है।' भंसाली जी ने गांधीजी से माफी मांगी। वह उनकी सादगी के कायल हो गए।
उसे व्यस्त देखकर भंसाली जी बोले, 'सुनो भाई! मुझे महात्मा जी से मिलना है।' यह सुनकर वह व्यक्ति गर्दन उठाते हुए बोला, 'उनसे क्या काम है? कहिए।' उसकी बात सुनकर भंसाली जी बोले, 'तुमसे क्या कहूं। मेरी बातें तुम्हारी समझ में नहीं आएंगी। मुझे उनसे संस्कृत के संबंध में कुछ चर्चा करनी है।' वह व्यक्ति बोला, 'ठीक है, आप मेरे साथ कुएं पर चलिए। वह वहीं मिलेंगे।' दोनों कुएं पर गए। वहां जाते ही वह व्यक्ति जूठे बर्तन मांजने लगा। यह देखकर थोड़ी देर तक तो भंसाली जी इधर-उधर देखते रहे। किंतु जब कुछ देर बाद भी उन्हें उन दोनों के अलावा कोई और नजर नहीं आया तो वह थोड़ा गुस्से से बोले 'तुम बर्तन बाद में मांज लेना। पहले मुझे महात्मा जी से तो मिला दो।' यह सुनकर वह व्यक्ति मुस्कराते हुए बोला, 'मैं ही गांधी हूं। संस्कृत पर चर्चा करने के लिए थोड़ा धैर्य भी तो चाहिए। पर आपको तो बहुत जल्दी है।' भंसाली जी ने गांधीजी से माफी मांगी। वह उनकी सादगी के कायल हो गए।
तीन गहने
ईश्वरचंद्र विद्यासागर का बचपन बंगाल के मेदिनीपुर जिले के वीर सिंह गांव में बीता। एक बार ईश्वरचंद्र के मन में सवाल उठा कि गांव में सभी महिलाएं अच्छे - अच्छे गहने पहनती हैं , लेकिन उनकी मां कभी कोई गहना क्यों नहीं पहनती। एक दिन उन्होंने मां से बड़े प्यार से पूछा , ' मां , तुम्हें कौन - कौन से गहने अच्छे लगते हैं ?' मां हंसती हुई बोली , ' क्यों पूछ रहे हो बेटा ?' ईश्वर चंद्र ने कहा , ' जब मैं बड़ा होऊंगा न , तो तुम्हारे लिए ढेर सारे गहने बनवाऊंगा। ' यह सुन कर मां ने कहा , ' बेटा , मुझे बहुत सारे गहने तो नहीं चाहिए मगर तुम बनवा सको तो मेरे लिए तीन गहने अवश्य बनवाना। ' ईश्वरचंद्र ने पूछा , ' बताओ न मां , वे तीन गहने कौन - कौन हैं। '
मां बोली , ' बेटा , पहला गहना यह है कि तुम बड़े होकर गांव में एक स्कूल बनवाना। यहां एक भी स्कूल नहीं है। गांव के बच्चों को पढ़ने के लिए बहुत दूर जाना पड़ता है। दूसरा गहना यह होगा कि गांव में एक दवाखाना बनवाना और तीसरा गहना यह होगा कि तुम यहां के अनाथ और गरीब बच्चों के लिए भोजन की व्यवस्था करना। मुझे यही गहने सबसे प्रिय हैं। ' यह सुन कर ईश्वरचंद्र की आंखों में आंसू आ गए।
वह बोले , ' मां , मैं आप की इच्छानुसार आप के ये तीनों गहने अवश्य बनवाऊंगा। ' उन्होंने उसी समय प्रण किया कि जब तक मां की इच्छा पूरी नहीं होगी वह दूसरा कोई काम नहीं करेंगे। बड़े होने पर उन्होंने सबसे पहले मां के नाम पर भगवती देवी विद्यालय की स्थापना की , फिर एक दवाखाना बनवाया और ऐसी व्यवस्था की कि गांव के गरीब और अनाथ बच्चे कभी भूखा न सोएं। उनके काम की प्रशंसा सुन कर एक दिन एक विद्वान उनके योगदान की सराहना करने आए। उन्होंने कहा , ' तुम्हारी समझ बहुत अच्छी है जो ऐसा काम कर रहे हो। ' ईश्वचंद्र ने कहा , ' यह मेरी समझ नहीं है। यह तो बचपन में मां की दी हुई शिक्षा का फल है। '
मां बोली , ' बेटा , पहला गहना यह है कि तुम बड़े होकर गांव में एक स्कूल बनवाना। यहां एक भी स्कूल नहीं है। गांव के बच्चों को पढ़ने के लिए बहुत दूर जाना पड़ता है। दूसरा गहना यह होगा कि गांव में एक दवाखाना बनवाना और तीसरा गहना यह होगा कि तुम यहां के अनाथ और गरीब बच्चों के लिए भोजन की व्यवस्था करना। मुझे यही गहने सबसे प्रिय हैं। ' यह सुन कर ईश्वरचंद्र की आंखों में आंसू आ गए।
वह बोले , ' मां , मैं आप की इच्छानुसार आप के ये तीनों गहने अवश्य बनवाऊंगा। ' उन्होंने उसी समय प्रण किया कि जब तक मां की इच्छा पूरी नहीं होगी वह दूसरा कोई काम नहीं करेंगे। बड़े होने पर उन्होंने सबसे पहले मां के नाम पर भगवती देवी विद्यालय की स्थापना की , फिर एक दवाखाना बनवाया और ऐसी व्यवस्था की कि गांव के गरीब और अनाथ बच्चे कभी भूखा न सोएं। उनके काम की प्रशंसा सुन कर एक दिन एक विद्वान उनके योगदान की सराहना करने आए। उन्होंने कहा , ' तुम्हारी समझ बहुत अच्छी है जो ऐसा काम कर रहे हो। ' ईश्वचंद्र ने कहा , ' यह मेरी समझ नहीं है। यह तो बचपन में मां की दी हुई शिक्षा का फल है। '
अहंकार का अंत
यह वैदिक युग की कथा है। सिंधु नदी के किनारे एक वन में किसी महर्षि के आश्रम में दो शिष्य शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। गुरु उन दोनों के प्रति काफी स्नेह रखते थे। वह कोशिश करते थे कि दोनों को सर्वश्रेष्ठ ज्ञान उपलब्ध कराएं। कई वर्षों तक कड़ी साधना करने के बाद दोनों शिष्य अपने - अपने विषयों के प्रकांड विद्वान बन गए। पर जल्दी ही दोनों को अपनी विद्वत्ता पर अहंकार हो गया और दोनों एक दूसरे से ईर्ष्या करने लगे। बात - बात में वे एक - दूसरे से बहस करने लगते या एक - दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश करते। एक दिन उनके गुरु स्नान करने के लिए गए थे।
जब थोड़ी देर बाद वह आश्रम लौटे तो दोनों शिष्यों को आपस में झगड़ते हुए पाया। दोनों ही एक दूसरे को आश्रम की सफाई करने के लिए कह रहे थे। यह देखकर महर्षि हैरान हो गए। उन्होंने शिष्यों से झगड़े का कारण पूछा। एक शिष्य बोला , ' गुरुदेव , मैं इससे विद्वान और श्रेष्ठ हो गया हूं इसलिए सफाई जैसा छोटा काम इसे करना चाहिए। ' दूसरे शिष्य ने भी गुरु को वही बात कही कि वह दूसरे से श्रेष्ठ है इसलिए सफाई का काम उसे शोभा नहीं देता। दोनों की बातें सुनकर महर्षि मुस्कराते हुए बोले , ' तुम दोनों ने बिल्कुल ठीक कहा। तुम दोनों वास्तव में विद्वान और श्रेष्ठ हो गए हो , इसलिए सफाई जैसा छोटा काम अब मैं किया करूंगा। ' यह सुनते ही दोनों शिष्यों की आंखें खुल गईंं। गुरु के दिए संस्कार जाग उठे। अहंकार चूर - चूर हो गया। फिर दोनों ही आश्रम की सफाई करने लगे।
जब थोड़ी देर बाद वह आश्रम लौटे तो दोनों शिष्यों को आपस में झगड़ते हुए पाया। दोनों ही एक दूसरे को आश्रम की सफाई करने के लिए कह रहे थे। यह देखकर महर्षि हैरान हो गए। उन्होंने शिष्यों से झगड़े का कारण पूछा। एक शिष्य बोला , ' गुरुदेव , मैं इससे विद्वान और श्रेष्ठ हो गया हूं इसलिए सफाई जैसा छोटा काम इसे करना चाहिए। ' दूसरे शिष्य ने भी गुरु को वही बात कही कि वह दूसरे से श्रेष्ठ है इसलिए सफाई का काम उसे शोभा नहीं देता। दोनों की बातें सुनकर महर्षि मुस्कराते हुए बोले , ' तुम दोनों ने बिल्कुल ठीक कहा। तुम दोनों वास्तव में विद्वान और श्रेष्ठ हो गए हो , इसलिए सफाई जैसा छोटा काम अब मैं किया करूंगा। ' यह सुनते ही दोनों शिष्यों की आंखें खुल गईंं। गुरु के दिए संस्कार जाग उठे। अहंकार चूर - चूर हो गया। फिर दोनों ही आश्रम की सफाई करने लगे।
सहनशीलता का पाठ
राजा अपने दरबार में बैठे थे। तभी दरबारियों ने एक संत की चर्चा छेड़ दी। उन्होंने बताया कि वह संत केवल काले रंग के वस्त्र धारण करते हैं और उनकी सहनशीलता की कोई सीमा नहीं है। वह बड़े - छोटे , अमीर - गरीब सभी के साथ समान व्यवहार करते हैं। राजा ने जब यह सुना तो वह उस ज्ञानी संत से मिलने को उत्सुक हो उठे। वह उनसे मिलने उनके आश्रम में जा पहुंचे। संत ने राजा के साथ भी वैसा ही व्यवहार किया जैसा वह आश्रम में आने वाले अन्य लोगों के साथ कर रहे थे।
राजा ने संत से पूछा , ' आप हमेशा काले वस्त्र ही क्यों धारण करते हैं ?' राजा का प्रश्न सुनकर संत मुस्कराते हुए बोले , ' पुत्र , मैंने अपने अंतर्मन के मित्रों काम , क्रोध , ईर्ष्या , लोभ , मोह आदि को मार डाला है। इसलिए मैं उन्हीं के शोक में काले वस्त्र धारण करता हूं। ' यह रोचक जवाब सुनकर सब हंस पड़े और संत से अभिभूत भी हुए। राजा की जिज्ञासा थोड़ी और बढ़ी। उन्होंने सोचा कि क्यों न इस संत की परीक्षा ली जाए। उन्होंने संत को अपने महल में बुलवाया। संत के पहुंचने पर राजा के सेवकों ने उन्हें धक्के मार कर बाहर निकाल दिया।
उसके कुछ देर बाद उन्होंने संत को एक बार फिर वापस बुलवाया लेकिन उन्हें फिर उसी तरह बाहर कर दिया गया। यह क्रम कई बार चला। हर बार संत सहज भाव से फिर आ खड़े होते। उनके चेहरे पर क्रोध की मामूली झलक भी नहीं दिखाई पड़ी। संत की सहनशीलता देखकर राजा उनके पैरों पर गिर पडे़ और उनसे क्षमा मांगते हुए बोले , ' आप सचमुच क्षमावान व सहनशील हैं और आपने वास्तव में मानव के अंतर्मन के मित्रों काम , क्रोध , लोभ , ईर्ष्या , मोह आदि पर विजय प्राप्त कर ली है। कृपया मुझे भी अपनी शरण में लेकर इन सब पर विजय पाने का कोई रास्ता बताइए ताकि मैं अपनी प्रजा का समुचित पालन कर सकूं । ' इसके बाद राजा संत से शिक्षा प्राप्त करने लगे।
राजा ने संत से पूछा , ' आप हमेशा काले वस्त्र ही क्यों धारण करते हैं ?' राजा का प्रश्न सुनकर संत मुस्कराते हुए बोले , ' पुत्र , मैंने अपने अंतर्मन के मित्रों काम , क्रोध , ईर्ष्या , लोभ , मोह आदि को मार डाला है। इसलिए मैं उन्हीं के शोक में काले वस्त्र धारण करता हूं। ' यह रोचक जवाब सुनकर सब हंस पड़े और संत से अभिभूत भी हुए। राजा की जिज्ञासा थोड़ी और बढ़ी। उन्होंने सोचा कि क्यों न इस संत की परीक्षा ली जाए। उन्होंने संत को अपने महल में बुलवाया। संत के पहुंचने पर राजा के सेवकों ने उन्हें धक्के मार कर बाहर निकाल दिया।
उसके कुछ देर बाद उन्होंने संत को एक बार फिर वापस बुलवाया लेकिन उन्हें फिर उसी तरह बाहर कर दिया गया। यह क्रम कई बार चला। हर बार संत सहज भाव से फिर आ खड़े होते। उनके चेहरे पर क्रोध की मामूली झलक भी नहीं दिखाई पड़ी। संत की सहनशीलता देखकर राजा उनके पैरों पर गिर पडे़ और उनसे क्षमा मांगते हुए बोले , ' आप सचमुच क्षमावान व सहनशील हैं और आपने वास्तव में मानव के अंतर्मन के मित्रों काम , क्रोध , लोभ , ईर्ष्या , मोह आदि पर विजय प्राप्त कर ली है। कृपया मुझे भी अपनी शरण में लेकर इन सब पर विजय पाने का कोई रास्ता बताइए ताकि मैं अपनी प्रजा का समुचित पालन कर सकूं । ' इसके बाद राजा संत से शिक्षा प्राप्त करने लगे।
बहुमूल्य रत्न
एक बार राजा कृष्णदेव के निमंत्रण पर भक्त पुरंदर दास राजमहल में पधारे। जाते समय राजा ने दो मुट्ठी चावल उनकी झोली में डालते हुए कहा, 'महाराज, इस छोटी सी भेंट को स्वीकार करें।' राजा ने बड़ी चतुराई से इन चावलों में कुछ हीरे मिला दिए थे। पुरंदर दास की पत्नी ने घर पर चावल साफ करते समय देखा कि उनमें कुछ बहुमूल्य रत्न भी हैं, तो उन्होंने उन्हें अलग करके कूड़ेदान में फेंक दिया।
उसके बाद पुरंदर दास को प्राय: रोज ही किसी न किसी कारण से दरबार में आना पड़ा। राजा रोज ही उन्हें दो मुट्ठी चावल के साथ हीरे मिलाकर देते और मन में यही सोचते कि यह ब्राह्मण भी धन के लालच से मुक्त नहीं है। एक दिन राजा ने कहा, 'लालच मनुष्य को आध्यात्मिक उपलब्धियों से दूर कर देता है। आप स्वयं ही अपने विषय में विचार करें।' राजा की यह बात सुनकर पुरंदर दास को बेहद दुख हुआ।
वह अगले दिन राजा को अपना घर दिखाने ले गए। उस समय पुरंदर दास की पत्नी चावल साफ कर रही थीं। राजा ने पूछा, 'देवी, आप क्या कर रही हैं?' वह बोलीं, 'महाराज, कोई व्यक्ति भिक्षा के चावल के साथ कुछ पत्थर मिलाकर हमें देता है। वैसे वे बहुमूल्य रत्न हैं, लेकिन हमारे लिए इनका कोई मूल्य नहीं है। अन्न तो खाना ही है, इसलिए उन्हें निकाल कर अलग कर रही हूं।' राजा ने अपने उन सभी बहुमूल्य रत्नों को कूड़ेदान में पड़े देखा तो आश्चर्यचकित रह गए। फिर उस भक्त दंपती के चरणों में गिर कर उन्होंने अपने आरोप के लिए क्षमा मांगी। पुरंदर दास और उनकी पत्नी ने उन्हें अपने सहज स्वभाव के अनुसार क्षमा कर दिया।
उसके बाद पुरंदर दास को प्राय: रोज ही किसी न किसी कारण से दरबार में आना पड़ा। राजा रोज ही उन्हें दो मुट्ठी चावल के साथ हीरे मिलाकर देते और मन में यही सोचते कि यह ब्राह्मण भी धन के लालच से मुक्त नहीं है। एक दिन राजा ने कहा, 'लालच मनुष्य को आध्यात्मिक उपलब्धियों से दूर कर देता है। आप स्वयं ही अपने विषय में विचार करें।' राजा की यह बात सुनकर पुरंदर दास को बेहद दुख हुआ।
वह अगले दिन राजा को अपना घर दिखाने ले गए। उस समय पुरंदर दास की पत्नी चावल साफ कर रही थीं। राजा ने पूछा, 'देवी, आप क्या कर रही हैं?' वह बोलीं, 'महाराज, कोई व्यक्ति भिक्षा के चावल के साथ कुछ पत्थर मिलाकर हमें देता है। वैसे वे बहुमूल्य रत्न हैं, लेकिन हमारे लिए इनका कोई मूल्य नहीं है। अन्न तो खाना ही है, इसलिए उन्हें निकाल कर अलग कर रही हूं।' राजा ने अपने उन सभी बहुमूल्य रत्नों को कूड़ेदान में पड़े देखा तो आश्चर्यचकित रह गए। फिर उस भक्त दंपती के चरणों में गिर कर उन्होंने अपने आरोप के लिए क्षमा मांगी। पुरंदर दास और उनकी पत्नी ने उन्हें अपने सहज स्वभाव के अनुसार क्षमा कर दिया।
समर्पित सचिव
महादेव भाई देसाई महात्मा गांधी के पास आए। उस समय वह युवा थे और कुछ नया करने के जोश से भरे हुए थे। उन्होंने गांधी जी से कहा, 'मैंने आपके गुजराती भाषण का अंग्रेजी में अनुवाद किया है। कृपया जांच लंे, यह ठीक है या नहीं? मैं आपकी सेवा में रहना चाहूंगा। अगर आप ठीक समझें तो मुझे अपने साथ कार्य करने का अवसर दें।' गांधी जी ने लेख पढ़ने से पहले ही महादेव को स्वीकृति दे दी। गांधी जी बोले, 'ठीक है, तुम जैसा चाहते हो वैसा ही होगा।'
गांधीजी ने उन्हें अपने सचिव के पद पर रख लिया। गांधी जी के सचिव के रूप में नियुक्ति बहुत बड़ी बात थी। महादेव भाई काफी प्रसन्न हुए। उन्होंने उत्साहित होकर पूछा, 'कब से काम शुरू करूं?' गांधी जी बोले, 'बस अभी से शुरू कर दो।' इस पर महादेव भाई बोले, 'लेकिन मेरे पास तो कुछ काम है। मुझे जाना होगा। मैं चाहता हूं कि घर पर सूचना दे आऊं।'
गांधी जी ने कहा, 'अब तुम घर नहीं जाओगे। अपने आप को देश की सेवा में समर्पित करने वालों को सब कुछ छोड़ना होता है। अपने अतीत से चिपके रहोगे तो समर्पण कैसे कर पाओगे।' महादेव भाई गांधी जी का आशय समझ गए। उन्होंने उसी समय से अपना काम संभाल लिया। उन्होंने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन्होंने खुद को एक योग्य सचिव साबित किया। गांधी जी अपने निर्णयों में उनकी सलाह लेते रहते थे। इस तरह महादेव भाई ने स्वतंत्रता संग्राम में अपने तरीके से योगदान किया। उनकी डायरी एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है।
गांधीजी ने उन्हें अपने सचिव के पद पर रख लिया। गांधी जी के सचिव के रूप में नियुक्ति बहुत बड़ी बात थी। महादेव भाई काफी प्रसन्न हुए। उन्होंने उत्साहित होकर पूछा, 'कब से काम शुरू करूं?' गांधी जी बोले, 'बस अभी से शुरू कर दो।' इस पर महादेव भाई बोले, 'लेकिन मेरे पास तो कुछ काम है। मुझे जाना होगा। मैं चाहता हूं कि घर पर सूचना दे आऊं।'
गांधी जी ने कहा, 'अब तुम घर नहीं जाओगे। अपने आप को देश की सेवा में समर्पित करने वालों को सब कुछ छोड़ना होता है। अपने अतीत से चिपके रहोगे तो समर्पण कैसे कर पाओगे।' महादेव भाई गांधी जी का आशय समझ गए। उन्होंने उसी समय से अपना काम संभाल लिया। उन्होंने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन्होंने खुद को एक योग्य सचिव साबित किया। गांधी जी अपने निर्णयों में उनकी सलाह लेते रहते थे। इस तरह महादेव भाई ने स्वतंत्रता संग्राम में अपने तरीके से योगदान किया। उनकी डायरी एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है।
सबसे बड़ा उपहार
बगदाद का बादशाह बेहद उदार व दयालु था। वह निर्धनों की सहायता में हर समय लगा रहता था। बगदाद से थोड़ी दूर एक गांव में एक गरीब परिवार रहता था। वह किसी तरह रूखा-सूखा खाकर अपना गुजारा करता था।
एक दिन पत्नी ने पति से कहा, 'तुम देख रहे हो कि हमारे पास खाने के लिए कुछ भी नहीं है। तुम्हें ऐसी कोशिश करनी चाहिए कि कम से कम दोनों समय पेट भर भोजन तो मिल सके।' पति बोला, 'तुम्हारा कहना सही है, पर संसार में किसी की हालत हमेशा एक जैसी नहीं रहती। अमीरी और गरीबी दोनों धूप-छांव की तरह आती-जाती रहती हैं। मनुष्य का सबसे महत्वपूर्ण धन संतोष है। निश्चिंत रहो, समय पर सब कुछ ठीक हो जाएगा।'
पत्नी ने झुंझला कर कहा, 'तुम हमेशा यही बोलते रहते हो। मेरी बात मानो। बगदाद का बादशाह बहुत दानी है। जो उसके पास जाता है, उसे वह खुले हाथों दान देता है। तुम जल्दी ही बगदाद के लिए रवाना हो जाओ।' पति ने कहा, 'बात तो तुम्हारी ठीक है, पर बादशाह के पास खाली हाथ भी नहीं जाया जाता। उसके लिए क्या उपहार ले जाऊं?'
