Friday, November 4, 2011

राजा का सपना

एक राजा को शिकार का नशा था। वह राजकाज छोड़कर हर समय शिकार में लगा रहता था। वह जिससे मिलता उससे शिकार के किसी प्रसंग पर ही बात करता। एक बार जब वह शिकार करने पहुंचा तो एक हिरन उसके सामने आ खड़ा हुआ। राजा उसे देखकर चकित रह गया। तभी कोमल वाणी में हिरन ने कहा, 'राजन, आप प्रतिदिन वन में जाकर जीवों का शिकार करते हैं। कुछ जीव आपके हाथी-घोड़ों द्वारा कुचल दिए जाते हैं। मेरे शरीर के भीतर कस्तूरी का भंडार है। आपसे प्रार्थना है कि आप इस भंडार को ले लें और वन के प्राणियों का शिकार करना छोड़ दें।'

हिरन की बात सुन राजा विस्मय से बोला, 'क्या तुम उन्हें बचाने के लिए अपने प्राण देना चाहते हो? तुम जानते हो कस्तूरी पाने के लिए मुझे तुम्हारा वध करना होगा।' हिरन बोला, 'राजन, आप मुझे मारकर कस्तूरी का भंडार ले लीजिए, पर निरापराध जीवों को मारना छोड़ दीजिए।' राजा ने पुन: कहा, 'तुम्हारा शरीर बहुत सुंदर है। तुम्हारे भीतर कस्तूरी का भंडार है।' हिरन ने जवाब दिया, 'राजन यह शरीर तो नश्वर है। मैं दूसरों के प्राण बचाने के लिए मर जाऊं इससे अच्छी बात क्या हो सकती है।'

मृग की ज्ञान भरी वाणी ने राजा के मन में प्रकाश पैदा कर दिया। वह सोचने लगा, यह जानवर होकर दूसरों के लिए अपने प्राण दे रहा है और मैं मनुष्य होकर रोज जीवों को मारता हूं। धिक्कार है मुझ पर। तभी उसकी नींद टूट गई। इस सपने ने उसकी आंखें खोल दी थीं। उस दिन से राजा हिंसा छोड़कर सब पर दया करने लगा।

राजा का चुनाव

एक राजा था। वह बेहद न्यायप्रिय, दयालु और विनम्र था। उसके तीन बेटे थे। जब राजा बूढ़ा हुआ तो उसने किसी एक बेटे को राजगद्दी सौंपने का निर्णय किया। इसके लिए उसने तीनों की परीक्षा लेनी चाही। उसने तीनों राजकुमारों को अपने पास बुलाया और कहा, 'मैं आप तीनों को एक छोटा सा काम सौंप रहा हूं। उम्मीद करता हूं कि आप सभी इस काम को अपने सर्वश्रेष्ठ तरीके से करने की कोशिश करेंगे।'

राजा के कहने पर राजकुमारों ने हाथ जोड़कर कहा, 'पिताजी, आप आदेश दीजिए। हम अपनी ओर से कार्य को सर्वश्रेष्ठ तरीके से करने का भरपूर प्रयास करेंगे।' राजा ने प्रसन्न होकर उन तीनों को कुछ स्वर्ण मुद्राएं दीं और कहा कि इन मुद्राओं से कोई ऐसी चीज खरीद कर लाओ जिससे कि पूरा कमरा भर जाए और वह वस्तु काम में आने वाली भी हो। यह सुनकर तीनों राजकुमार स्वर्ण मुद्राएं लेकर अलग-अलग दिशाओं में चल पड़े। बड़ा राजकुमार बड़ी देर तक माथापच्ची करता रहा। उसने सोचा कि इसके लिए रूई उपयुक्त रहेगी। उसने उन स्वर्ण मुद्राओं से काफी सारी रूई खरीद कर कमरे में भर दी और सोचा कि इससे कमरा भी भर गया और रूई बाद में रजाई भरने के काम आ जाएगी। मंझले राजकुमार ने ढेर सारी घास से कमरा भर दिया।