पत्नी ने कहा, 'बादशाह के खजाने में हीरे-मोती हो सकते हैं, पर हमारे यहां का पानी वहां मिलना कठिन है। हमारा पानी मीठा व सुस्वादु है। इसे ही उपहार के रूप में ले जाओ।' पति ने पहले तो मना किया पर पत्नी के जोर देने पर शीतल जल से भरी मशक लेकर बादशाह के पास पहुंचा। बादशाह ने प्रसन्न होकर उसके मशक को उपहार के रूप में स्वीकार किया और उस पानी को बर्तन में खाली करवा कर उसकी मशक अशर्फियों से भरकर उसे वापस दे दी। जब पति घर पहुंचा तो पत्नी बोली, 'महान लोग यह नहीं देखते कि उपहार कितना बड़ा या कीमती है। वे तो सिर्फ भेंट देने वाले का मन पढ़ते हैं। वे देखते हैं उसका मन कितना शुद्ध है। शुद्ध मन ही सबसे बड़ा उपहार है।'
एक दिन पत्नी ने पति से कहा, 'तुम देख रहे हो कि हमारे पास खाने के लिए कुछ भी नहीं है। तुम्हें ऐसी कोशिश करनी चाहिए कि कम से कम दोनों समय पेट भर भोजन तो मिल सके।' पति बोला, 'तुम्हारा कहना सही है, पर संसार में किसी की हालत हमेशा एक जैसी नहीं रहती। अमीरी और गरीबी दोनों धूप-छांव की तरह आती-जाती रहती हैं। मनुष्य का सबसे महत्वपूर्ण धन संतोष है। निश्चिंत रहो, समय पर सब कुछ ठीक हो जाएगा।'
पत्नी ने झुंझला कर कहा, 'तुम हमेशा यही बोलते रहते हो। मेरी बात मानो। बगदाद का बादशाह बहुत दानी है। जो उसके पास जाता है, उसे वह खुले हाथों दान देता है। तुम जल्दी ही बगदाद के लिए रवाना हो जाओ।' पति ने कहा, 'बात तो तुम्हारी ठीक है, पर बादशाह के पास खाली हाथ भी नहीं जाया जाता। उसके लिए क्या उपहार ले जाऊं?'
पत्नी ने कहा, 'बादशाह के खजाने में हीरे-मोती हो सकते हैं, पर हमारे यहां का पानी वहां मिलना कठिन है। हमारा पानी मीठा व सुस्वादु है। इसे ही उपहार के रूप में ले जाओ।' पति ने पहले तो मना किया पर पत्नी के जोर देने पर शीतल जल से भरी मशक लेकर बादशाह के पास पहुंचा। बादशाह ने प्रसन्न होकर उसके मशक को उपहार के रूप में स्वीकार किया और उस पानी को बर्तन में खाली करवा कर उसकी मशक अशर्फियों से भरकर उसे वापस दे दी। जब पति घर पहुंचा तो पत्नी बोली, 'महान लोग यह नहीं देखते कि उपहार कितना बड़ा या कीमती है। वे तो सिर्फ भेंट देने वाले का मन पढ़ते हैं। वे देखते हैं उसका मन कितना शुद्ध है। शुद्ध मन ही सबसे बड़ा उपहार है।'
जीवन का सच
एक बार किसी गांव में एक महात्मा पधारे। उनसे मिलने पूरा गांव उमड़ पड़ा। गांव के हरेक व्यक्ति ने अपनी-अपनी जिज्ञासा उनके सामने रखी। एक व्यक्ति ने महात्मा से पूछा, 'महात्मा जी, ऐसा क्या करें, जिससे जीवन की सभी चिंताओं से मुक्ति मिल जाए और कोई भी काम अधूरा न रहे।' यह सुनकर महात्मा जी मुस्कराए, फिर उन्होंने कहा, 'पहले तुम मुझे कुछ जिंदा मेंढक लाकर दो, उसके बाद तुम्हारे इस सवाल का जवाब दूंगा।' यह सुनकर लोग चकराए।
लेकिन महात्मा जी का आदेश था, सो कुछ लोग जल्दी से तालाब पर पहंुचे और बड़ी मुश्किल से कुछ मेंढक पकड़ लाए। फिर महात्मा जी ने तराजू लाने को कहा। एक आदमी तराजू ले आया। महात्मा जी ने लोगों से कहा कि वे मेंढकों को तौलंे और उनका कुल वजन बताएं। यह कहकर महात्मा जी चले गए। उसी व्यक्ति ने मेंढकों को तौलना शुरू किया जिसने प्रश्न किया था। उसने ज्यों ही मेंढकों को पलड़े पर रखा, कभी एक मेंढक उछलकर भाग निकलता तो कभी दूसरा। फिर लोग उन्हें पकड़कर लाते और तराजू पर रख देते।
लेकिन उन्हें स्थिर रख पाना बेहद कठिन था। लोग दिन भर प्रयास करते रहे। शाम होने पर महात्मा जी फिर वहां पहुंचे। उन्होंने लोगों से यह काम बंद करने को कहा। सारे मंेढक भाग निकले। महात्मा जी ने कहा, 'जैसे इतने जिंदा मेंढकों को खुले तौर पर तौलना संभव नहीं, उसी प्रकार संसार में सब ठीकठाक करके निश्चिंत रहना संभव नहीं है। उद्यम, साहस, धैर्य, बुद्धि, शक्ति और पराक्रम, इन सद्गुणों को जीवन में धारण करो और अपना दायित्व निभाओ।'
लेकिन महात्मा जी का आदेश था, सो कुछ लोग जल्दी से तालाब पर पहंुचे और बड़ी मुश्किल से कुछ मेंढक पकड़ लाए। फिर महात्मा जी ने तराजू लाने को कहा। एक आदमी तराजू ले आया। महात्मा जी ने लोगों से कहा कि वे मेंढकों को तौलंे और उनका कुल वजन बताएं। यह कहकर महात्मा जी चले गए। उसी व्यक्ति ने मेंढकों को तौलना शुरू किया जिसने प्रश्न किया था। उसने ज्यों ही मेंढकों को पलड़े पर रखा, कभी एक मेंढक उछलकर भाग निकलता तो कभी दूसरा। फिर लोग उन्हें पकड़कर लाते और तराजू पर रख देते।
लेकिन उन्हें स्थिर रख पाना बेहद कठिन था। लोग दिन भर प्रयास करते रहे। शाम होने पर महात्मा जी फिर वहां पहुंचे। उन्होंने लोगों से यह काम बंद करने को कहा। सारे मंेढक भाग निकले। महात्मा जी ने कहा, 'जैसे इतने जिंदा मेंढकों को खुले तौर पर तौलना संभव नहीं, उसी प्रकार संसार में सब ठीकठाक करके निश्चिंत रहना संभव नहीं है। उद्यम, साहस, धैर्य, बुद्धि, शक्ति और पराक्रम, इन सद्गुणों को जीवन में धारण करो और अपना दायित्व निभाओ।'
जीवन का रहस्य
राजा सुषेण के मन में कुछ प्रश्न थे, जिनके उत्तर की तलाश में वह एक महात्मा के पास पहुंचे। महात्मा ने कहा, 'अभी मेरे पास समय नहीं है। मुझे अपनी वाटिका बनानी है।' राजा भी उनकी मदद करने में जुट गए। इतने में एक घायल आदमी भागता-भागता आया और गिरकर बेहोश हो गया। महात्मा जी ने उसके घाव पर औषधि लगाई। राजा भी उसकी सेवा में लग गए। जब वह आदमी होश में आया तो राजा को देखकर चौंक उठा। वह राजा से क्षमा मांगने लगा।
जब राजा ने इसका कारण पूछा तो उसने बताया कि वह राजा को मारने के इरादे से निकला था, लेकिन सैनिकों ने उसके मंसूबों को भांप लिया और उस पर हमला कर दिया। वह किसी तरह जान बचाकर भागता हुआ इधर पहुंचा है। महात्मा जी के कहने पर राजा ने उसे क्षमा कर दिया। लेकिन तब राजा ने महात्मा से प्रश्न किया, 'मेरे तीन प्रश्न हैं। सबसे उत्तम समय कौन-सा है, सबसे बढि़या काम कौन सा है और सबसे अच्छा व्यक्ति कौन है।'
महात्मा बोले, 'हे राजन, इन तीनों प्रश्नों का उत्तर तो तुमने पा लिया है। फिर भी सुनो। सबसे उत्तम समय है वर्तमान। आज तुमने वर्तमान समय का सदुपयोग करते हुए मेरे काम में हाथ बंटाया और वापस जाने को टाला, जिससे तुम बच गए। अन्यथा वह व्यक्ति बाहर तुम्हारी जान ले सकता था। और जो सामने आ जाए, वही सबसे बढि़या काम है। आज तुम्हारे सामने बगीचे का कार्य आया और तुम उसमें लग गए। वर्तमान को संवार कर उसका सदुपयोग किया। इसी कर्म ने तुम्हें दुर्घटना से बचाया। और बढि़या व्यक्ति वह है, जो प्रत्यक्ष हो। उस आदमी के लिए अपने दिल में सद्भाव लाकर तुमने उसकी सेवा की, इससे उसका हृदय परिवर्तित हो गया और तुम्हारे प्रति उसका वैर भाव धुल गया। इस प्रकार तुम्हारे सामने आया व्यक्ति, शास्त्रानुकूल कार्य व वर्तमान समय उत्तम हैं।' जीवन के इस रहस्य को जान कर राजा महात्मा के सामने नतमस्तक हो गए।
जब राजा ने इसका कारण पूछा तो उसने बताया कि वह राजा को मारने के इरादे से निकला था, लेकिन सैनिकों ने उसके मंसूबों को भांप लिया और उस पर हमला कर दिया। वह किसी तरह जान बचाकर भागता हुआ इधर पहुंचा है। महात्मा जी के कहने पर राजा ने उसे क्षमा कर दिया। लेकिन तब राजा ने महात्मा से प्रश्न किया, 'मेरे तीन प्रश्न हैं। सबसे उत्तम समय कौन-सा है, सबसे बढि़या काम कौन सा है और सबसे अच्छा व्यक्ति कौन है।'
महात्मा बोले, 'हे राजन, इन तीनों प्रश्नों का उत्तर तो तुमने पा लिया है। फिर भी सुनो। सबसे उत्तम समय है वर्तमान। आज तुमने वर्तमान समय का सदुपयोग करते हुए मेरे काम में हाथ बंटाया और वापस जाने को टाला, जिससे तुम बच गए। अन्यथा वह व्यक्ति बाहर तुम्हारी जान ले सकता था। और जो सामने आ जाए, वही सबसे बढि़या काम है। आज तुम्हारे सामने बगीचे का कार्य आया और तुम उसमें लग गए। वर्तमान को संवार कर उसका सदुपयोग किया। इसी कर्म ने तुम्हें दुर्घटना से बचाया। और बढि़या व्यक्ति वह है, जो प्रत्यक्ष हो। उस आदमी के लिए अपने दिल में सद्भाव लाकर तुमने उसकी सेवा की, इससे उसका हृदय परिवर्तित हो गया और तुम्हारे प्रति उसका वैर भाव धुल गया। इस प्रकार तुम्हारे सामने आया व्यक्ति, शास्त्रानुकूल कार्य व वर्तमान समय उत्तम हैं।' जीवन के इस रहस्य को जान कर राजा महात्मा के सामने नतमस्तक हो गए।
उदारता की राह
पंडित मदनमोहन मालवीय का कहना था कि यदि मूक जीवों का कष्ट समझकर हम इंसान उनके हित में कुछ कर सकें तो शायद इससे बढ़कर दूसरा कोई पुण्य नहीं होगा। यह बात उनके आचरण में हमेशा दिखती थी। उनके भीतर प्राणी मात्र के लिए दया थी। इससे जुड़ी एक घटना बड़ी चर्चित है। मालवीय जी किसी जरूरी काम से कहीं पैदल जा रहे थे। रास्ते में उन्हें एक कुत्ता छटपटाता दिखाई दिया। उसके कान के पास एक घाव था और वह पीड़ा के मारे इधर-उधर भाग रहा था। उसकी कराह सुनकर मालवीय जी से रहा नहीं गया। उन्होंने अपना काम निपटाने का विचार छोड़ा और पशु चिकित्सालय दौड़ते हुए गए।
वैद्य जी को कुत्ते की तकलीफ बताकर दवा मांगी। वैद्य जी ने दवा तो दे दी, मगर बोले, 'मदनमोहन, ऐसे कुत्ते प्राय: पागल हो जाते हैं। छूने पर काट भी लेते हैं। तुम इस खतरे में न पड़ो तो अच्छा है।' किंतु मालवीय जी नहीं माने। वह कष्ट में पड़े किसी प्राणी से मुंह नहीं फेर सकते थे। उन्होंने दवा लेकर एक लंबे बांस में कपड़ा लपेटा और कुत्ते को ढूंढने लगे। कुत्ता एक संकरी गली में बैठा था। मालवीय जी ने पहले कपड़े पर दवा लगाई फिर बांस की सहायता से कुत्ते को दवा लगाना शुरू किया। कुत्ता गुर्राता, दांत निकालता और झपटने की भी कोशिश करता रहा, किंतु मालवीय जी बिना डरे उसे दवा लगाते रहे। जब कुत्ते की पीड़ा कम हुई तो वह सो गया। तब मालवीय जी को शांति मिली और वह अपने कार्य के लिए रवाना हुए।
वैद्य जी को कुत्ते की तकलीफ बताकर दवा मांगी। वैद्य जी ने दवा तो दे दी, मगर बोले, 'मदनमोहन, ऐसे कुत्ते प्राय: पागल हो जाते हैं। छूने पर काट भी लेते हैं। तुम इस खतरे में न पड़ो तो अच्छा है।' किंतु मालवीय जी नहीं माने। वह कष्ट में पड़े किसी प्राणी से मुंह नहीं फेर सकते थे। उन्होंने दवा लेकर एक लंबे बांस में कपड़ा लपेटा और कुत्ते को ढूंढने लगे। कुत्ता एक संकरी गली में बैठा था। मालवीय जी ने पहले कपड़े पर दवा लगाई फिर बांस की सहायता से कुत्ते को दवा लगाना शुरू किया। कुत्ता गुर्राता, दांत निकालता और झपटने की भी कोशिश करता रहा, किंतु मालवीय जी बिना डरे उसे दवा लगाते रहे। जब कुत्ते की पीड़ा कम हुई तो वह सो गया। तब मालवीय जी को शांति मिली और वह अपने कार्य के लिए रवाना हुए।
विचित्र आशीर्वाद
राजा संत के पास गया। संत ने राजा को आशीर्वाद दिया, 'सिपाही बन जाओ।' यह बात राजा को अच्छी नहीं लगी। दूसरे दिन राजा ने अपने राज्य के सबसे बड़े विद्वान को संत के पास भेजा। संत ने कहा, 'अज्ञानी बन जाओ।' विद्वान भी नाराज होकर लौट गए। इसी तरह जब नगर सेठ आया तो संत ने आशीर्वाद दिया, 'सेवक बन जाओ।' सेठ भी रुष्ट होकर वापस आ गया।
संत के आशीर्वाद की चर्चा राज दरबार में हुई। लोग कहने लगे कि यह संत नहीं, धूर्त है, तभी अनाप-शनाप आशीर्वाद देता है। किसी ने कहा कि संत जरूर मानसिक संतुलन खो चुके हैं। एक दिन राजा ने अपने सैनिक भेजकर संत को राजदरबार में बुलाया। राजा ने संत से कहा, 'आप ने आशीर्वाद देने के बहाने सभी लोगों का अपमान किया है, इसलिए आपको दंड दिया जाएगा।'
यह सुनकर संत हंस पड़े। राजा ने जब इसका कारण पूछा तो संत ने कहा, 'लगता है इस राज दरबार में सब मूर्ख हैं। मैंने जो कहा है, ठीक कहा है। मैंने राजा को कहा कि सिपाही बन जाओ क्योंकि राजा का कर्म है राज्य की सुरक्षा करना। सिपाही का काम भी रक्षा करना होता है। विद्वान को अज्ञानी बन जाने को कहा। इसका तात्पर्य यह है कि विद्वान ज्ञानी होता है। कहीं उसे अपने ज्ञान का अभिमान न हो जाए, इसीलिए मैंने उसे अज्ञानी बनने को कहा था। सेठ का कर्त्तव्य होता है, अपने धन से गरीबों की सेवा करना। इसीलिए मैंने उसे सेवक बनने का आशीर्वाद दिया।' यह सुनकर राजा ने संत से क्षमा मांगी।
संत के आशीर्वाद की चर्चा राज दरबार में हुई। लोग कहने लगे कि यह संत नहीं, धूर्त है, तभी अनाप-शनाप आशीर्वाद देता है। किसी ने कहा कि संत जरूर मानसिक संतुलन खो चुके हैं। एक दिन राजा ने अपने सैनिक भेजकर संत को राजदरबार में बुलाया। राजा ने संत से कहा, 'आप ने आशीर्वाद देने के बहाने सभी लोगों का अपमान किया है, इसलिए आपको दंड दिया जाएगा।'
यह सुनकर संत हंस पड़े। राजा ने जब इसका कारण पूछा तो संत ने कहा, 'लगता है इस राज दरबार में सब मूर्ख हैं। मैंने जो कहा है, ठीक कहा है। मैंने राजा को कहा कि सिपाही बन जाओ क्योंकि राजा का कर्म है राज्य की सुरक्षा करना। सिपाही का काम भी रक्षा करना होता है। विद्वान को अज्ञानी बन जाने को कहा। इसका तात्पर्य यह है कि विद्वान ज्ञानी होता है। कहीं उसे अपने ज्ञान का अभिमान न हो जाए, इसीलिए मैंने उसे अज्ञानी बनने को कहा था। सेठ का कर्त्तव्य होता है, अपने धन से गरीबों की सेवा करना। इसीलिए मैंने उसे सेवक बनने का आशीर्वाद दिया।' यह सुनकर राजा ने संत से क्षमा मांगी।
इंसानियत का कारखाना
एक बार एक सज्जन महान वैज्ञानिक आइंस्टीन के पास आए। उन्होंने कुछ देर तक उनसे इधर-उधर की चर्चा की फिर बोले, 'आज विज्ञान ने एक से बढ़कर एक सुख-सुविधाओं के साधन बनाने में सफलता पा ली है। अब पलक झपकते ही दूरियां तय हो जाती हैं, कुछ ही क्षणों में सुविधाओं की सारी चीजें हमारे पास आ जाती हैं, मगर फिर भी जाने क्या बात है कि समाज में अशांति, असंतोष, कलह व बुराई पहले की अपेक्षा ज्यादा पनप रही है। आखिर इसका क्या कारण है? सुविधाएं अधिक होने पर तो इंसान को प्रसन्न होना चाहिए। उसके मन को शांति व संतोष भी मिलना चाहिए।' उस सज्जन की बातें सुनकर आइंस्टीन बोले, 'मित्र, हमने शरीर को सुख पहुंचाने वाले तरह-तरह के साधनों को खोजने में अवश्य सफलता प्राप्त कर ली है किंतु जीवन में असली सुख-शांति मन-मस्तिष्क को आंतरिक आनंद प्राप्त होने से मिलती है। क्या हमने इंसानियत का ऐसा कोई कारखाना लगाया है, जिससे लोगों के अंदर मर रही संवेदनाओं को जीवित किया जा सके, उनके अंदर त्याग, ममता, करुणा, प्रेम आदि को उत्पन्न किया जा सके? क्या हमने ऐसा कोई कारखाना बनाया है जहां पर मन-मस्तिष्क को आनंद देने वाले साधनों का निर्माण किया जाता हो?'
आइंस्टीन की बात सुनकर वह सज्जन चकराए। उन्हें लगा शायद आइंस्टीन ऐसा कोई कारखाना लगाने के बारे में सोच रहे हों, तभी ऐसी बात कर रहे हैं। लेकिन उन्हें लगा कि यह तो मुमकिन नहीं है। इसलिए कुछ देर सोचने के बाद उन्होंने अपनी जिज्ञासा रखी, 'भला इंसानियत के कारखाने का निर्माण कैसे संभव है? इंसानी भावनाएं तो इंसान के अंदर पनपती हैं मशीन के अंदर नहीं।' उनकी बात सुनकर आइंस्टीन ने मुस्कराते हुए कहा, 'जनाब, बिल्कुल ठीक कहा आपने। अशांति-असंतोष दूर करने के लिए हमें लोगों में इंसानियत की भावना पैदा करने की ओर ध्यान देना होगा। भौतिक साधनों से सुख-शांति कदापि नहीं मिल सकती।' वह सज्जन आइंस्टीन की बात से सहमत हो गए।
आइंस्टीन की बात सुनकर वह सज्जन चकराए। उन्हें लगा शायद आइंस्टीन ऐसा कोई कारखाना लगाने के बारे में सोच रहे हों, तभी ऐसी बात कर रहे हैं। लेकिन उन्हें लगा कि यह तो मुमकिन नहीं है। इसलिए कुछ देर सोचने के बाद उन्होंने अपनी जिज्ञासा रखी, 'भला इंसानियत के कारखाने का निर्माण कैसे संभव है? इंसानी भावनाएं तो इंसान के अंदर पनपती हैं मशीन के अंदर नहीं।' उनकी बात सुनकर आइंस्टीन ने मुस्कराते हुए कहा, 'जनाब, बिल्कुल ठीक कहा आपने। अशांति-असंतोष दूर करने के लिए हमें लोगों में इंसानियत की भावना पैदा करने की ओर ध्यान देना होगा। भौतिक साधनों से सुख-शांति कदापि नहीं मिल सकती।' वह सज्जन आइंस्टीन की बात से सहमत हो गए।
शिष्यों की परीक्षा
एक गुरु के दो शिष्य थे। दोनों गुरु के पास रहकर शास्त्रों की शिक्षा ग्रहण करते थे। एक दिन गुरु ने उनकी परीक्षा लेने का निश्चय किया। उन्होंने एक शिष्य को बुलाकर पूछा, 'बताओ, यह जगत कैसा है?' शिष्य ने कहा, 'गुरुदेव, यह तो बहुत बुरा है। चारों तरफ अंधकार ही अंधकार है। आप देखें, दिन एक होता है और रातें दो। पहले रात थी। अंधेरा ही अंधेरा छाया था। फिर दिन आया और उजाला हुआ। लेकिन पुन: रात आ गई अंधेरा छा गया। एक बार उजाला, दो बार अंधेरा। अंधेरा अधिक, प्रकाश कम। यह है जगत।'
गुरु ने उस शिष्य की बात सुनने के बाद दूसरे शिष्य से भी यही प्रश्न पूछा। दूसरा शिष्य बोला, 'गुरुदेव, यह जगत बहुत ही अच्छा है। यहां चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश है। रात बीती उजाला हुआ। सर्वत्र प्रकाश फैल गया। रोशनी आती है तो अंधकार दूर हो जाता है। वह सबकी मुंदी हुई आंखों को खोल देता है, यथार्थ को प्रकट कर देता है। कितना सुंदर और लुभावना है यह जगत कि जिसमें इतना प्रकाश है। देखता हूं, दिन आया, बीता। रात आई, बीती। फिर दिन आ गया। इस प्रकार दो दिनों के बीच एक रात। प्रकाश अधिक, अंधकार कम।'
गुरु ने फिर दोनों शिष्यों को बुलाकर कहा, 'यह जगत अपने आप में कुछ नहीं है। यह वैसा ही दिखता है जैसा हम इसे देखते हैं।' उन्होंने पहले शिष्य को दूसरे शिष्य की बात बताई और कहा, 'अगर हम इसे सकारात्मक दृष्टि से देखेंगे तो यह हमें बहुत सुखद लगेगा। इसलिए तुम अपना दृष्टिकोण सकारात्मक बनाओ।'
गुरु ने उस शिष्य की बात सुनने के बाद दूसरे शिष्य से भी यही प्रश्न पूछा। दूसरा शिष्य बोला, 'गुरुदेव, यह जगत बहुत ही अच्छा है। यहां चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश है। रात बीती उजाला हुआ। सर्वत्र प्रकाश फैल गया। रोशनी आती है तो अंधकार दूर हो जाता है। वह सबकी मुंदी हुई आंखों को खोल देता है, यथार्थ को प्रकट कर देता है। कितना सुंदर और लुभावना है यह जगत कि जिसमें इतना प्रकाश है। देखता हूं, दिन आया, बीता। रात आई, बीती। फिर दिन आ गया। इस प्रकार दो दिनों के बीच एक रात। प्रकाश अधिक, अंधकार कम।'
गुरु ने फिर दोनों शिष्यों को बुलाकर कहा, 'यह जगत अपने आप में कुछ नहीं है। यह वैसा ही दिखता है जैसा हम इसे देखते हैं।' उन्होंने पहले शिष्य को दूसरे शिष्य की बात बताई और कहा, 'अगर हम इसे सकारात्मक दृष्टि से देखेंगे तो यह हमें बहुत सुखद लगेगा। इसलिए तुम अपना दृष्टिकोण सकारात्मक बनाओ।'
प्रार्थना के बीच में
एक सेठ एक साधु से मिलने आया। साधु को प्रणाम करके उसने कहा, 'बाबा, मैं प्रार्थना करना चाहता हूं, लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद नहीं कर पाता। जब भी मैं ध्यान लगाने की कोशिश करता हूं तभी मेरे आगे दुनियावी चीजें आ खड़ी होती हैं। धन कमाने और पारिवारिक तनाव के बारे में सोचने लग जाता हूं। आप ही बताइए मुझे प्रार्थना में मन लगाने के लिए क्या करना चाहिए?' यह सुनकर साधु महाराज सेठ को एक ऐसे कमरे में ले गए जिसकी खिड़कियों में शीशे लगे हुए थे। साधु ने सेठ को कांच के पार बाहर का नजारा दिखाया। शीशों से पेड़, उस पर चहकते पक्षी व दूसरी कई चीजें नजर आ रही थीं। यह देखकर सेठ प्रसन्न हो गया। उसके बाद साधु उसे एक दूसरे कमरे में लेकर गए। वहां कमरों की खिड़कियों पर चांदी की चमकीली परत लगी हुई थी। साधु बोले, 'सेठ जी, जरा देखो तो इस चांदी की चमकीली परत के पार आप क्या देख पाते हैं?'
सेठ चांदी की चमकीली परत के पास गया तो उसे अपने चेहरे के सिवाय और कुछ नहीं दिखा। बाहर के मनोरम दृश्य उस परत में खो गए थे। यह देखकर सेठ बोला, 'बाबा, यहां तो बाहर की दुनिया ही गायब है। चांदी की चमकीली परत में तो मुझे सिवाय अपने चेहरे के कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता जबकि कांच में से मुझे बाहर के मनोरम दृश्य दिखाई पड़ रहे थे।' सेठ की बात सुनकर साधु बोले, 'बिल्कुल सही कहा तुमने। इसी तरह तुम भी प्रार्थना करते समय अपने ऊपर चांदी की परत चढ़ाए रखते हो इसलिए उसमें तुम्हें अपनी शक्ल और अहं के अलावा कुछ और नजर नहीं आता। यदि तुम स्वयं को कांच की तरह पारदर्शी और स्वच्छ बनाओगे तो तुम्हारा प्रार्थना में ध्यान सहज ही लग जाएगा।' सेठ को अपनी गलती का अहसास हो गया और उसने उसी क्षण निश्चय किया कि अब वह बेमतलब की चीजों को प्रार्थना के बीच में नहीं आने देगा।
सेठ चांदी की चमकीली परत के पास गया तो उसे अपने चेहरे के सिवाय और कुछ नहीं दिखा। बाहर के मनोरम दृश्य उस परत में खो गए थे। यह देखकर सेठ बोला, 'बाबा, यहां तो बाहर की दुनिया ही गायब है। चांदी की चमकीली परत में तो मुझे सिवाय अपने चेहरे के कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता जबकि कांच में से मुझे बाहर के मनोरम दृश्य दिखाई पड़ रहे थे।' सेठ की बात सुनकर साधु बोले, 'बिल्कुल सही कहा तुमने। इसी तरह तुम भी प्रार्थना करते समय अपने ऊपर चांदी की परत चढ़ाए रखते हो इसलिए उसमें तुम्हें अपनी शक्ल और अहं के अलावा कुछ और नजर नहीं आता। यदि तुम स्वयं को कांच की तरह पारदर्शी और स्वच्छ बनाओगे तो तुम्हारा प्रार्थना में ध्यान सहज ही लग जाएगा।' सेठ को अपनी गलती का अहसास हो गया और उसने उसी क्षण निश्चय किया कि अब वह बेमतलब की चीजों को प्रार्थना के बीच में नहीं आने देगा।
परोपकार की सीख
अरब के एक खलीफा बेहद ईमानदार और न्यायप्रिय थे। एक बार वह बीमार हो गए। उनका काफी इलाज कराया गया लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। अपना अंत समय जान खलीफा ने खजांची को बुलाया और उससे पूछा, 'बताओ, खलीफा बनने के बाद मेरी निजी संपत्ति कितनी बढ़ी है?' खजांची ने हिसाब लगाया और बोला, 'हुजूर, आपकी निजी संपत्ति में एक ऊंट, एक दुशाला और एक बकरी का इजाफा हुआ है।' खलीफा ने उन्हें गरीबों में बांट देने का हुक्म दिया। इसके बाद उन्हें यह भी पता चला कि उन्होंने राजकोष से पांच हजार दिरहम लिए थे।
इस पर वह बोले, 'मेरा घर बेचकर पांच हजार दिरहम खजाने में जमा कर दिए जाएं और जो बचें उन्हें गरीब लोगों व अनाथ बच्चों में बांट दिया जाए।' इसके बाद वह अपने आसपास खड़े सभी लोगों से बोले, 'मेरी आखिरी यात्रा में सिर्फ तीन कपड़े मेरे जिस्म पर हों, जिनमें से दो तो इस वक्त मेरे शरीर पर हैं ही। तीसरा कपड़ा खरीद कर मुझ पर डाल दिया जाए।' यह सुनकर उनके कुछ मित्र बोले, 'हम तीनों नए कपड़े खरीद ही सकते हैं और फिर अंतिम यात्रा में तो नए कपड़े लिए जाने चाहिए, भला पुरानों से काम क्यों चलाया जाए?' उन मित्रों की बात सुनकर खलीफा बोले, 'अरे भाई, क्या तुम इतना भी नहीं जानते कि धरती पर नए कपड़ों की जरूरत मुर्दों के बजाय जिंदा लोगों को ज्यादा है। आप लोग कृपया जिंदा लोगों को ही नए कपड़े देने का प्रयास करें।' यह सुनकर सभी लोग खलीफा के प्रति श्रद्धा से भर उठे।
इस पर वह बोले, 'मेरा घर बेचकर पांच हजार दिरहम खजाने में जमा कर दिए जाएं और जो बचें उन्हें गरीब लोगों व अनाथ बच्चों में बांट दिया जाए।' इसके बाद वह अपने आसपास खड़े सभी लोगों से बोले, 'मेरी आखिरी यात्रा में सिर्फ तीन कपड़े मेरे जिस्म पर हों, जिनमें से दो तो इस वक्त मेरे शरीर पर हैं ही। तीसरा कपड़ा खरीद कर मुझ पर डाल दिया जाए।' यह सुनकर उनके कुछ मित्र बोले, 'हम तीनों नए कपड़े खरीद ही सकते हैं और फिर अंतिम यात्रा में तो नए कपड़े लिए जाने चाहिए, भला पुरानों से काम क्यों चलाया जाए?' उन मित्रों की बात सुनकर खलीफा बोले, 'अरे भाई, क्या तुम इतना भी नहीं जानते कि धरती पर नए कपड़ों की जरूरत मुर्दों के बजाय जिंदा लोगों को ज्यादा है। आप लोग कृपया जिंदा लोगों को ही नए कपड़े देने का प्रयास करें।' यह सुनकर सभी लोग खलीफा के प्रति श्रद्धा से भर उठे।
मां और शिक्षक
एक गरीब मां चाहती थी कि उसका बेटा पियानो सीख कर एक बड़ा कलाकार बने। वह उसे हर रोज संगीत शिक्षक के पास ले जाती, किंतु बच्चा चाह कर भी सीख नहीं पाता। सिखाने वाले शिक्षक काफी प्रसिद्ध थे। वे भी बच्चे को सिखाने की कोशिश करते, पर कई बार झल्ला कर मना कर देते। फिर भी मां हर रोज उसेले कर आती और पूरे क्लास के दौरान बाहर बैठी रहती। एक दिन मास्टर ने कहा कि आपका बेटा नहीं सीख सकता, इसे ले जाओ। यह तो मेरी भी बदनामी करा देगा कि किसने सिखाया है, जो इतना बेसुरा बजाता है। वह लड़का मां के साथ वापस चला गया और फिर दोबारा क्लास के लिए नहीं आया। कुछ समय बाद स्कूल के वार्षिक उत्सव का आयोजन हुआ, जिसमें पुराने छात्र भी आमंत्रित किए गए।
समारोह में वह बालक भी आया। उसने मैले- कुचले कपड़े पहन रखे थे। टीचर ने उसे देखा, तो उन्हें दया आ गई। उन्होंने कहा कि आज तुम्हें भी बजाने का मौका दूंगा, लेकिन जरा बाद में। वह लड़का पीछे जाकर बैठ गया। काफी बच्चे आए और उन्होंने बहुत अच्छा बजाया। आखिर में इसकी बारी आई। लेकिन उसने इतना अच्छा पियानो बजाया कि सभी मंत्रमुग्ध हो गए। टीचर ने जा कर उसे गले लगा लिया। फिर पूछा, इतना अच्छा कैसे सीखा, तुम तो बिल्कुल नहीं बजा पाते थे। लड़के ने बताया, मेरी मां चाहती थी कि मैं अच्छा पियानो बजाना सीखूं, किंतु उन्हें कैंसर था। इसकी वजह से वह सुन नहीं सकती थीं। अब वह सुन सकती है। मैंने उसी को सुनाने के लिए बजाया था। संगीत शिक्षक श्रोताओं की ओर देखने लगा, क्या वो आई हैं? कहां बैठी हैं?
बच्चे ने धीरे से कहा, वे जिंदगी की इस लड़ाई में आज हार गईं। लेकिन स्वर्ग से शायद वे मेरा पियानो सुन सकें। सुन कर सबकी आंखें भींग गईं। और टीचर ने उस बच्चे से माफी मांगी। सच्चा शिक्षक वह नहीं, मां थी जिसके पास इतना धैर्य था।
समारोह में वह बालक भी आया। उसने मैले- कुचले कपड़े पहन रखे थे। टीचर ने उसे देखा, तो उन्हें दया आ गई। उन्होंने कहा कि आज तुम्हें भी बजाने का मौका दूंगा, लेकिन जरा बाद में। वह लड़का पीछे जाकर बैठ गया। काफी बच्चे आए और उन्होंने बहुत अच्छा बजाया। आखिर में इसकी बारी आई। लेकिन उसने इतना अच्छा पियानो बजाया कि सभी मंत्रमुग्ध हो गए। टीचर ने जा कर उसे गले लगा लिया। फिर पूछा, इतना अच्छा कैसे सीखा, तुम तो बिल्कुल नहीं बजा पाते थे। लड़के ने बताया, मेरी मां चाहती थी कि मैं अच्छा पियानो बजाना सीखूं, किंतु उन्हें कैंसर था। इसकी वजह से वह सुन नहीं सकती थीं। अब वह सुन सकती है। मैंने उसी को सुनाने के लिए बजाया था। संगीत शिक्षक श्रोताओं की ओर देखने लगा, क्या वो आई हैं? कहां बैठी हैं?