उसे लगा कि बाद में घास गाय व घोड़ों के खाने के काम आ जाएगी। उधर छोटे राजकुमार ने तीन दीये खरीदे। पहला दीया उसने कमरे में जलाकर रख दिया। इससे पूरे कमरे में रोशनी भर गई। दूसरा दीया उसने अंधेरे चौराहे पर रख दिया जिससे वहां भी रोशनी हो गई और तीसरा दीया उसने अंधेरी चौखट पर रख दिया जिससे वह हिस्सा भी जगमगा उठा। बची हुई स्वर्ण मुद्राओं से उसने गरीबों को भोजन करा दिया। राजा ने तीनों राजकुमारों की वस्तुओं का निरीक्षण किया। अंत में छोटे राजकुमार के सूझबूझ भरे निर्णय को देखकर वह बेहद प्रभावित हुआ और उसे ही राजगद्दी सौंप दी।

विनम्रता का पाठ

एक राजा बहुत अहंकारी था। एक दिन उसके मंत्री ने उसे बताया कि नगर में बुद्ध पधारे हैं, चलकर उनका स्वागत किया जाए। राजा ने कहा, 'मैं बुद्ध का स्वागत करने क्यों जाऊं? मैं राजा हूं और सभी मुझसे मिलने मेरे महल में आते है। बुद्ध को यदि मुझसे मिलना होगा, तो वह स्वयं मेरे महल में आएंगे।' राजा की बात सुनकर मंत्री बोला, 'आप राजा हैं इसलिए सभी आपसे मिलने आते है लेकिन संत पुरुष राजा से भी ऊपर होते है। चूंकि प्रजा के लिए भी वे श्रद्धा के पात्र होते है, इसलिए उनका आदर करके आप प्रजा के भी प्रियपात्र बनेंगे।'

राजा कुतर्की था। उसने पलटकर कहा, 'क्या मैं प्रजा का दास हूं कि जो वह करे और चाहे, वही मैं करूं? मैं राजा हूं, इसलिए मैं जो चाहूंगा, वही करूंगा।' मंत्री को राजा का व्यवहार उचित नहीं लगा। उसने अपना त्यागपत्र राजा को दे दिया और कहा, 'मैं आपकी सेवा में नहीं रह सकता। आप में तनिक भी बड़प्पन नहीं है।' राजा ने कहा, 'मैं अपने बड़प्पन के कारण ही बुद्ध के स्वागत हेतु नहीं जा रहा हूं।' मंत्री ने कहा, 'अपने घमंड को बड़प्पन मत समझिए। बुद्ध भी कभी महान सम्राट के पुत्र थे। उन्होंने राज्य का त्याग कर भिक्षु बनना स्वीकार किया। इसका अर्थ है कि राज्य के मुकाबले उनका त्याग अधिक बड़ा है। विनम्रता ही व्यक्ति को बड़ा बनाती है। इसके अभाव में व्यक्ति किसी लायक नहीं रह जाता। राजा बात का मर्म समझ गया और न केवल बुद्ध का स्वागत करने गया, बल्कि उनसे दीक्षा भी ग्रहण की।

प्रतिभा का सम्मान

एक राजा को चित्रकारी का बहुत शौक था। वह अपने राज्य के योग्य चित्रकारों को समय-समय पर सम्मानित भी करता रहता था। एक बार राजा ने एक चित्रकला प्रतियोगिता का आयोजन रखा और दूर-दूर से मशहूर चित्रकारों को आमंत्रित किया। अनेक चित्रकार निर्धारित स्थल पर पहुंचने लगे। राजा ने सभी चित्रकारों को यथोचित सम्मान व स्थान देकर उन्हें ठहराया। एक चित्रकार बेहद गरीब सा दिख रहा था। वह फटे-पुराने मगर स्वच्छ वस्त्र पहने था। राजा ने उसे एक नजर देखा, फिर अनदेखा कर दिया। नियत समय पर प्रतियोगिता आरंभ हो गई। निर्णय करते समय तीन श्रेष्ठ चित्रों को चुना गया। अंत में निर्णायकों द्वारा उन तीन में से सर्वश्रेष्ठ चित्र को पुरस्कार देने की घोषणा की गई।