बच्चे ने धीरे से कहा, वे जिंदगी की इस लड़ाई में आज हार गईं। लेकिन स्वर्ग से शायद वे मेरा पियानो सुन सकें। सुन कर सबकी आंखें भींग गईं। और टीचर ने उस बच्चे से माफी मांगी। सच्चा शिक्षक वह नहीं, मां थी जिसके पास इतना धैर्य था।
क्रोध ही राक्षस
एक बार कृष्ण, बलराम और सात्यकि एक घने जंगल में पहुंचे। वहां रात हो गई, इसलिए तीनों ने जंगल में ही रात बिताने का निर्णय लिया। जंगल बहुत घना और खतरनाक था। उसमें अनेक हिंसक जानवर रहते थे। इसलिए तय किया गया कि सब मिल कर बारी- बारी से पहरा देंगे। सबसे पहले सात्यकि की बारी आई, रात के पहले पहर में वे जग कर निगरानी करने लगे। कृष्ण और बलराम सोने चले गए।
उसी समय एक भयानक राक्षस आया और सात्यकि पर आक्रमण कर दिया। सात्यकि बहुत बलवान थे। राक्षस के आक्रमण से उन्हें बड़ा गुस्सा आया। क्रोध में आ कर उन्होंने भी पूरे बल के साथ उस राक्षस पर आक्रमण कर दिया। मगर सात्यकि को जितना अधिक क्रोध आता, उस राक्षस का आकार उतना ही बड़ा हो जाता। कुछ देर के बाद राक्षस अदृश्य हो गया। दूसरे पहर में बलराम पहरा देने उठे।
जब कृष्ण और सात्यकि सो गए तो बलराम के साथ भी वैसा ही हुआ, जैसा सात्यकि के साथ हुआ था। तीसरे पहर में कृष्ण पहरा दे रहे थे। राक्षस फिर आया। कृष्ण हंसते-हंसते उसका मुकाबला करने लगे। उन्हें उस पर क्रोध नहीं आया। राक्षस जितनी बार आक्रमण करता, कृष्ण उतनी बार मुस्कराते और उसके हमले का जवाब देते।
फिर आश्चर्यजनक बात हुई। कृष्ण जितना मुस्कराते, राक्षस का आकार उतना ही छोटा हो जाता। धीरे- धीरे वह छोटा होकर मच्छर के बराबर हो गया। कृष्ण ने उसे पकड़ कर अपने दुपट्टे में बांध लिया। सुबह हुई तो बलराम और सात्यकि को घायल देख कर कृष्ण ने पूछा, यह सब कैसे हुआ। तुम दोनों तो बहुत शक्तिशाली हो, तुम्हें किसने घायल कर दिया? दोनों ने रात की घटना बताई। कृष्ण ने दुपट्टे को खोल कर वह मच्छर दिखाते हुए कहा, यह रहा तुम्हारा राक्षस।
सत्य यह है कि क्रोध ही राक्षस है। जितना क्रोध करोगे, राक्षस उतना ही शक्तिशाली होता जाएगा और तुम्हें नुकसान पहुंचाएगा। असल में अपने आप में राक्षस कुछ नहीं है।
उसी समय एक भयानक राक्षस आया और सात्यकि पर आक्रमण कर दिया। सात्यकि बहुत बलवान थे। राक्षस के आक्रमण से उन्हें बड़ा गुस्सा आया। क्रोध में आ कर उन्होंने भी पूरे बल के साथ उस राक्षस पर आक्रमण कर दिया। मगर सात्यकि को जितना अधिक क्रोध आता, उस राक्षस का आकार उतना ही बड़ा हो जाता। कुछ देर के बाद राक्षस अदृश्य हो गया। दूसरे पहर में बलराम पहरा देने उठे।
जब कृष्ण और सात्यकि सो गए तो बलराम के साथ भी वैसा ही हुआ, जैसा सात्यकि के साथ हुआ था। तीसरे पहर में कृष्ण पहरा दे रहे थे। राक्षस फिर आया। कृष्ण हंसते-हंसते उसका मुकाबला करने लगे। उन्हें उस पर क्रोध नहीं आया। राक्षस जितनी बार आक्रमण करता, कृष्ण उतनी बार मुस्कराते और उसके हमले का जवाब देते।
फिर आश्चर्यजनक बात हुई। कृष्ण जितना मुस्कराते, राक्षस का आकार उतना ही छोटा हो जाता। धीरे- धीरे वह छोटा होकर मच्छर के बराबर हो गया। कृष्ण ने उसे पकड़ कर अपने दुपट्टे में बांध लिया। सुबह हुई तो बलराम और सात्यकि को घायल देख कर कृष्ण ने पूछा, यह सब कैसे हुआ। तुम दोनों तो बहुत शक्तिशाली हो, तुम्हें किसने घायल कर दिया? दोनों ने रात की घटना बताई। कृष्ण ने दुपट्टे को खोल कर वह मच्छर दिखाते हुए कहा, यह रहा तुम्हारा राक्षस।
सत्य यह है कि क्रोध ही राक्षस है। जितना क्रोध करोगे, राक्षस उतना ही शक्तिशाली होता जाएगा और तुम्हें नुकसान पहुंचाएगा। असल में अपने आप में राक्षस कुछ नहीं है।
दान का महत्व
धनीराम नामक एक सेठ बेहद कंजूस था। वह भिखारी तक को कभी एक पैसा नहीं देता था। उसकी इस आदत के कारण लोग उसे नापसंद करते थे। सेठ जिससे भी बात करने की कोशिश करता, वही उससे दूर चला जाता। उसे लगता कि शायद लोग उसकी धन-दौलत से जलते हैं, इसलिए उससे बातें करना पसंद नहीं करते। एक दिन मंदिर के निर्माण कार्य के लिए सभी से चंदा वसूला जा रहा था। न जाने उस दिन धनीराम के मन में क्या आया कि उसने रुपयों से भरी थैली पुजारी को दे दी। यह देखकर वहां उपस्थित सभी लोग हैरान रह गए। उस दिन के बाद से धनीराम जहां भी निकलता, लोग उसका हालचाल पूछते और आदर देते।
यह देखकर एक दिन सेठ फिर पुजारी के पास पहुंचा और बोला, 'पुजारी जी, देखा लोगों में धन का कितना मोह है। पहले वे मुझसे सीधे मुंह बात नहीं करते थे किंतु उस दिन मैंने रुपयों से भरी थैली क्या दी कि अब सब मुझसे बात करने को आतुर रहते हैं। दौलत देखते ही सब बदल गए।' इस पर पुजारी ने मुस्कराते हुए कहा, 'सेठ जी, आपका सोचना गलत है। लोग आपका धन देखकर नहीं बदल गए हैं। उन्हें यह लगने लगा है कि आप बदल गए हैं। आपके भीतर दान की भावना आ गई है। धन तो आपके पास पहले भी इतना ही था किंतु आपके अंदर दान करने की भावना नहीं थी। वास्तव में यह महत्व दान का है।' यह सुनकर धनीराम दंग रह गया। उसने संकल्प किया कि अब वह हर जरूरतमंद की मदद करेगा।
यह देखकर एक दिन सेठ फिर पुजारी के पास पहुंचा और बोला, 'पुजारी जी, देखा लोगों में धन का कितना मोह है। पहले वे मुझसे सीधे मुंह बात नहीं करते थे किंतु उस दिन मैंने रुपयों से भरी थैली क्या दी कि अब सब मुझसे बात करने को आतुर रहते हैं। दौलत देखते ही सब बदल गए।' इस पर पुजारी ने मुस्कराते हुए कहा, 'सेठ जी, आपका सोचना गलत है। लोग आपका धन देखकर नहीं बदल गए हैं। उन्हें यह लगने लगा है कि आप बदल गए हैं। आपके भीतर दान की भावना आ गई है। धन तो आपके पास पहले भी इतना ही था किंतु आपके अंदर दान करने की भावना नहीं थी। वास्तव में यह महत्व दान का है।' यह सुनकर धनीराम दंग रह गया। उसने संकल्प किया कि अब वह हर जरूरतमंद की मदद करेगा।
सेवा और धर्म
एक बार गांधीजी सर्वधर्म सम्मेलन में भाग लेने काशी आए। वहां कई विद्वान और संत भी आए हुए थे। उन सबने गांधीजी की चर्चा सुन रखी थी और उनसे मिलने को बेहद उत्सुक थे। वे उनसे अनौपचारिक बातचीत में उनके निजी जीवन के कई पहलुओं को जानना चाहते थे। सम्मेलन खत्म होने के बाद एक संत ने गांधीजी से पूछा , ' आप कौन सा धर्म मानते हैं और भारत के भावी धर्म का क्या स्वरूप होगा ?' गांधीजी ने कहा , ' सेवा करना ही मेरा धर्म है और मेरा मानना है कि आप लोगों को भी इस धर्म को अपनाना चाहिए। ' संत ने फिर पूछा , ' मगर सेवा तो सभी करते हैं। तो क्या यह मान लिया जाए कि पूजा - पाठ , धर्म - कर्म सब मिथ्या है।
इसको छोड़ देना चाहिए। ' गांधी जी ने कहा , ' मेरा मतलब यह नहीं कि पूजा पाठ छोड़ दिए जाए। मन की शांति के लिए यह सब करना भी जरूरी है। पर यदि मेरे लिए लेटे - लेटे चरखा चलाना संभव हो और मुझे लगे कि इससे ईश्वर पर मेरा चित्त एकाग्र होने में मदद मिलेगी तो मैं जरूर माला छोड़ कर चरखा चलाने लगूंगा। चरखा चलाने की शक्ति मुझमें हो और मुझे यह चुनाव करना हो कि माला फेरूं या चरखा चलाऊं , तो जब तक देश में गरीबी और भुखमरी है , तब तक मेरा निर्णय निश्चित रूप से चरखे के पक्ष में होगा और उसी को मैं अपनी माला बना लूंगा।
चरखा , माला और राम नाम सब मेरे लिए एक ही हैं। वे सब एक ही उद्देश्य पूरा करते हैं। वह है मानव की सुरक्षा करना , अपनी रक्षा करना। मैं सेवा का पालन किए बिना अहिंसा का पालन नहीं कर सकता और अहिंसा धर्म का पालन किए बिना मैं सत्य को प्राप्त नहीं कर सकता। और आप तो मानते होंगे कि सत्य के सिवा दूसरा कोई धर्म भी नहीं है। ' सभी संतों ने गांधी जी के विचारों से सहमति जताई और उसी रास्ते पर चलने का संकल्प किया।
इसको छोड़ देना चाहिए। ' गांधी जी ने कहा , ' मेरा मतलब यह नहीं कि पूजा पाठ छोड़ दिए जाए। मन की शांति के लिए यह सब करना भी जरूरी है। पर यदि मेरे लिए लेटे - लेटे चरखा चलाना संभव हो और मुझे लगे कि इससे ईश्वर पर मेरा चित्त एकाग्र होने में मदद मिलेगी तो मैं जरूर माला छोड़ कर चरखा चलाने लगूंगा। चरखा चलाने की शक्ति मुझमें हो और मुझे यह चुनाव करना हो कि माला फेरूं या चरखा चलाऊं , तो जब तक देश में गरीबी और भुखमरी है , तब तक मेरा निर्णय निश्चित रूप से चरखे के पक्ष में होगा और उसी को मैं अपनी माला बना लूंगा।
चरखा , माला और राम नाम सब मेरे लिए एक ही हैं। वे सब एक ही उद्देश्य पूरा करते हैं। वह है मानव की सुरक्षा करना , अपनी रक्षा करना। मैं सेवा का पालन किए बिना अहिंसा का पालन नहीं कर सकता और अहिंसा धर्म का पालन किए बिना मैं सत्य को प्राप्त नहीं कर सकता। और आप तो मानते होंगे कि सत्य के सिवा दूसरा कोई धर्म भी नहीं है। ' सभी संतों ने गांधी जी के विचारों से सहमति जताई और उसी रास्ते पर चलने का संकल्प किया।
राजकोष की आय
सम्राट केतन को जब पता चला कि उनके देश की आर्थिक स्थिति दिन-प्रतिदिन बिगड़ती जा रही है तो वह चिंतित हो गए। उन्होंने एक दिन राजदरबार में सभी दरबारियों को बुलाया और इसका कारण बताने को कहा। दरबारियों में से कोई भी इसका ठोस कारण नहीं बता पाया। तभी एक नवयुवक वहां आया और बोला, 'महाराज, अगर आप अनुमति दें, तो मैं राजकोष की आय कम होने का कारण बता सकता हूं।' सम्राट ने उसे इसकी अनुमति दे दी। नवयुवक ने एक व्यक्ति से थोड़ी बर्फ लाने को कहा।
कुछ ही देर बाद वहां पर बर्फ आ गई। बर्फ हाथ में लेकर वह नवयुवक बोला, 'इस बर्फ को आप एक व्यक्ति के हाथ से दूसरे व्यक्ति के हाथ में देते जाइए।' नवयुवक की बात सुनकर वह बर्फ एक हाथ से दूसरे हाथ में जाती रही और धीरे-धीरे पिघलकर बहुत कम रह गई। यह देखकर वह नवयुवक बोला, 'महाराज, जिस तरह यह बर्फ अनेक हाथों में जाने के बाद अपने वास्तविक रूप से बहुत कम रह गई है, ठीक उसी प्रकार विकास कार्यों के लिए राजकोष से जारी राशि भी अनेक हाथों से होते हुए बहुत कम रह जाती है।
कुछ पैसे बीच में ही दबा लिए जाते हैं जिससे खेती और उत्पादन के कई कार्य शिथिल पड़ जाते हैं और प्रजा तथा राज्य की आय भी कम होती जाती है।' नवयुवक का आशय समझकर सम्राट ने उसे अपने सलाहकार के रूप में नियुक्त कर दिया और भ्रष्टाचारियों को कारागार में डाल दिया। उसके बाद देश की आर्थिक स्थिति फिर से मजबूत होने लगी और प्रजा खुशहाल हो गई।
कुछ ही देर बाद वहां पर बर्फ आ गई। बर्फ हाथ में लेकर वह नवयुवक बोला, 'इस बर्फ को आप एक व्यक्ति के हाथ से दूसरे व्यक्ति के हाथ में देते जाइए।' नवयुवक की बात सुनकर वह बर्फ एक हाथ से दूसरे हाथ में जाती रही और धीरे-धीरे पिघलकर बहुत कम रह गई। यह देखकर वह नवयुवक बोला, 'महाराज, जिस तरह यह बर्फ अनेक हाथों में जाने के बाद अपने वास्तविक रूप से बहुत कम रह गई है, ठीक उसी प्रकार विकास कार्यों के लिए राजकोष से जारी राशि भी अनेक हाथों से होते हुए बहुत कम रह जाती है।
कुछ पैसे बीच में ही दबा लिए जाते हैं जिससे खेती और उत्पादन के कई कार्य शिथिल पड़ जाते हैं और प्रजा तथा राज्य की आय भी कम होती जाती है।' नवयुवक का आशय समझकर सम्राट ने उसे अपने सलाहकार के रूप में नियुक्त कर दिया और भ्रष्टाचारियों को कारागार में डाल दिया। उसके बाद देश की आर्थिक स्थिति फिर से मजबूत होने लगी और प्रजा खुशहाल हो गई।
संकल्प की शक्ति
उन दिनों गांधीजी दक्षिण अफ्रीका में थे। वहां उनके कई ईसाई मित्र थे, जो बाइबल के जानकार थे। वे गांधीजी को अक्सर अपने धर्म के बारे में बताते रहते थे। एक दिन उनमें से एक ने कहा, 'हमने वेद, पुराण और रामायण के बारे में काफी सुना है मगर उनके बारे में कोई जानकारी नहीं है। आप कुछ बताएं।' गांधीजी ने कहा, 'हमारे ज्यादातर धर्म ग्रंथ संस्कृत में है और मुझे संस्कृत नहीं आती।'
ईसाई मित्र बोला, 'आप कैसे भारतीय हैं कि आप को अपनी संस्कृति के बारे में कोई ज्ञान ही नहीं है।' गांधीजी चुप रह गए। दूसरे दिन से उन्होंने दोस्तों से मिलना छोड़ दिया। उन्होंने तय कर लिया कि जब तक वह भारतीय संस्कृति और धर्मों का ज्ञान नहीं प्राप्त कर लेते तब तक किसी से नहीं मिलेंगे।
गांधीजी सुबह पंद्रह मिनट मुंह धोने और बीस मिनट स्नान करने में लगाते थे। उन्होंने इस समय का उपयोग करने की सोची। वह जहां दातुन और स्नान करते थे वहां की दीवार पर गीता के श्लोक लिख कर चिपका देते और उसे रटते। याद होने पर दूसरा श्लोक चिपकाते। इस तरह एक महीने में उन्हें तेरह अध्याय याद हो गए।
उसके साथ ही उन्होंने विवेकानंद की पुस्तकों और पतंजलि के योगदर्शन का भी अध्ययन किया। फिर एक दिन वह अपने मित्रों की मंडली में पहुंचे और धाराप्रवाह श्लोक पढ़ने लगे। इस पर उनके ईसाई मित्र ने कहा, 'आप तो कहते थे कि आपको संस्कृत नहीं आती।' गांधीजी बोले, 'यह सब मैंने इच्छाशक्ति से हासिल किया है। किसी में इच्छाशक्ति हो तो कुछ भी असंभव नहीं।'
ईसाई मित्र बोला, 'आप कैसे भारतीय हैं कि आप को अपनी संस्कृति के बारे में कोई ज्ञान ही नहीं है।' गांधीजी चुप रह गए। दूसरे दिन से उन्होंने दोस्तों से मिलना छोड़ दिया। उन्होंने तय कर लिया कि जब तक वह भारतीय संस्कृति और धर्मों का ज्ञान नहीं प्राप्त कर लेते तब तक किसी से नहीं मिलेंगे।
गांधीजी सुबह पंद्रह मिनट मुंह धोने और बीस मिनट स्नान करने में लगाते थे। उन्होंने इस समय का उपयोग करने की सोची। वह जहां दातुन और स्नान करते थे वहां की दीवार पर गीता के श्लोक लिख कर चिपका देते और उसे रटते। याद होने पर दूसरा श्लोक चिपकाते। इस तरह एक महीने में उन्हें तेरह अध्याय याद हो गए।
उसके साथ ही उन्होंने विवेकानंद की पुस्तकों और पतंजलि के योगदर्शन का भी अध्ययन किया। फिर एक दिन वह अपने मित्रों की मंडली में पहुंचे और धाराप्रवाह श्लोक पढ़ने लगे। इस पर उनके ईसाई मित्र ने कहा, 'आप तो कहते थे कि आपको संस्कृत नहीं आती।' गांधीजी बोले, 'यह सब मैंने इच्छाशक्ति से हासिल किया है। किसी में इच्छाशक्ति हो तो कुछ भी असंभव नहीं।'
Thursday, October 20, 2011
वजीर की तलाश
एक बादशाह थे, जिनका साम्राज्य दूर-दूर तक फैला हुआ था। उन्हें नए वजीर की तलाश थी। अनेक व्यक्ति वजीर बनने को आतुर थे। एक पद व कई उम्मीदवारों को देखकर बादशाह हैरत में पड़ गए कि सही वजीर का चुनाव कैसे हो? इसके लिए उन्होंने सभी उम्मीदवारों की कठिन से कठिन परीक्षा ली। तीन लोग परीक्षाओं में एकदम खरे उतरे। अब उन तीनों में से किसी एक को चुनना था।
बादशाह ने सोचा कि उन तीनों को साम्राज्य के विभिन्न सूबों में ले जाया जाए और देखा जाए कि उनका प्रजा के प्रति क्या रवैया है। बादशाह ने गौर किया कि अली नामक उम्मीदवार बड़ी कुशलता से जनता का सामना कर रहा था और उनकी परेशानियों को सुनकर उसी समय समाधान करने का प्रयत्न भी कर रहा था। उसके काम करने के तरीके से बादशाह को बेहद प्रसन्नता हुई और उन्होंने उसे ही वजीर का पद देने का मन बना लिया।
प्रजा से मिलते हुए वे आगे बढ़े तो एक जगह उन्हें कुछ गरीब बच्चे खेलते हुए नजर आए। बादशाह को देखते ही बालक उन से लिपट गए। वे धूल-मिट्टी में सने हुए थे। उनमें से एक बच्चे को बादशाह ने गोद में उठा लिया। अली को उनसे घृणा सी हुई और वह दूर ही खड़ा रहा। बादशाह ने यह देखा तो उन्होंने अली से पूछ ही लिया कि तुम दूर-दूर क्यों खड़े हो? इस पर अली बोला, 'जहांपनाह, यहां खेल रहे सभी बच्चे गंदे हैं और इनके कपड़ों से बदबू भी आ रही है। जाने कैसे आप इसे गोद में उठाए हुए हैं।'
अली की बात सुनकर बादशाह दंग रह गए और उन्होंने तुरंत अपना फैसला सुनाते हुए कहा, 'तुम हमारे वजीर किसी भी सूरत में नहीं बन सकते। मैं चाहता हूं कि मेरा वजीर वो हो जिसके भीतर दूसरों के लिए हमदर्दी हो, सच्चा प्यार हो। जो लोगों का दिल जीत सके।' इसके बाद उन्होंने अन्य दो उम्मीदवारों में से एक को वजीर बना दिया।
बादशाह ने सोचा कि उन तीनों को साम्राज्य के विभिन्न सूबों में ले जाया जाए और देखा जाए कि उनका प्रजा के प्रति क्या रवैया है। बादशाह ने गौर किया कि अली नामक उम्मीदवार बड़ी कुशलता से जनता का सामना कर रहा था और उनकी परेशानियों को सुनकर उसी समय समाधान करने का प्रयत्न भी कर रहा था। उसके काम करने के तरीके से बादशाह को बेहद प्रसन्नता हुई और उन्होंने उसे ही वजीर का पद देने का मन बना लिया।
प्रजा से मिलते हुए वे आगे बढ़े तो एक जगह उन्हें कुछ गरीब बच्चे खेलते हुए नजर आए। बादशाह को देखते ही बालक उन से लिपट गए। वे धूल-मिट्टी में सने हुए थे। उनमें से एक बच्चे को बादशाह ने गोद में उठा लिया। अली को उनसे घृणा सी हुई और वह दूर ही खड़ा रहा। बादशाह ने यह देखा तो उन्होंने अली से पूछ ही लिया कि तुम दूर-दूर क्यों खड़े हो? इस पर अली बोला, 'जहांपनाह, यहां खेल रहे सभी बच्चे गंदे हैं और इनके कपड़ों से बदबू भी आ रही है। जाने कैसे आप इसे गोद में उठाए हुए हैं।'
अली की बात सुनकर बादशाह दंग रह गए और उन्होंने तुरंत अपना फैसला सुनाते हुए कहा, 'तुम हमारे वजीर किसी भी सूरत में नहीं बन सकते। मैं चाहता हूं कि मेरा वजीर वो हो जिसके भीतर दूसरों के लिए हमदर्दी हो, सच्चा प्यार हो। जो लोगों का दिल जीत सके।' इसके बाद उन्होंने अन्य दो उम्मीदवारों में से एक को वजीर बना दिया।
उधार की आदत
एक गांव में गुरु अपने शिष्य के साथ स्कूल जा रहे थे। थोड़ी दूर जाने के बाद अचानक वह रुक गए और पगडंडी का रास्ता छोड़ कर खेत के बीच से जाने लगे। उन्हें ऐसा करते देख शिष्य ने पूछा, 'क्या हुआ गुरु जी?' गुरु बोले, 'बेटा, सामने से जो आदमी आ रहा है, उसके कारण मुझे रास्ता बदलना पड़ा।' वह रास्ता बहुत लंबा और खराब था। किसी तरह गुरु और शिष्य काफी देर से स्कूल पहुंचे।
स्कूल पहुंचने पर शिष्य ने पूछा, 'गुरु जी, क्या आप उस आदमी से डरते हो, इसलिए रास्ता बदल दिया?' गुरु ने कहा, 'नहीं, मैंने डर कर रास्ता नहीं बदला। वह व्यक्ति तो बहुत नेक दिल का है। मगर उसमें एक कमी है। उसकी जितनी आमदनी है उससे ज्यादा उसका खर्च है। इसलिए वह परेशान रहता है और लोगों से झूठ बोल कर उधार लेता रहता है।
कई साल पहले उसने मुझसे भी यह कह कर कुछ रुपये उधार लिए थे कि दो दिनों में वापस कर दूंगा। मगर आज तक नहीं लौटाया और लौटा भी नहीं पाएगा। मगर जब कभी अचानक उससे सामना होता है तो आदतन वह झूठ बोलता है और कहता है, गुरु जी, बस दो दिन की और मोहलत दे दीजिए। आज भी वह मुझसे मिलता तो यही कहता। मैं उसकी और कुछ मदद तो नहीं कर सकता, लेकिन उसे झूठ बोलने से तो रोक ही सकता हूं। रास्ता बदलने से तकलीफ तो हुई मगर मेरे कारण उसे एक बार फिर झूठ तो नहीं बोलना पड़ा। हो सकता है धीरे-धीरे उसमें पूरी तरह सुधार हो जाए।'
स्कूल पहुंचने पर शिष्य ने पूछा, 'गुरु जी, क्या आप उस आदमी से डरते हो, इसलिए रास्ता बदल दिया?' गुरु ने कहा, 'नहीं, मैंने डर कर रास्ता नहीं बदला। वह व्यक्ति तो बहुत नेक दिल का है। मगर उसमें एक कमी है। उसकी जितनी आमदनी है उससे ज्यादा उसका खर्च है। इसलिए वह परेशान रहता है और लोगों से झूठ बोल कर उधार लेता रहता है।
कई साल पहले उसने मुझसे भी यह कह कर कुछ रुपये उधार लिए थे कि दो दिनों में वापस कर दूंगा। मगर आज तक नहीं लौटाया और लौटा भी नहीं पाएगा। मगर जब कभी अचानक उससे सामना होता है तो आदतन वह झूठ बोलता है और कहता है, गुरु जी, बस दो दिन की और मोहलत दे दीजिए। आज भी वह मुझसे मिलता तो यही कहता। मैं उसकी और कुछ मदद तो नहीं कर सकता, लेकिन उसे झूठ बोलने से तो रोक ही सकता हूं। रास्ता बदलने से तकलीफ तो हुई मगर मेरे कारण उसे एक बार फिर झूठ तो नहीं बोलना पड़ा। हो सकता है धीरे-धीरे उसमें पूरी तरह सुधार हो जाए।'
अमर फल की महिमा
यह बहुत पुरानी कथा है। एक बार चेन्नई के निवासी रामानुजम ने अपने पुत्र को कुछ रुपये देकर बाजार से फल खरीद कर लाने को कहा। उन्होंने पुत्र को बार-बार समझाया कि फल खरीदने में किन बातों का ध्यान रखना होगा। बेटे ने सहमति में सिर हिलाया और रुपये लेकर बाजार की ओर चल दिया। बाजार में फलों की कई दुकानें थीं। वह निर्णय नहीं कर पा रहा था कि कहां से फल खरीदे। कुछ देर बाद जब वह घर लौटा तो उसके पिता यह देखकर हैरान रह गए कि वह खाली हाथ ही आया है। रामानुजम ने उससे कहा, 'बेटे, मैंने तुम्हें फल खरीदने भेजा था, लेकिन तुम तो ऐसे ही चले आए। फल क्यों नहीं लाए?' पिता की बात सुनकर पुत्र बोला, 'पिताजी, मैं खाली हाथ नहीं आया बल्कि मैं तो अपने साथ अमर फल लेकर आया हूं।'
पुत्र की बात सुनकर रामानुजम आश्चर्य से बोले, 'बेटे, तुम्हें क्या हो गया है? तुम ऐसी अजीबोगरीब बातें क्यों कर रहे हो? यह अमर फल क्या होता है और यह दिख क्यों नहीं रहा?' इस पर पुत्र ने कहा, 'पिताजी, मैं फल खरीदने के लिए बाजार गया। वहां पर अच्छी से अच्छी दुकानें सजी हुई थीं। तभी मैंने पास ही एक वृद्ध को भूख से छटपटाते हुए देखा। उनका छटपटाना मुझसे नहीं देखा गया और मैंने उन्हें उन रुपयों से भोजन करा दिया। भोजन करने के बाद उस वृद्ध ने मुझे ढेरों आशीर्वाद दिए जिससे मेरे मन को काफी संतुष्टि हुई। अब आप ही बताइए कि उस वृद्ध का दिल से दिया गया आशीर्वाद क्या किसी अमर फल से कम है?' बेटे का जवाब सुनकर पिता ने अपने पुत्र को गले लगाते हुए कहा, 'बेटा, तेरी करुणा भावना ने मुझे हिलाकर रख दिया है। निश्चय ही एक दिन तू मानवता के हित में बहुत बड़े काम करेगा।' पिता की बात सच साबित हुई। वह बालक आगे चलकर दक्षिण भारत के महान संत रंगदास के नाम से विख्यात हुआ।
पुत्र की बात सुनकर रामानुजम आश्चर्य से बोले, 'बेटे, तुम्हें क्या हो गया है? तुम ऐसी अजीबोगरीब बातें क्यों कर रहे हो? यह अमर फल क्या होता है और यह दिख क्यों नहीं रहा?' इस पर पुत्र ने कहा, 'पिताजी, मैं फल खरीदने के लिए बाजार गया। वहां पर अच्छी से अच्छी दुकानें सजी हुई थीं। तभी मैंने पास ही एक वृद्ध को भूख से छटपटाते हुए देखा। उनका छटपटाना मुझसे नहीं देखा गया और मैंने उन्हें उन रुपयों से भोजन करा दिया। भोजन करने के बाद उस वृद्ध ने मुझे ढेरों आशीर्वाद दिए जिससे मेरे मन को काफी संतुष्टि हुई। अब आप ही बताइए कि उस वृद्ध का दिल से दिया गया आशीर्वाद क्या किसी अमर फल से कम है?' बेटे का जवाब सुनकर पिता ने अपने पुत्र को गले लगाते हुए कहा, 'बेटा, तेरी करुणा भावना ने मुझे हिलाकर रख दिया है। निश्चय ही एक दिन तू मानवता के हित में बहुत बड़े काम करेगा।' पिता की बात सच साबित हुई। वह बालक आगे चलकर दक्षिण भारत के महान संत रंगदास के नाम से विख्यात हुआ।
लालच का जाल
एक बार किसी संपन्न राज्य के राजा के पास एक साधु आए। राजा ने पूछा, 'आप की क्या सेवा करूं?' साधु बोले, 'महाराज, यह एक छोटा सा पात्र है, कृपया इसे भरवा दीजिए।' राजा बोला, 'महात्मा जी, इस छोटे से पात्र को अभी अमूल्य हीरे-जवाहरात व सोने-चांदी से भरवा देता हूं ताकि शेष जीवन आप को धन की जरूरत ही न पड़े।' राजा का आदेश पाते ही कोषाध्यक्ष ने उस पात्र को भरना शुरू कर दिया लेकिन वह भर ही नहीं पा रहा था। देखते-देखते सारा राजकोष खाली हो गया। राजा ने पूछा, 'महात्मा जी, यह बर्तन किस धातु का बना है। सारा खजाना खाली हो गया है लेकिन यह भर ही नहीं रहा।'
साधु बोले, 'यह मनुष्य की खोपड़ी की हड्डी से बना है। इस कपाल की लिप्सा कभी पूरी नहीं होती।' यह सुनते ही राजा चौंक पड़े और उन्होंने विनम्रतापूर्वक कहा, 'आप की बात सुन कर मेरी उत्सुकता बढ़ गई है। कृपया विस्तार से बताएं।' साधु ने समझाया, 'राजन, तृष्णा एक ऐसा गहरा घड़ा है जिसे संपूर्ण पृथ्वी के हीरों आदि से भी नहीं भरा जा सकता है। यह तृष्णा मनुष्य को बंदर की तरह नाच नचाती है, कुत्ते की भांति दर-दर भटकाती है, उल्लू के समान सूरज के प्रकाश में भी अंधा बना देती है और मछली की तरह लोभ में फंसा कर जीवन को संकट में डाल देती है। तृष्णा के अनेक रूपों का शब्दों में वर्णन करना मेरी सीमा से बाहर है।' यह सुनते ही अचानक राजा की नींद खुल गई। उसके सपने ने एक बड़ी सीख दी थी।
साधु बोले, 'यह मनुष्य की खोपड़ी की हड्डी से बना है। इस कपाल की लिप्सा कभी पूरी नहीं होती।' यह सुनते ही राजा चौंक पड़े और उन्होंने विनम्रतापूर्वक कहा, 'आप की बात सुन कर मेरी उत्सुकता बढ़ गई है। कृपया विस्तार से बताएं।' साधु ने समझाया, 'राजन, तृष्णा एक ऐसा गहरा घड़ा है जिसे संपूर्ण पृथ्वी के हीरों आदि से भी नहीं भरा जा सकता है। यह तृष्णा मनुष्य को बंदर की तरह नाच नचाती है, कुत्ते की भांति दर-दर भटकाती है, उल्लू के समान सूरज के प्रकाश में भी अंधा बना देती है और मछली की तरह लोभ में फंसा कर जीवन को संकट में डाल देती है। तृष्णा के अनेक रूपों का शब्दों में वर्णन करना मेरी सीमा से बाहर है।' यह सुनते ही अचानक राजा की नींद खुल गई। उसके सपने ने एक बड़ी सीख दी थी।
सेवा का सौभाग्य
एक बार ईश्वरचंद्र विद्यासागर अपने मित्र गिरीशचंद्र विद्यारत्न के साथ बंगाल के कालना नामक गांव जा रहे थे। रास्ते में उनकी नजर सड़क के किनारे लेटे एक मजदूर पर पड़ी। उसकी हालत से वे समझ गए कि वह संकट में है। वे उसके पास आए। पता चला कि उसे हैजा हो गया है। मजदूर की भारी गठरी एक ओर लुढ़की पड़ी थी। उसके मैले कपड़ों से दुर्गंध आ रही थी। उसकी दुर्दशा देखकर लोग उसकी ओर से मुंह फेरकर वहां से शीघ्रतापूर्वक चले जा रहे थे। बेचारा मजदूर उठने में भी असमर्थ था। मजदूर की स्थिति देख विद्यासागर का दिल पसीज गया। वह तत्काल उसकी सेवा में जुट गए और बोले, 'आज हमारा सौभाग्य है।' गिरीशचंद्र विद्यारत्न ने पूछा, 'कैसा सौभाग्य?'