पुरस्कृत चित्र के चित्रकार का नाम पुकारे जाने पर वही गरीब चित्रकार मंच पर आया। उसे देखकर राजा ने पुरस्कार दिया और कुछ दिन के लिए राजमहल में ठहरने का निवेदन किया। कुछ दिन राजमहल में बिता कर जब चित्रकार लौटने लगा तो राजा ने उसे बहुमूल्य उपहार दिए और उससे बहुत ही विनम्रता से पेश आया। यह देखकर चित्रकार बोला, 'महाराज, जब मैं प्रारंभ में आपके पास आया था तो आपने मुझे देखकर भी अनदेखा कर दिया था, किंतु आज आप मेरे साथ बहुत ही सम्मानपूर्वक पेश आ रहे हैं। आखिर आपके व्यवहार में यह बदलाव क्यों?'

उसकी बात पर राजा मुस्कुराया फिर बोला, 'जब आप प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए आए थे तो आप मेरे लिए अनजान थे और साथ ही मैं आपकी प्रतिभा से भी अनजान था। तो आपकी वेश-भूषा और रूप -रंग के आधार पर ही अपना व्यवहार तय किया। अब मुझे आपकी प्रतिभा की भी जानकारी हो गई, इसलिए मेरे व्यवहार में आपके साथ आपकी प्रतिभा के प्रति भी सम्मान झलक रहा है। व्यक्ति की पहचान उसके काम से ही होती है। मेरे लिए उस समय भी आपकी आर्थिक स्थिति का कोई महत्व नहीं था और आज भी नहीं है। मैं आपकी प्रतिभा को तराशकर उसे चोटी पर पहुंचाने का प्रयास कर रहा हूं।' सुनकर चित्रकार संतुष्ट हो गया।

नेपोलियन की उदारता

नेपोलियन बोनापार्ट के आदेश से फ्रांसीसी तट पर अंग्रेजों के जहाज पकड़ लिए गए। जहाज पर सभी लोगों को बंदी बना लिया गया। उनमें एक 17 वर्ष का लड़का लेनार्ड भी था। उसे भी जेल में डाल दिया गया। कुछ दिनों बाद उसे समाचार मिला कि उसकी मां बहुत बीमार है। बचने की आशा नहीं थी। मां की आखिरी इच्छा लेनार्ड को देखने की थी। वह उसी रात मां को याद करता हुआ जेल से भाग निकला, लेकिन थोड़ी ही दूर जा पाया था कि पकड़ा गया। अगले दिन उसने दोबारा भागने का प्रयास किया, पर फिर से पकड़ लिया गया। इस बार उस पर बहुत सख्ती की गई, पांवों में बेड़ियां डाल दी गईं और नेपोलियन को शिकायत की गई।

लेनार्ड को नेपोलियन के सामने पेश किया गया। नेपोलियन ने लड़के से पूछा, 'ऐसी कौन सी वजह है कि तुम बार-बार यहां से भागने का दुस्साहस करते हो?' लेनार्ड ने रोते हुए कहा, 'मेरी मां मर रही है, मरने से पहले मुझे देखना चाहती है।' नेपोलियन ने जेलर को बुलाकर कहा, 'इस लड़के के घर जाने का इंतजाम करवाओ।' जेलर चौंक गया। नेपोलियन ने कहा, 'हैरान होने की बात नहीं है। इसके चेहरे से साफ लग रहा है कि इसे मां की ममता अपनी ओर खींच रही है। नेपोलियन इतना कठोर नहीं कि मां की ममता की कद्र न कर सके। इसे जाने दो।' नेपोलियन की उदारता देखकर वह लड़का उसके आगे नतमस्तक हो गया। नेपोलियन खुद मां के स्नेह के लिए हमेशा बेचैन रहा। यह उसी का परिणाम था।