विद्यासागर ने कहा, 'किसी दीन-दुखी की सेवा का अवसर प्राप्त हो, इससे बढ़कर सौभाग्य क्या होगा। यह बेचारा यहां रास्ते में पड़ा है। इसकी हालत भी गंभीर है, इसका कोई परिजन यहां होता तो क्या इसको इसी प्रकार पड़े रहने देता। हम दोनों इस समय इसके रिश्तेदार बन सकते है।' विद्यासागर के मित्र भी उन्हीं की तरह थे। वह भला कैसे पीछे रहते। वह भी विद्यासागर के साथ मजदूर की सेवा में जुट गए। विद्यासागर ने मजदूर को पीठ पर लादा, विद्यारत्न ने उसकी भारी गठरी सिर पर उठाई। दोनों कालना पहुंचे। उन्होंने वहां उसके रहने की व्यवस्था की और एक वैद्य को चिकित्सा के लिए बुलाया। वे खुद वहां रुककर दिन-रात उसकी जरूरतों का ख्याल रखने लगे। जब वह पूरी तरह स्वस्थ हो गया तब उन्होंने उसे कुछ पैसे देकर वहां से विदा किया।
विद्यासागर ने कहा, 'किसी दीन-दुखी की सेवा का अवसर प्राप्त हो, इससे बढ़कर सौभाग्य क्या होगा। यह बेचारा यहां रास्ते में पड़ा है। इसकी हालत भी गंभीर है, इसका कोई परिजन यहां होता तो क्या इसको इसी प्रकार पड़े रहने देता। हम दोनों इस समय इसके रिश्तेदार बन सकते है।' विद्यासागर के मित्र भी उन्हीं की तरह थे। वह भला कैसे पीछे रहते। वह भी विद्यासागर के साथ मजदूर की सेवा में जुट गए। विद्यासागर ने मजदूर को पीठ पर लादा, विद्यारत्न ने उसकी भारी गठरी सिर पर उठाई। दोनों कालना पहुंचे। उन्होंने वहां उसके रहने की व्यवस्था की और एक वैद्य को चिकित्सा के लिए बुलाया। वे खुद वहां रुककर दिन-रात उसकी जरूरतों का ख्याल रखने लगे। जब वह पूरी तरह स्वस्थ हो गया तब उन्होंने उसे कुछ पैसे देकर वहां से विदा किया।
सफलता का मंत्र
यह घटना इंडोनेशिया की है। एक परिवार में एक बच्चे ने स्कूल के लिए तैयार होने से मना कर दिया और कहा, 'आज से मैं कभी स्कूल नहीं जाऊंगा।' सभी हैरान हो गए। कुछ दिनों पहले ही उसका एक नए स्कूल में दाखिला कराया गया था। उसके पिता ने बड़े प्यार से स्कूल न जाने का कारण पूछा तो उसने कहा, 'इस स्कूल में सभी लड़के मेरा मजाक उड़ाते हैं।' पिता ने कहा, 'इसमें कौन सी नई बात है, कुछ समय बाद वे तुम से घुल-मिल जाएंगे और तुम्हारे दोस्त बन जाएंगे।' लेकिन लड़के ने अपने पिता की बात नहीं मानी और उसने किताबों को एक कोने में पटक दिया। पिता ने अपने एक मित्र को जब यह समस्या बताई तो वह मित्र उस लड़के को एक सोते के पास ले गए। उन्होंने एक बड़ा सा पत्थर सोते के बीच में फेंक दिया और कहा, 'यह पत्थर पानी के बहाव में रुकावट डाल देगा।' कुछ क्षणों के लिए पानी का वेग रुक गया, लेकिन फिर थोड़ी ही देर में वह अपनी गति से बहने लगा। वह पत्थर पानी में डूब गया।
यह देखकर वह सज्जन लड़के से बोले, 'बेटा, किसी भी प्रकार की रुकावट या बाधाओं से घबराना नहीं चाहिए। देखो, पानी भी रुकावट पर विजय पाकर पहले की तरह बह रहा है। फिर तुम तो एक मनुष्य हो। मनुष्य संसार में कितना कुछ कर सकता है।' लड़के ने इस बात को बहुत गहराई से समझा और अगले ही दिन से स्कूल जाना शुरू कर दिया। कुछ ही दिनों में स्कूल के काफी लड़कों से उसकी मित्रता हो गई। यह लड़का आगे चलकर अपने देश के स्वतंत्रता संग्राम का नेता बना। उसके स्कूल के कई दोस्त इस संग्राम में इस लड़के के अनुयायी भी बने। इस लड़के का नाम था- सुकर्णो। इंडोनेशिया को आजाद कराने में इनका योगदान महत्वपूर्ण था। वह इंडोनेशिया के राष्ट्रपति बने और उन्होंने अपने मुल्क को एक विकसित राष्ट्र बनाया।
यह देखकर वह सज्जन लड़के से बोले, 'बेटा, किसी भी प्रकार की रुकावट या बाधाओं से घबराना नहीं चाहिए। देखो, पानी भी रुकावट पर विजय पाकर पहले की तरह बह रहा है। फिर तुम तो एक मनुष्य हो। मनुष्य संसार में कितना कुछ कर सकता है।' लड़के ने इस बात को बहुत गहराई से समझा और अगले ही दिन से स्कूल जाना शुरू कर दिया। कुछ ही दिनों में स्कूल के काफी लड़कों से उसकी मित्रता हो गई। यह लड़का आगे चलकर अपने देश के स्वतंत्रता संग्राम का नेता बना। उसके स्कूल के कई दोस्त इस संग्राम में इस लड़के के अनुयायी भी बने। इस लड़के का नाम था- सुकर्णो। इंडोनेशिया को आजाद कराने में इनका योगदान महत्वपूर्ण था। वह इंडोनेशिया के राष्ट्रपति बने और उन्होंने अपने मुल्क को एक विकसित राष्ट्र बनाया।
शांति का रास्ता
एक बार एक सेठ स्वामी विवेकानंद से मिलने पहुंचा। उसने उन्हें एक थैला देते हुए कहा, 'स्वामी जी, इसमें सोने के एक हजार सिक्के हैं। मैं इसे आप के आश्रम के लिए दान दे रहा हूं।' विवेकानंद ने उससे पूछा, 'आप क्या करते हैं?' सेठ बोला, 'स्वामी जी, मैं कपड़े का आढ़ती हूं। मेरे पास सब कुछ है मगर शांति नहीं है। हर समय मैं बेचैन रहता हूं।' स्वामी जी ने थैला खोला और वहां उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति को एक- एक सिक्का देने लगे। यह देख सेठ परेशान होकर बोला, 'स्वामी जी, आप यह क्या कर रहे हैं? यह धन तो आप के आश्रम के लिए है।'
विवेकानंद ने कहा, 'अब इन सिक्कों से तुम्हें क्या मतलब है। अब ये तो तुम्हारे हैं नहीं। अब इसे मैं जैसे चाहूं खर्च करूं।' सेठ बोला, 'स्वामी जी, यह सब मेरा नहीं है मगर इस धन को अनावश्यक रूप से खर्च किए जाने पर मुझे दुख हो रहा है। मैं जानता होता कि आप ऐसा करेंगे तो मैं आप को देता ही नहीं।' विवेकानंद ने कहा, 'जब तुम दूसरे के धन को अपना समझ कर उसके बंधन से बंधे हो तो अपने धन के प्रति तुम्हारा मोह तो बहुत ज्यादा होगा। यह ठीक है कि तुम्हारा कर्म पैसे कमाना है मगर अपनी कमाई से तुम गरीबों की भलाई भी करोगे तो तुम्हारी बेचैनी अपने आप दूर हो जाएगी। साधु-संतों को दान देने से तुम्हें शांति नहीं मिलेगी।' यह सुन कर सेठ शर्मिंदा हो गया और उसने वचन दिया कि वह अपनी कमाई का पचीस प्रतिशत गरीबों की सेवा में खर्च करेगा।
विवेकानंद ने कहा, 'अब इन सिक्कों से तुम्हें क्या मतलब है। अब ये तो तुम्हारे हैं नहीं। अब इसे मैं जैसे चाहूं खर्च करूं।' सेठ बोला, 'स्वामी जी, यह सब मेरा नहीं है मगर इस धन को अनावश्यक रूप से खर्च किए जाने पर मुझे दुख हो रहा है। मैं जानता होता कि आप ऐसा करेंगे तो मैं आप को देता ही नहीं।' विवेकानंद ने कहा, 'जब तुम दूसरे के धन को अपना समझ कर उसके बंधन से बंधे हो तो अपने धन के प्रति तुम्हारा मोह तो बहुत ज्यादा होगा। यह ठीक है कि तुम्हारा कर्म पैसे कमाना है मगर अपनी कमाई से तुम गरीबों की भलाई भी करोगे तो तुम्हारी बेचैनी अपने आप दूर हो जाएगी। साधु-संतों को दान देने से तुम्हें शांति नहीं मिलेगी।' यह सुन कर सेठ शर्मिंदा हो गया और उसने वचन दिया कि वह अपनी कमाई का पचीस प्रतिशत गरीबों की सेवा में खर्च करेगा।
सच्चा कर्मयोगी
एक बार सेवाग्राम में गांधीजी से एक कार्यकर्ता ने पूछा, 'आप के जीवन पर किस व्यक्ति का प्रभाव सबसे अधिक पड़ा?' गांधीजी ने कहा, 'भाई रायचन्द्र, टाल्स्टाय और रस्किन से मैं बहुत प्रभावित हुआ हूं, मगर मेरे ऊपर सबसे ज्यादा प्रभाव भाई रायचन्द्र का ही पड़ा है।'
कार्यकर्ता ने पूछा, 'वह कैसे?' गांधीजी ने कहा, 'भाई रायचन्द्र का बहुत बड़ा व्यापार था। वह हीरे मोती की परख करते थे और लाखों का कारोबार करते थे।' कार्यकर्ता ने गांधीजी को आश्चर्य से देखा। उसे यह बात थोड़ी अटपटी लग रही थी कि गांधीजी आखिर एक व्यापारी से क्यों प्रभावित हुए। गांधीजी ने उसकी मनोदशा को भांपकर कहा, 'लेकिन वह साधारण कारोबारी नहीं थे। वह एक संत थे। उनकी गद्दी पर कोई और चीज हो या न हो, कोई धार्मिक पुस्तक अवश्य रखी होती थी। बगल में वह एक डायरी भी रखते थे। जब भी उन्हें फुरसत मिलती, वह पढ़ने लगते। पुस्तक में मन को छूने वाली कोई बात होती तो वह उसे डायरी में नोट कर लेते। जो व्यक्ति लाखों की लेन- देन की बात करके फौरन ज्ञान की पुस्तक पढ़ने लगे और आत्मज्ञान की बात लिखने लगे, वह व्यापारी नहीं बल्कि शुद्ध ज्ञानी कहा जाएगा। मेरे साथ उनका कोई स्वार्थ नहीं था। मगर जब भी मैं उनकी दुकान पर पहुंचता, वह धर्म चर्चा शुरू कर देते थे। उस समय मुझे धर्म चर्चा में रुचि नहीं थी फिर भी मैं भाई रायचन्द्र की बातों को ध्यान से सुनता था। इसके बाद मैं कई संत-महात्माओं से मिला, मगर किसी ने मुझे इतना प्रभावित नहीं किया। मुझसे लोग पूछते हैं कि आखिर रायचन्द्र में क्या खास बात है जिससे मैं इतना प्रभावित हुआ। मुझे उनके कर्मयोग ने प्रभावित किया।
आम धारणा यह है कि एक काम करते हुए दूसरा काम करना कठिन है। मगर रायचन्द्र को देख कर लगा कि मनुष्य सांसारिक जीवन जीते हुए भी संत और ज्ञानी हो सकता है। इसी कारण मुझे रायचन्द्र सच्चे कर्मयोगी नजर आए।'
कार्यकर्ता ने पूछा, 'वह कैसे?' गांधीजी ने कहा, 'भाई रायचन्द्र का बहुत बड़ा व्यापार था। वह हीरे मोती की परख करते थे और लाखों का कारोबार करते थे।' कार्यकर्ता ने गांधीजी को आश्चर्य से देखा। उसे यह बात थोड़ी अटपटी लग रही थी कि गांधीजी आखिर एक व्यापारी से क्यों प्रभावित हुए। गांधीजी ने उसकी मनोदशा को भांपकर कहा, 'लेकिन वह साधारण कारोबारी नहीं थे। वह एक संत थे। उनकी गद्दी पर कोई और चीज हो या न हो, कोई धार्मिक पुस्तक अवश्य रखी होती थी। बगल में वह एक डायरी भी रखते थे। जब भी उन्हें फुरसत मिलती, वह पढ़ने लगते। पुस्तक में मन को छूने वाली कोई बात होती तो वह उसे डायरी में नोट कर लेते। जो व्यक्ति लाखों की लेन- देन की बात करके फौरन ज्ञान की पुस्तक पढ़ने लगे और आत्मज्ञान की बात लिखने लगे, वह व्यापारी नहीं बल्कि शुद्ध ज्ञानी कहा जाएगा। मेरे साथ उनका कोई स्वार्थ नहीं था। मगर जब भी मैं उनकी दुकान पर पहुंचता, वह धर्म चर्चा शुरू कर देते थे। उस समय मुझे धर्म चर्चा में रुचि नहीं थी फिर भी मैं भाई रायचन्द्र की बातों को ध्यान से सुनता था। इसके बाद मैं कई संत-महात्माओं से मिला, मगर किसी ने मुझे इतना प्रभावित नहीं किया। मुझसे लोग पूछते हैं कि आखिर रायचन्द्र में क्या खास बात है जिससे मैं इतना प्रभावित हुआ। मुझे उनके कर्मयोग ने प्रभावित किया।
आम धारणा यह है कि एक काम करते हुए दूसरा काम करना कठिन है। मगर रायचन्द्र को देख कर लगा कि मनुष्य सांसारिक जीवन जीते हुए भी संत और ज्ञानी हो सकता है। इसी कारण मुझे रायचन्द्र सच्चे कर्मयोगी नजर आए।'
स्वप्न का संदेश
एक संत की साधना और भक्तिमय जीवन की बड़ी ख्याति थी। एक रात उन्होंने स्वप्न देखा कि उनकी मृत्यु हो चुकी है और वह एक देवदूत के सामने खड़े हैं। देवदूत सब मृत लोगों से उनके कर्मों का ब्योरा मांग रहा था। काफी देर बाद जब उनकी बारी आई, तो देवदूत ने उनसे पूछा, 'आप बताएं, आपने जीवन में क्या अच्छे कार्य किए जिनका आपको पुण्य मिला हो?'
संत सोचने लगे- मेरा तो सारा जीवन ही पुण्य कार्यों में व्यतीत हुआ है, मै कौन सा एक काम बताऊं। वह बोले, 'मैं पांच बार तीर्थयात्रा कर चुका हूं।'
देवदूत बोला, 'आपने तीर्थयात्राएं तो कीं, लेकिन आप अपने इस कार्य की चर्चा हर व्यक्ति से करते रहे। इसके कारण आपके सारे पुण्य नष्ट हो गए।' संत को भारी ग्लानि हुई। फिर कुछ हिम्मत कर उन्होंने कहा, 'मैं प्रतिदिन भगवान का ध्यान और उनके नाम का स्मरण करता था।'
देवदूत ने कहा, 'जब आप ध्यान करते और कोई दूसरा व्यक्ति वहां आता, तो आप कुछ अधिक समय तक जप-ध्यान में बैठते थे। चलिए कोई और पुण्य कार्य बताइए।' संत को लगा कि उनकी अब तक की सारी तपस्या बेकार चली गई। उनकी आंखों से पश्चाताप के आंसू बह निकले। इतने में उनकी नींद खुल गई। वह स्वप्न का संदेश समझ गए। वह समझ गए कि उन्हें अपनी साधना पर गर्व हो गया था। वे अपने त्यागमय जीवन के बदले दूसरों से कुछ अपेक्षाएं रखने लगे थे। उस दिन से उन्होंने स्वयं को बदलने का फैसला किया और सहज होकर साधना करने लगे।
संत सोचने लगे- मेरा तो सारा जीवन ही पुण्य कार्यों में व्यतीत हुआ है, मै कौन सा एक काम बताऊं। वह बोले, 'मैं पांच बार तीर्थयात्रा कर चुका हूं।'
देवदूत बोला, 'आपने तीर्थयात्राएं तो कीं, लेकिन आप अपने इस कार्य की चर्चा हर व्यक्ति से करते रहे। इसके कारण आपके सारे पुण्य नष्ट हो गए।' संत को भारी ग्लानि हुई। फिर कुछ हिम्मत कर उन्होंने कहा, 'मैं प्रतिदिन भगवान का ध्यान और उनके नाम का स्मरण करता था।'
देवदूत ने कहा, 'जब आप ध्यान करते और कोई दूसरा व्यक्ति वहां आता, तो आप कुछ अधिक समय तक जप-ध्यान में बैठते थे। चलिए कोई और पुण्य कार्य बताइए।' संत को लगा कि उनकी अब तक की सारी तपस्या बेकार चली गई। उनकी आंखों से पश्चाताप के आंसू बह निकले। इतने में उनकी नींद खुल गई। वह स्वप्न का संदेश समझ गए। वह समझ गए कि उन्हें अपनी साधना पर गर्व हो गया था। वे अपने त्यागमय जीवन के बदले दूसरों से कुछ अपेक्षाएं रखने लगे थे। उस दिन से उन्होंने स्वयं को बदलने का फैसला किया और सहज होकर साधना करने लगे।
कर्त्तव्य का पालन
यह घटना उस समय की है, जब शिवाजी के एक किले को दुश्मनों ने घेर लिया था। दुर्ग के प्रत्येक पहरेदार को आदेश था कि चाहे कोई भी कुछ क्यों न कहे लेकिन सूर्यास्त के बाद दुर्ग के दरवाजे को हरगिज न खोला जाए। शिवाजी दुश्मनों के एक दल को ढेर करने के बाद आधी रात के समय दुर्ग के पिछले दरवाजे पर पहुंचे और उन्होंने द्वारपाल से दरवाजा खोलने का आग्रह किया। दुश्मन की चिंता व तनाव के कारण वह द्वारपाल शिवाजी को पहचान नहीं पाया और उन्हें दुश्मन का ही कोई साथी समझकर बोला, 'चाहे आप कुछ भी कहिए किंतु रात के समय दुर्ग के दरवाजे कतई नहीं खुलेंगे।'
शिवाजी के भरसक प्रयत्न करने पर भी द्वारपाल ने दरवाजा नहीं खोला। शिवाजी के सामने कोई और रास्ता नहीं था। उन्हें दुर्ग के बाहर एक कोने में छिपकर रात बितानी पड़ी। सवेरे दरवाजा खुलने पर शिवाजी ने उस द्वारपाल को दरबार में आने का आदेश दिया। द्वारपाल भय से थर-थर कांप रहा था और मन ही मन सोच रहा था कि शिवाजी को न पहचान पाने और दुर्ग का दरवाजा न खोलने के कारण उसे अवश्य कड़ी सजा मिलेगी। वह सिर झुकाए शिवाजी के सामने जा पहुंचा। शिवाजी ने सबके सामने उसकी पीठ थपथपाते हुए कहा, 'मैं रात को दुर्ग का दरवाजा न खोलने के आदेश का सख्ती से पालन करने के लिए तुमसे प्रसन्न हूं। आज से मैं तुम्हें अपना अंगरक्षक नियुक्त करता हूं। मुझे तुम जैसे कर्त्तव्यनिष्ठ रक्षकों की ही आवश्यकता है।' शिवाजी का यह निर्णय सुनकर द्वारपाल उनके प्रति नतमस्तक हो गया।
शिवाजी के भरसक प्रयत्न करने पर भी द्वारपाल ने दरवाजा नहीं खोला। शिवाजी के सामने कोई और रास्ता नहीं था। उन्हें दुर्ग के बाहर एक कोने में छिपकर रात बितानी पड़ी। सवेरे दरवाजा खुलने पर शिवाजी ने उस द्वारपाल को दरबार में आने का आदेश दिया। द्वारपाल भय से थर-थर कांप रहा था और मन ही मन सोच रहा था कि शिवाजी को न पहचान पाने और दुर्ग का दरवाजा न खोलने के कारण उसे अवश्य कड़ी सजा मिलेगी। वह सिर झुकाए शिवाजी के सामने जा पहुंचा। शिवाजी ने सबके सामने उसकी पीठ थपथपाते हुए कहा, 'मैं रात को दुर्ग का दरवाजा न खोलने के आदेश का सख्ती से पालन करने के लिए तुमसे प्रसन्न हूं। आज से मैं तुम्हें अपना अंगरक्षक नियुक्त करता हूं। मुझे तुम जैसे कर्त्तव्यनिष्ठ रक्षकों की ही आवश्यकता है।' शिवाजी का यह निर्णय सुनकर द्वारपाल उनके प्रति नतमस्तक हो गया।
जीने का ढंग
एक शिष्य ने गुरु से पूछा, 'गुरुवर! संसार में किस ढंग से रहना चाहिए?' गुरु बहुत ही ज्ञानी थे। पहले तो प्रश्न सुनकर मुस्कराए फिर बोले, 'अच्छा प्रश्न किया है, एक दो दिन में व्यवहार द्वारा ही उत्तर दूंगा।' अगले दिन एक श्रद्धालु मिठाइयां लेकर आए और उन्होंने स्नेहपूर्वक गुरु को मिठाइयां भेंट कीं। संत ने उन्हें ले लिया और पीठ फेरकर सब खा गए। न वहां बैठे लोगों में से किसी को दिया, न भेंट करने वाले की ओर कोई ध्यान दिया। जब वह चला गया तो गुरु ने शिष्य से पूछा, 'उस व्यक्ति पर क्या प्रतिक्रिया हुई?' शिष्य ने बताया, 'दुखी होकर भला-बुरा कहता गया है। कहता था ऐसा भी क्या संत। सब खा गया। न मुझे पूछा, न किसी और को।' अगले दिन दूसरा व्यक्ति भेंट लाया। संत ने भेंट उठाकर पीछे फेंक दी और लाने वाले से बड़े प्यार से बातें करते रहे। बाद में पता चला कि वह व्यक्ति भी दुखी होकर गया। उसका कहना था, 'अजीब संत हैं। मुझसे तो इतना प्यार जताया, मगर मेरी भेंट का अपमान कर दिया।' फिर तीसरा व्यक्ति भेंट लाया। संत ने उसे आदर से लिया। कुछ स्वयं खाया, कुछ उसे दिया और कुछ अन्य शिष्यों में वितरित करवा दिया। भेंट देने वाले से स्नेहपूर्वक चर्चा भी की। शिष्य ने सूचना दी कि यह व्यक्ति प्रसन्न होकर उनकी सराहना करता हुआ गया।
गुरु ने शिष्य को समझाया, 'बेटे। तीन तरह के व्यवहार में यही ढंग ठीक लगता है। दाता यानी भगवान बड़ी भावना से हमें विभूतियां देता है, हम उन्हें तो भोगते हैं, दाता की ओर ध्यान नहीं देते, यह पहला व्यवहार हुआ। दूसरा व्यवहार यह है कि हमने उसकी दी विभूतियों को तो त्याग दिया और उसकी खूब स्तुतियां करते रहे। तीसरा व्यवहार यह है कि दाता का उपकार मानते हुए उसकी ही विभूतियों का सही ढंग से प्रयोग करें। उनसे परमार्थ करें और दाता के साथ भी सहज संबंध बनाकर रखें। यही ढंग ठीक है।'
गुरु ने शिष्य को समझाया, 'बेटे। तीन तरह के व्यवहार में यही ढंग ठीक लगता है। दाता यानी भगवान बड़ी भावना से हमें विभूतियां देता है, हम उन्हें तो भोगते हैं, दाता की ओर ध्यान नहीं देते, यह पहला व्यवहार हुआ। दूसरा व्यवहार यह है कि हमने उसकी दी विभूतियों को तो त्याग दिया और उसकी खूब स्तुतियां करते रहे। तीसरा व्यवहार यह है कि दाता का उपकार मानते हुए उसकी ही विभूतियों का सही ढंग से प्रयोग करें। उनसे परमार्थ करें और दाता के साथ भी सहज संबंध बनाकर रखें। यही ढंग ठीक है।'
अपनी पहचान बनाएं
अंग्रेजी के विश्वविख्यात लेखक जॉर्ज बर्नार्ड शॉ बेहद हंसमुख और मिलनसार थे। कई बार वह अपनी हाजिरजवाबी और सटीक टिप्पणी से लोगों को चमत्कृत कर देते थे। उनकी लोकप्रियता इतनी ज्यादा थी कि वह जहां भी जाते, लोग उन्हें घेर लेते थे। एक बार वह किसी कॉलेज के कार्यक्रम में मुख्य अतिथि थे। जब कार्यक्रम समाप्त हुआ तो हमेशा की तरह उनसे ऑटोग्राफ लेने वालों की भीड़ लग गई। एक नौजवान ने ऑटोग्राफ बुक उनकी ओर बढ़ाते हुए कहा, 'सर, मुझे साहित्य का बहुत शौक है और मैंने आपकी सभी पुस्तकें पढ़ी हैं। आप मेरे प्रिय लेखक हैं। मैं अपने जीवन में अभी तक अपनी अलग पहचान नहीं बना पाया हूं लेकिन बनाना चाहता हूं। मैं क्या करूं? इसके लिए आप मुझे कोई संदेश देकर अपना हस्ताक्षर करें तो बहुत मेहरबानी होगी।'
बर्नार्ड शॉ नौजवान की बात पर मुस्कराए फिर उन्होंने उसके हाथ से हस्ताक्षर पुस्तिका ली और उस पर संदेश लिखकर हस्ताक्षर किया और पुस्तिका लौटा दी। नौजवान ने पुस्तिका खोलकर देखा तो हैरान रह गया। बर्नार्ड शॉ ने लिखा था, 'अपना समय दूसरों के हस्ताक्षर इकट्ठा करने में नष्ट न करें, बल्कि खुद को इस योग्य बनाएं कि दूसरे आपके हस्ताक्षर प्राप्त करने के लिए लालायित रहें। अपनी अलग पहचान बनाने के लिए हर पल मेहनत करना और संघर्षरत रहना आवश्यक है।' यह पढ़कर नौजवान ने कहा, 'सर, मैं आपके इस संदेश को जीवन भर याद रखूंगा और अपनी एक अलग पहचान बनाकर दिखाऊंगा।' इस पर जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने नवयुवक की पीठ थपथपाई और भविष्य के लिए शुभकामनाएं दी।
बर्नार्ड शॉ नौजवान की बात पर मुस्कराए फिर उन्होंने उसके हाथ से हस्ताक्षर पुस्तिका ली और उस पर संदेश लिखकर हस्ताक्षर किया और पुस्तिका लौटा दी। नौजवान ने पुस्तिका खोलकर देखा तो हैरान रह गया। बर्नार्ड शॉ ने लिखा था, 'अपना समय दूसरों के हस्ताक्षर इकट्ठा करने में नष्ट न करें, बल्कि खुद को इस योग्य बनाएं कि दूसरे आपके हस्ताक्षर प्राप्त करने के लिए लालायित रहें। अपनी अलग पहचान बनाने के लिए हर पल मेहनत करना और संघर्षरत रहना आवश्यक है।' यह पढ़कर नौजवान ने कहा, 'सर, मैं आपके इस संदेश को जीवन भर याद रखूंगा और अपनी एक अलग पहचान बनाकर दिखाऊंगा।' इस पर जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने नवयुवक की पीठ थपथपाई और भविष्य के लिए शुभकामनाएं दी।
आत्मकल्याण का रास्ता
बुद्ध अपने सभी भिक्षुओं का व्यक्तिगत रूप से ख्याल रखते थे। वह इस बात को लेकर सचेत रहते थे कि किसी को कभी कोई कठिनाई न हो। एक बार उन्होंने गौर किया कि एक भिक्षुक कई दिनों से नजर नहीं आ रहा है। उसके बारे में कोई चर्चा भी सुनने को नहीं मिल रही थी। बुद्ध को उसकी चिंता हुई। उन्होंने भिक्षु भदंत से उसके बारे में पूछा। भदंत ने दबी आवाज में कहा, 'वह अतिसार से पीडि़त है।' यह सुनते ही बुद्ध, आनंद को साथ लेकर उस भिक्षु को देखने चल पड़े।
बुद्ध ने देखा कि बीमार भिक्षु अपनी कुटिया में बेसुध पड़ा है। उसका शरीर गंदा हो चुका था, क्योंकि किसी ने उसकी परिचर्या नहीं की थी। बुद्ध ने पूछा, 'क्या तुम्हें देखने कोई नहीं आया?' भिक्षु बोला 'वे सब साधनाओं में व्यस्त हैं इसलिए मेरे पास नहीं आ सके।' कुछ देर मौन रहकर बुद्ध ने आनंद से कहा, 'आनंद! जल ले आओ। हम इस भाई की सेवा करेंगे।' आनंद तुरंत कलश में जल ले आया। बुद्ध ने जल से बीमार भिक्षु का शरीर साफ किया। शाम में सभी भिक्षुगण संध्या वंदन के लिए जमा हुए।
बुद्ध ने बिना किसी भूमिका के सभा में उपस्थित भिक्षुओं से कहा, 'क्या हम में से कोई एक भिक्षु अस्वस्थ है?' एक आवाज आई, 'हां।' बुद्ध ने पूछा, 'उसे क्या कष्ट है?' उत्तर मिला, 'उस भाई को अतिसार है।' बुद्ध ने फिर पूछा, 'उसकी देखभाल कौन कर रहा है?' सब भिक्षु चुप हो गए। कुछ देर तक प्रार्थना सभा में सन्नाटा छाया रहा। फिर बुद्ध बोले, 'मैं जानता हूं। आप सब को आत्म कल्याण की चिंता है। पर क्या किसी पीडि़त को कष्ट में छोड़कर आत्म कल्याण की बात सोचना अच्छी बात है? स्मरण रहे, योग साधना से आत्म कल्याण तब तक नहीं हो सकता, जब तक मानवता की पीड़ा आप के हृदय में शूल बनकर नहीं चुभती। इसलिए निष्काम भाव से सेवा करें। यही सच्ची साधना है।'
बुद्ध ने देखा कि बीमार भिक्षु अपनी कुटिया में बेसुध पड़ा है। उसका शरीर गंदा हो चुका था, क्योंकि किसी ने उसकी परिचर्या नहीं की थी। बुद्ध ने पूछा, 'क्या तुम्हें देखने कोई नहीं आया?' भिक्षु बोला 'वे सब साधनाओं में व्यस्त हैं इसलिए मेरे पास नहीं आ सके।' कुछ देर मौन रहकर बुद्ध ने आनंद से कहा, 'आनंद! जल ले आओ। हम इस भाई की सेवा करेंगे।' आनंद तुरंत कलश में जल ले आया। बुद्ध ने जल से बीमार भिक्षु का शरीर साफ किया। शाम में सभी भिक्षुगण संध्या वंदन के लिए जमा हुए।
बुद्ध ने बिना किसी भूमिका के सभा में उपस्थित भिक्षुओं से कहा, 'क्या हम में से कोई एक भिक्षु अस्वस्थ है?' एक आवाज आई, 'हां।' बुद्ध ने पूछा, 'उसे क्या कष्ट है?' उत्तर मिला, 'उस भाई को अतिसार है।' बुद्ध ने फिर पूछा, 'उसकी देखभाल कौन कर रहा है?' सब भिक्षु चुप हो गए। कुछ देर तक प्रार्थना सभा में सन्नाटा छाया रहा। फिर बुद्ध बोले, 'मैं जानता हूं। आप सब को आत्म कल्याण की चिंता है। पर क्या किसी पीडि़त को कष्ट में छोड़कर आत्म कल्याण की बात सोचना अच्छी बात है? स्मरण रहे, योग साधना से आत्म कल्याण तब तक नहीं हो सकता, जब तक मानवता की पीड़ा आप के हृदय में शूल बनकर नहीं चुभती। इसलिए निष्काम भाव से सेवा करें। यही सच्ची साधना है।'
ईश्वर का रूप
एक बार फकीर जुन्नैद कई लोगों के साथ बैठकर बातचीत कर रहे थे। एक व्यक्ति ने उनसे पूछा, 'बाबा, क्या ईश्वर सचमुच है?' जुन्नैद बोले, 'हां भाई, ईश्वर सचमुच है और वह हर जगह मौजूद है।' इस पर वह व्यक्ति बोला, 'यदि ईश्वर हर जगह मौजूद है तो वह हमें दिखाई क्यों नहीं देता?' फकीर ने कहा, 'ईश्वर कोई वस्तु तो है नहीं, वह तो हमें मार्गदर्शन देने वाला, हमारी मदद करने वाला एक फरिश्ता है और उसे हम कई बार नेक व दयालु इंसानों के रूप में देख भी पाते हैं।'
इस पर भी वह व्यक्ति संतुष्ट नहीं हुआ और बोला, 'ये बातें तो हम सदियों से सुनते आ रहे हैं। लेकिन कभी तो ईश्वर की झलक मिलती।' यह कहकर जैसे ही वह वहां से जाने लगा वैसे ही फकीर जुन्नैद ने आवाज दी, 'जरा रुको।' उसके रुकते ही उन्होंने एक नुकीला पत्थर अपने पैर में मार लिया। पत्थर लगते ही वहां से खून की धारा बह निकली। वह व्यक्ति घबराकर बोला, 'बाबा, आपने यह क्या किया? आपको तो बहुत तकलीफ हो रही होगी।' इस पर जुन्नैद बोले, 'देखो बेटा, जैसे मेरे पैर में खून की धारा बहते देख तुमने महसूस किया कि मुझे पीड़ा हो रही होगी, वैसे ही हम ईश्वर को भी मन से महसूस करते हैं। पीड़ा भी तो महसूस ही की जाती है। क्या वास्तव में पीड़ा का कोई रूप है? नहीं न। वह तो प्रत्येक व्यक्ति के अंदर चोट लगने पर अलग-अलग तरह से उभरती है। उसी तरह ईश्वर भी लोगों के भीतर अलग-अलग रूप में महसूस किया जाता है।'
इस पर भी वह व्यक्ति संतुष्ट नहीं हुआ और बोला, 'ये बातें तो हम सदियों से सुनते आ रहे हैं। लेकिन कभी तो ईश्वर की झलक मिलती।' यह कहकर जैसे ही वह वहां से जाने लगा वैसे ही फकीर जुन्नैद ने आवाज दी, 'जरा रुको।' उसके रुकते ही उन्होंने एक नुकीला पत्थर अपने पैर में मार लिया। पत्थर लगते ही वहां से खून की धारा बह निकली। वह व्यक्ति घबराकर बोला, 'बाबा, आपने यह क्या किया? आपको तो बहुत तकलीफ हो रही होगी।' इस पर जुन्नैद बोले, 'देखो बेटा, जैसे मेरे पैर में खून की धारा बहते देख तुमने महसूस किया कि मुझे पीड़ा हो रही होगी, वैसे ही हम ईश्वर को भी मन से महसूस करते हैं। पीड़ा भी तो महसूस ही की जाती है। क्या वास्तव में पीड़ा का कोई रूप है? नहीं न। वह तो प्रत्येक व्यक्ति के अंदर चोट लगने पर अलग-अलग तरह से उभरती है। उसी तरह ईश्वर भी लोगों के भीतर अलग-अलग रूप में महसूस किया जाता है।'
दार्शनिक का संदेश
दार्शनिक हिक्री के पास रोज ढेरों लोग परामर्श लेने आते थे। लोग प्राय: उन्हें अपने पारिवारिक जीवन की उलझनें बताते और उनसे उनका कोई समाधान पूछते। हिक्री सबको समान भाव से सलाह दिया करते थे।
एक दिन एक व्यक्ति अपनी पत्नी के साथ उनके पास आया और पत्नी के आलस्य और कंजूसी की निंदा करने लगा। हिक्री ने उस औरत को स्नेहपूर्वक अपने पास बुलाया। फिर उन्होंने अपने एक हाथ की मुट्ठी बांधकर उसके सामने की और पूछा, 'यदि यह हमेशा ऐसे ही रहे तो क्या नतीजा निकलेगा?' पहले तो वह औरत सकपकाई, पर साहस कर बोली, 'अगर यह मुट्ठी हमेशा ऐसे ही बंधी रहेगी तो हाथ अकड़कर निकम्मा हो जाएगा।' उस औरत का उत्तर सुनकर हिक्री बहुत प्रसन्न हुए।
फिर उन्होंने दूसरे हाथ की हथेली बिल्कुल खुली रखकर फिर पूछा, 'यदि यह हाथ ऐसे ही खुला रहे तो फिर इस हाथ का क्या होगा?' स्त्री बोली, 'ऐसी हालत में ये भी अकड़ कर बेकार हो जाएगा।' हिक्री ने लोगों से कहा, 'यह तो बुद्धिमान भी है और दूरदर्शी भी। यह तो अच्छी तरह जानती है कि मुट्ठी बंद रखने और सीधा हाथ रखने से क्या हानि होती है।' फिर उन्होंने स्त्री से कहा, 'बेटी, तुम तो सब कुछ खुद ही समझती हो। इस समझ का उपयोग अपने जीवन में भी करो, तुम्हारा सुख-सौभाग्य बढ़ेगा। किसी भी चीज की अति अच्छी नहीं होती। न खुला हाथ अच्छा, न बंद हाथ। दोनों में संतुलन होना चाहिए। न लापरवाही से खर्च करो न ही कंजूसी से।' वह स्त्री हिक्री के संदेश को समझ गई।
एक दिन एक व्यक्ति अपनी पत्नी के साथ उनके पास आया और पत्नी के आलस्य और कंजूसी की निंदा करने लगा। हिक्री ने उस औरत को स्नेहपूर्वक अपने पास बुलाया। फिर उन्होंने अपने एक हाथ की मुट्ठी बांधकर उसके सामने की और पूछा, 'यदि यह हमेशा ऐसे ही रहे तो क्या नतीजा निकलेगा?' पहले तो वह औरत सकपकाई, पर साहस कर बोली, 'अगर यह मुट्ठी हमेशा ऐसे ही बंधी रहेगी तो हाथ अकड़कर निकम्मा हो जाएगा।' उस औरत का उत्तर सुनकर हिक्री बहुत प्रसन्न हुए।
फिर उन्होंने दूसरे हाथ की हथेली बिल्कुल खुली रखकर फिर पूछा, 'यदि यह हाथ ऐसे ही खुला रहे तो फिर इस हाथ का क्या होगा?' स्त्री बोली, 'ऐसी हालत में ये भी अकड़ कर बेकार हो जाएगा।' हिक्री ने लोगों से कहा, 'यह तो बुद्धिमान भी है और दूरदर्शी भी। यह तो अच्छी तरह जानती है कि मुट्ठी बंद रखने और सीधा हाथ रखने से क्या हानि होती है।' फिर उन्होंने स्त्री से कहा, 'बेटी, तुम तो सब कुछ खुद ही समझती हो। इस समझ का उपयोग अपने जीवन में भी करो, तुम्हारा सुख-सौभाग्य बढ़ेगा। किसी भी चीज की अति अच्छी नहीं होती। न खुला हाथ अच्छा, न बंद हाथ। दोनों में संतुलन होना चाहिए। न लापरवाही से खर्च करो न ही कंजूसी से।' वह स्त्री हिक्री के संदेश को समझ गई।
दान का महत्व
सेठ जमनादास गांधीजी के चरखा संघ के अध्यक्ष थे। चरखा संघ का सारा हिसाब-किताब वही रखते थे। एक बार गांधीजी एक सभा में चरखा संघ के महत्व के बारे में लोगों को बता रहे थे और कह रहे थे कि इसका सारा खर्च चंदे से ही चलता है। उनके बगल में जमनादास बैठे थे। सभा खत्म होने के बाद लोग लाइन लगा कर चरखा संघ के लिए दान पात्र में चंदा डालने लगे। कतार में एक बहुत गरीब बुढि़या भी थी। वह दान पात्र में चंदा न डाल कर गांधीजी के पास आने लगी।
स्वयंसेवकों ने उसे गांधीजी के पास जाने से रोक दिया। स्वयंसेवकों को ऐसा करते देख गांधीजी ने कहा, 'मां को मेरे पास आने दो।' बुढि़या ने गांधीजी के पास पहुंच कर एक पोटली खोली और एक अधेला (आधा पैसा) उनके चरणों में रखते हुए कहा, 'मेरे पास कुल जमा पूंजी इतनी ही है।' गांधीजी ने उस अधेले को माथे से लगाया और बोले, 'मां, हमारे लिए तो आप का दिया हुआ धन सबसे ज्यादा है।'
सेठ जमनादास सब कुछ देख रहे थे। सभी लोगों के जाने के बाद गांधीजी ने दान पात्र का सारा पैसा जमनादास को दे दिया मगर बुढि़या द्वारा दिया गया एक अधेला अपने पास रख लिया।
जमनादास ने कहा, 'बापू, आप ने एक अधेला नहीं दिया।' गांधीजी बोले, 'उसे मैं अपने पास रखूंगा।' जमनादास ने कहा, 'चरखा संघ को मिलने वाले हजारों रुपये मैं ही लेता हूं। पर इस अधेले के लिए आप को मुझ पर विश्वास नहीं है।' गांधीजी ने कहा, 'यदि किसी व्यक्ति के पास हजारों रुपये हों और वह उसमें से सौ रुपये दे दे, तो कोई बड़ी बात नहीं है, लेकिन उस बुढि़या के लिए यह अधेला ही सारी जमा पूंजी थी जो उसने दान कर दी। कितना बड़ा त्याग किया है उसने। उसका अधेला मेरे लिए करोड़ों से ज्यादा है। जब तक यह मेरे पास रहेगा, मुझे दान के महत्व का अहसास कराता रहेगा।'
स्वयंसेवकों ने उसे गांधीजी के पास जाने से रोक दिया। स्वयंसेवकों को ऐसा करते देख गांधीजी ने कहा, 'मां को मेरे पास आने दो।' बुढि़या ने गांधीजी के पास पहुंच कर एक पोटली खोली और एक अधेला (आधा पैसा) उनके चरणों में रखते हुए कहा, 'मेरे पास कुल जमा पूंजी इतनी ही है।' गांधीजी ने उस अधेले को माथे से लगाया और बोले, 'मां, हमारे लिए तो आप का दिया हुआ धन सबसे ज्यादा है।'
सेठ जमनादास सब कुछ देख रहे थे। सभी लोगों के जाने के बाद गांधीजी ने दान पात्र का सारा पैसा जमनादास को दे दिया मगर बुढि़या द्वारा दिया गया एक अधेला अपने पास रख लिया।
जमनादास ने कहा, 'बापू, आप ने एक अधेला नहीं दिया।' गांधीजी बोले, 'उसे मैं अपने पास रखूंगा।' जमनादास ने कहा, 'चरखा संघ को मिलने वाले हजारों रुपये मैं ही लेता हूं। पर इस अधेले के लिए आप को मुझ पर विश्वास नहीं है।' गांधीजी ने कहा, 'यदि किसी व्यक्ति के पास हजारों रुपये हों और वह उसमें से सौ रुपये दे दे, तो कोई बड़ी बात नहीं है, लेकिन उस बुढि़या के लिए यह अधेला ही सारी जमा पूंजी थी जो उसने दान कर दी। कितना बड़ा त्याग किया है उसने। उसका अधेला मेरे लिए करोड़ों से ज्यादा है। जब तक यह मेरे पास रहेगा, मुझे दान के महत्व का अहसास कराता रहेगा।'
साधक का जीवन
तर्कशास्त्र के महान पंडित रामनाथ ने नवद्वीप के वन में गुरुकुल स्थापित किया था। उस समय कृष्ण नगर में विद्यानुरागी महाराज शिवचंद्र का शासन था। उन्होंने पं. रामनाथ की चर्चा सुनी। एक दिन वह उनसे मिलने पहुंच गए। पंडित जी ने उनका समुचित स्वागत सत्कार किया। थोड़ी देर बाद महाराज ने उनसे पूछा, 'मैं आपकी क्या मदद करूं?' रामनाथ ने कहा, 'राजन, ईश्वर ने मेरे सारे अभाव मिटा दिए हैं, अब मैं पूर्ण हूं।'
महाराज बोले, 'मैं घर खर्च के बारे में पूछ रहा हूं। क्या कोई कठिनाई आ रही है?' पंडित जी ने मुस्कराकर कहा, 'अब घर के खर्च आदि के बारे में गृहस्वामिनी मुझसे अधिक जानती हैं। यदि आपको कुछ पूछना हो तो उन्हीं से पूछ लें।'
महाराज ने पंडित जी के घर पहुंचकर उनकी साध्वी गृहिणी से पूछा, 'माताजी, घर खर्च के लिए कोई कमी तो नहीं है?' इस पर उन परम साध्वी ने कहा, 'महाराज, भला सर्व समर्थ परमेश्वर के रहते उनके भक्तों को क्या कमी रह सकती है?'
महाराज ने कहा, 'हम आपको कुछ गांवों की जागीर देना चाहते हैं। इससे होने वाली आय से गुरुकुल भी ठीक तरह से चल सकेगा और आपके जीवन में भी कोई अभाव नहीं रहेगा।' उत्तर में वह वृद्धा ब्राह्मणी मुस्कराई और कहने लगी, 'राजन, प्रत्येक मनुष्य को परमात्मा ने जीवन रूपी जागीर पहले से ही दे रखी है। जो जीवन की इस जागीर को भली प्रकार संभालना सीख जाता है, उसे फिर किसी चीज का कोई अभाव नहीं रह जाता।' साधक दंपती के चरणों में महाराज का मस्तक श्रद्धा से झुक गया।
महाराज बोले, 'मैं घर खर्च के बारे में पूछ रहा हूं। क्या कोई कठिनाई आ रही है?' पंडित जी ने मुस्कराकर कहा, 'अब घर के खर्च आदि के बारे में गृहस्वामिनी मुझसे अधिक जानती हैं। यदि आपको कुछ पूछना हो तो उन्हीं से पूछ लें।'
महाराज ने पंडित जी के घर पहुंचकर उनकी साध्वी गृहिणी से पूछा, 'माताजी, घर खर्च के लिए कोई कमी तो नहीं है?' इस पर उन परम साध्वी ने कहा, 'महाराज, भला सर्व समर्थ परमेश्वर के रहते उनके भक्तों को क्या कमी रह सकती है?'
महाराज ने कहा, 'हम आपको कुछ गांवों की जागीर देना चाहते हैं। इससे होने वाली आय से गुरुकुल भी ठीक तरह से चल सकेगा और आपके जीवन में भी कोई अभाव नहीं रहेगा।' उत्तर में वह वृद्धा ब्राह्मणी मुस्कराई और कहने लगी, 'राजन, प्रत्येक मनुष्य को परमात्मा ने जीवन रूपी जागीर पहले से ही दे रखी है। जो जीवन की इस जागीर को भली प्रकार संभालना सीख जाता है, उसे फिर किसी चीज का कोई अभाव नहीं रह जाता।' साधक दंपती के चरणों में महाराज का मस्तक श्रद्धा से झुक गया।
अनुशासन का पाठ
यह उन दिनों की बात है, जब डॉ. जाकिर हुसैन जामिया मिलिया इस्लामिया की हालत सुधारने में जुटे थे। एक दिन उन्होंने शिक्षकों से कहा, 'हम चाहते हैं कि हमारे छात्र अनुशासन का पालन करें। वे साफ-सफाई पर ध्यान दें। उनके कपड़े साफ-सुथरे हों। उनके जूतों पर अच्छी तरह पॉलिश हो। इससे विश्वविद्यालय का शैक्षणिक माहौल बेहतर होगा।'
अगले दिन उन्होंने इसके लिए एक नोटिस जारी किया। फिर छात्रों को मौखिक आदेश भी दिया। कुछ दिन बाद अध्यापकों ने उनसे कहा, 'हम लोगों ने कई बार प्रयास किया, मगर छात्रों पर कोई असर नहीं पड़ा। इसके लिए कठोर कार्रवाई की जरूरत है।' जाकिर हुसैन ने कहा, 'नहीं, कठोर कार्रवाई का छात्रों पर गलत असर पड़ेगा।' मगर उन्होंने तय कर लिया कि वह अपना मकसद किसी भी कीमत पर हासिल करके रहेंगे। अगले दिन सुबह-सुबह छात्रों ने विश्वविद्यालय के गेट पर एक व्यक्ति को बैठे देखा, जो सबसे जूते पॉलिश कराने के लिए कह रहा था।
कुछ छात्रों ने उससे जूते पॉलिश कराए। उस शख्स ने पैसे नहीं लिए और कहा कि यह यूनिवर्सिटी की तरफ से कराया जा रहा है। इस पर कुछ और छात्र पॉलिश करवाने लगे। तभी एक विद्यार्थी ने पॉलिश करने वाले का चेहरा गौर से देखा तो उसके होश उड़ गए। वह तो जाकिर हुसैन थे। पूरे विश्वविद्यालय में हड़कंप मच गया। बाकी छात्र जहां थे वहीं रुक गए। किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि अब किया क्या जाए।
उसी समय कुछ वरिष्ठ छात्र, जो विश्वविद्यालय का माहौल खराब करने में सबसे आगे रहते थे, उनके पास आए और कहने लगे, 'हमसे बहुत बड़ी गलती हुई। आज से आप जैसा कहेंगे हम लोग वैसा ही करेंगे। हमें माफ कर दीजिए।' जाकिर हुसैन बोले, 'तुम लोग अभी से अनुशासन का मखौल उड़ाओगे तो आगे चल कर तुम्हें परेशानी होगी। हम चाहते हैं कि यहां के छात्रों से दूसरे लोग कुछ सीखें।' उसके बाद विश्वविद्यालय का माहौल पूरी तरह बदल गया।
अगले दिन उन्होंने इसके लिए एक नोटिस जारी किया। फिर छात्रों को मौखिक आदेश भी दिया। कुछ दिन बाद अध्यापकों ने उनसे कहा, 'हम लोगों ने कई बार प्रयास किया, मगर छात्रों पर कोई असर नहीं पड़ा। इसके लिए कठोर कार्रवाई की जरूरत है।' जाकिर हुसैन ने कहा, 'नहीं, कठोर कार्रवाई का छात्रों पर गलत असर पड़ेगा।' मगर उन्होंने तय कर लिया कि वह अपना मकसद किसी भी कीमत पर हासिल करके रहेंगे। अगले दिन सुबह-सुबह छात्रों ने विश्वविद्यालय के गेट पर एक व्यक्ति को बैठे देखा, जो सबसे जूते पॉलिश कराने के लिए कह रहा था।
कुछ छात्रों ने उससे जूते पॉलिश कराए। उस शख्स ने पैसे नहीं लिए और कहा कि यह यूनिवर्सिटी की तरफ से कराया जा रहा है। इस पर कुछ और छात्र पॉलिश करवाने लगे। तभी एक विद्यार्थी ने पॉलिश करने वाले का चेहरा गौर से देखा तो उसके होश उड़ गए। वह तो जाकिर हुसैन थे। पूरे विश्वविद्यालय में हड़कंप मच गया। बाकी छात्र जहां थे वहीं रुक गए। किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि अब किया क्या जाए।
उसी समय कुछ वरिष्ठ छात्र, जो विश्वविद्यालय का माहौल खराब करने में सबसे आगे रहते थे, उनके पास आए और कहने लगे, 'हमसे बहुत बड़ी गलती हुई। आज से आप जैसा कहेंगे हम लोग वैसा ही करेंगे। हमें माफ कर दीजिए।' जाकिर हुसैन बोले, 'तुम लोग अभी से अनुशासन का मखौल उड़ाओगे तो आगे चल कर तुम्हें परेशानी होगी। हम चाहते हैं कि यहां के छात्रों से दूसरे लोग कुछ सीखें।' उसके बाद विश्वविद्यालय का माहौल पूरी तरह बदल गया।
~न्यूटन का संयम~
एक बार सर आइजक न्यूटन ने लगातार कई दिनों तक दिन-रात मेहनत करके एक शोधपत्र तैयार किया। काम पूरा होने के बाद उन्होंने राहत की सांस ली। वह शोधपत्र के पन्नों को एक जगह रखकर कुछ देर के लिए बाहर चले गए। जहां वह शोधपत्र रखा था, वहीं एक मोमबत्ती जल रही थी। उस समय न्यूटन का पालतू कुत्ता जैकी अकेला था।
अकेले में मोमबत्ती की परछाई को देख कर जैकी उस पर कूद पड़ा। जैकी के ऐसा करते ही जलती हुई मोमबत्ती मेज पर रखे शोधपत्र पर जा गिरी और देखते ही देखते कागजों ने आग पकड़ ली। कई दिनों की मेहनत पल भर में ही राख हो गई। कुछ ही देर बाद न्यूटन जब वापस लौटे तो यह दुर्घटना देखकर आपा खो बैठे लेकिन उन्होंने तुरंत ही स्वयं को संभाला। उन्होंने मन ही मन सोचा कि जो राख हो चुका वह तो वापस आ नहीं आ सकता फिर परेशान होने से क्या फायदा।
जैकी को नजदीक देखकर वह समझ गए कि उसी के कारण यह सब हुआ है। फिर वह जैकी की तरफ देखकर उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोले, 'तुम क्या जानो जैकी कि तुमने मेरी मेहनत को मिट्टी में मिला दिया है। खैर, अब तो जो हो गया सो हो गया। गुस्सा या पश्चाताप करने से कुछ होगा नहीं। इसलिए बेहतर है कि मैं नए सिरे से अपना काम शुरू करूं।' न्यूटन उसी समय शोधपत्र फिर से तैयार करने में जुट गए। बाद में जिसने भी यह वाकया सुना उसने न्यूटन के धैर्य और लगन की तारीफ की।
अकेले में मोमबत्ती की परछाई को देख कर जैकी उस पर कूद पड़ा। जैकी के ऐसा करते ही जलती हुई मोमबत्ती मेज पर रखे शोधपत्र पर जा गिरी और देखते ही देखते कागजों ने आग पकड़ ली। कई दिनों की मेहनत पल भर में ही राख हो गई। कुछ ही देर बाद न्यूटन जब वापस लौटे तो यह दुर्घटना देखकर आपा खो बैठे लेकिन उन्होंने तुरंत ही स्वयं को संभाला। उन्होंने मन ही मन सोचा कि जो राख हो चुका वह तो वापस आ नहीं आ सकता फिर परेशान होने से क्या फायदा।
जैकी को नजदीक देखकर वह समझ गए कि उसी के कारण यह सब हुआ है। फिर वह जैकी की तरफ देखकर उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोले, 'तुम क्या जानो जैकी कि तुमने मेरी मेहनत को मिट्टी में मिला दिया है। खैर, अब तो जो हो गया सो हो गया। गुस्सा या पश्चाताप करने से कुछ होगा नहीं। इसलिए बेहतर है कि मैं नए सिरे से अपना काम शुरू करूं।' न्यूटन उसी समय शोधपत्र फिर से तैयार करने में जुट गए। बाद में जिसने भी यह वाकया सुना उसने न्यूटन के धैर्य और लगन की तारीफ की।
ध्यान की गहराई
बात उस समय की है जब स्वामी विवेकानंद शिकागो के व्याख्यान के बाद अमेरिका में प्रसिद्ध हो चले थे। वहां वह घूम-घूमकर वेदांत दर्शन पर प्रवचन दिया करते थे। इस सिलसिले में उन्हें अमेरिका के उन अंदरूनी इलाकों में भी जाना होता था, जहां धर्मांध और संकीर्ण विचारधारा वाले लोग रहते थे। एक बार स्वामीजी को ऐसे ही एक कस्बे में व्याख्यान के लिए बुलाया गया था। एक खुले मैदान में लकड़ी के बक्सों को जमाकर मंच तैयार किया गया था।
स्वामीजी ने उस पर खड़े होकर वेदांत, योग और ध्यान पर व्याख्यान देना शुरू किया। बाहर से गुजरने वाले लोग भी उनकी बातें सुनने लगे जिनमें कुछ चरवाहे भी थे। थोड़ी देर में ही उनमें से कुछ ने बंदूकें निकालीं और स्वामीजी की ओर निशाना दागने लगे। कोई गोली उनके कान के पास से गुजरती तो कोई पांव के पास से। नीचे रखे कुछ बक्से तो छलनी हो गए थे। लेकिन इस सबके बावजूद स्वामीजी का व्याख्यान पहले की तरह धाराप्रवाह चलता रहा। न वह थमे न उनकी आवाज कांपी। अब चरवाहे भी वहां ठहर गए।
व्याख्यान के बाद वे स्वामीजी से बोले, 'आपके जैसा व्यक्ति हमने पहले नहीं देखा। हमारी गोलीबारी के बीच आपका भाषण ऐसे चलता रहा जैसे कुछ हुआ ही न हो। अगर हमारा निशाना चूकता तो आपकी जान आफत में पड़ सकती थी।' स्वामीजी ने उन्हें बताया कि जब वह व्याख्यान दे रहे थे, तब उन्हें बाहरी वातावरण का ज्ञान ही न था। उनका सारा चित्त वेदांत और ध्यान की उन गहराइयों में डूबा हुआ था। वे चरवाहे उनके प्रति नतमस्तक हो गए
स्वामीजी ने उस पर खड़े होकर वेदांत, योग और ध्यान पर व्याख्यान देना शुरू किया। बाहर से गुजरने वाले लोग भी उनकी बातें सुनने लगे जिनमें कुछ चरवाहे भी थे। थोड़ी देर में ही उनमें से कुछ ने बंदूकें निकालीं और स्वामीजी की ओर निशाना दागने लगे। कोई गोली उनके कान के पास से गुजरती तो कोई पांव के पास से। नीचे रखे कुछ बक्से तो छलनी हो गए थे। लेकिन इस सबके बावजूद स्वामीजी का व्याख्यान पहले की तरह धाराप्रवाह चलता रहा। न वह थमे न उनकी आवाज कांपी। अब चरवाहे भी वहां ठहर गए।
व्याख्यान के बाद वे स्वामीजी से बोले, 'आपके जैसा व्यक्ति हमने पहले नहीं देखा। हमारी गोलीबारी के बीच आपका भाषण ऐसे चलता रहा जैसे कुछ हुआ ही न हो। अगर हमारा निशाना चूकता तो आपकी जान आफत में पड़ सकती थी।' स्वामीजी ने उन्हें बताया कि जब वह व्याख्यान दे रहे थे, तब उन्हें बाहरी वातावरण का ज्ञान ही न था। उनका सारा चित्त वेदांत और ध्यान की उन गहराइयों में डूबा हुआ था। वे चरवाहे उनके प्रति नतमस्तक हो गए
गायिका की दरियादिली
एक बार फ्रांसीसी गायिका मेलिथान के पास एक गरीब-फटेहाल लड़का आया। बालक गायिका के पास आकर खड़ा हो गया। उसे पास देखकर मेलिथान बोली, 'बच्चे, तुम्हें क्या चाहिए? तुम मेरे पास क्यों आए हो?' बालक बोला, 'मैडम, मेरा नाम पियरे है। मैं आपके पास बहुत आशा से आया हूं। क्या आप मेरी मदद करेंगी?' मेलिथान बोली, 'हां बेटे, मैं तुम्हारी मदद करने की कोशिश अवश्य करूंगी। बताओ तुम्हारी क्या समस्या है?'
इस पर बालक बोला, 'मेरी मां बहुत बीमार है मगर मेरे पास उनका इलाज कराने के लिए पैसे नहीं हैं।' यह सुनकर मेलिथान बोली, 'अच्छा तो तुम्हें मुझसे आर्थिक मदद चाहिए। बोलो मैं तुम्हारी मदद के लिए कितने पैसे दूं?' मेलिथान अपनी बात पूरी भी न कर पाई थी कि बालक बीच में ही बोला, 'क्षमा कीजिएगा मैडम, मैं आपसे मुफ्त में मदद नहीं लेना चाहता। मैं तो आपसे अलग तरह की सहायता चाहता हूं।'
नन्हे से बालक की यह बात सुनकर मेलिथान हैरान हो गई और बोली, 'कैसी सहायता चाहते हो?' पियरे बोला, 'मैडम मैं आपसे यह निवेदन करने आया था कि मैंने एक कविता लिखी है। आप मुझे उसे अपने साथ संगीत सभा में गाने का अवसर प्रदान करें और आप जो उचित समझें वह पारिश्रमिक मुझे दे दें।' नन्हे से बालक की इस बात से मेलिथान बेहद प्रभावित हुई और उसने पियरे को अपने ही कार्यक्रम में अकेले गाने का अवसर दिया।
बालक पियरे की करुण स्वर में गाई गई कविता वहां उपस्थित जनसमूह को छू गई। सभी दर्शकों की आंखें भीग गईं। वह कार्यक्रम बेहद सफल हुआ और उस कार्यक्रम में गायिका पर पैसे की बरसात हो गई। लेकिन मेलिथान ने दरियादिली दिखाते हुए वे सारे पैसे पियरे की मां को सौंप दिए और बोली, 'आपका बेटा बेहद काबिल है और वही इन पैसों का असली हकदार है। अब न सिर्फ आपकी बीमारी भाग जाएगी बल्कि आपका जीवन भी संवर जाएगा।' पियरे की मां ने मेलिथान के प्रति आभार प्रकट किया।
इस पर बालक बोला, 'मेरी मां बहुत बीमार है मगर मेरे पास उनका इलाज कराने के लिए पैसे नहीं हैं।' यह सुनकर मेलिथान बोली, 'अच्छा तो तुम्हें मुझसे आर्थिक मदद चाहिए। बोलो मैं तुम्हारी मदद के लिए कितने पैसे दूं?' मेलिथान अपनी बात पूरी भी न कर पाई थी कि बालक बीच में ही बोला, 'क्षमा कीजिएगा मैडम, मैं आपसे मुफ्त में मदद नहीं लेना चाहता। मैं तो आपसे अलग तरह की सहायता चाहता हूं।'
नन्हे से बालक की यह बात सुनकर मेलिथान हैरान हो गई और बोली, 'कैसी सहायता चाहते हो?' पियरे बोला, 'मैडम मैं आपसे यह निवेदन करने आया था कि मैंने एक कविता लिखी है। आप मुझे उसे अपने साथ संगीत सभा में गाने का अवसर प्रदान करें और आप जो उचित समझें वह पारिश्रमिक मुझे दे दें।' नन्हे से बालक की इस बात से मेलिथान बेहद प्रभावित हुई और उसने पियरे को अपने ही कार्यक्रम में अकेले गाने का अवसर दिया।
बालक पियरे की करुण स्वर में गाई गई कविता वहां उपस्थित जनसमूह को छू गई। सभी दर्शकों की आंखें भीग गईं। वह कार्यक्रम बेहद सफल हुआ और उस कार्यक्रम में गायिका पर पैसे की बरसात हो गई। लेकिन मेलिथान ने दरियादिली दिखाते हुए वे सारे पैसे पियरे की मां को सौंप दिए और बोली, 'आपका बेटा बेहद काबिल है और वही इन पैसों का असली हकदार है। अब न सिर्फ आपकी बीमारी भाग जाएगी बल्कि आपका जीवन भी संवर जाएगा।' पियरे की मां ने मेलिथान के प्रति आभार प्रकट किया।
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