सुख का सार

एक व्यक्ति अपने जीवन से बहुत परेशान था। हारकर वह एक संत के पास पहुंचा और उन्हें अपनी समस्या बताई। युवक की बात सुनकर संत ने एक कांच का जार मंगवाया और उसमें ढेर सारी खूबसूरत रंग-बिरंगी गेंदे भर दीं फिर युवक से पूछा, 'क्या यह जार भर गया है?' युवक बोला, 'हां महाराज, जार तो गेंदों से भर गया है।' युवक की बात सुनकर संत मुस्कराए और उन्होंने उस जार में छोटे-छोटे मोती भरने शुरू कर दिए। मोती जार में उस जगह पर समा गए जहां पर गेंदों के बीच रिक्त स्थान बचा हुआ था।

इसके बाद उन्होंने युवक से फिर पूछा, 'क्या अब जार भर गया है?' युवक जार को भलीभांति देखकर बोला, 'हां, अब तो इसमें कहीं भी जगह शेष नहीं है।' फिर संत ने जार में रेत डालना शुरू किया। रेत भी जार में मोती के साथ बचे रिक्त स्थान में समा गई। यह देखकर युवक बहुत हैरान हुआ। संत बोले, 'बेटा, इस कांच के जार को तुम अपना जीवन समझो। इसमें जो रंग-बिरंगी गेंदे हैं वो तुम्हारे जीवन का आधार यानी परिवार हैं। इसमें जो अनेक मोती हैं वे तुम्हारा रोजगार, आवास, शिक्षा आदि हैं। और जो रेत है वह जीवन में होने वाले झगड़े, मनमुटाव, तनाव, क्लेश आदि हैं। जीवन ऐसा ही होना चाहिए। अब यदि तुम जार में पहले रेत ही रेत भर दो, तो उसमें गेंदों व मोती के लिए जगह ही नहीं बचेगी। इसलिए पहले अपने जीवन को रंग-बिरंगी गेंदों व मोतियों से भरो।' युवक को सुख का सार समझ में आ गया।

संकल्प

एक बार नानक काशी के पास एक गांव में प्रवचन कर रहे थे। प्रवचन के बीच में उन्होंने कहा , सफलता के लिए प्रत्येक व्यक्ति को आशावादी होना चाहिए। प्रवचन खत्म होने के बाद एक भक्त ने पूछा , गुरु जी , क्या किसी चीज की आशा करना ही सफलता की कुंजी है। नानक ने कहा , नहीं , केवल आशा करने से कुछ नहीं मिलता। मगर आशा रखने वाला मनुष्य ही कर्मशील होता है। लेकिन उस आदमी की समझ में ये बातें नहीं आ रही थी। उसने कहा , गुरु जी , आप की गूढ़ बातें मेरी समझ में नहीं आ रही हैं। उस समय खेतों में गेहूं की कटाई हो रही थी। तेज गर्मी पड़ रही थी। नानक ने कहा , चलो मेरे साथ। तुम्हारे प्रश्न का जवाब वहीं दूंगा।

नानक उस आदमी को अपने साथ लेकर खेतों की तरफ चले गए। उन्होंने देखा कि एक खेत में दो भाई गेहूं की कटाई कर रहे थे। बड़ा भाई तेजी से कटाई करता आगे था दूसरा भाई पीछे था। नानक उस आदमी के साथ वहीं एक आम के पेड़ के नीचे बैठ गए। दोपहर हो गई थी। छोटा भाई बोला , भइया , आज तो पूरी कटाई हो नहीं पाएगी। अभी बहुत बाकी है , कल सुबह आकर काट लेंगे। बड़े भाई ने कहा , अब ज्यादा कहां बचा है। देखता नहीं , थोड़ा ही तो रह गया है। इन दो कतारों को काट लेंगे तो बाकी बारह कतारें रह जाएगी। इतना तो आराम से काट लेंगे। कल पर क्यों टालता है। बड़े भाई की बात सुन कर छोटा भाई जोश में आ गया और उसका हाथ भी तेजी से चलने लगा। थोड़ी देर में पूरा खेत कट गया। खेत कटने के बाद नानक वहां से चलने लगे तो भक्त ने कहा , मेरे प्रश्न का उत्तर तो शेष है। नानक ने कहा , तुम्हारे प्रश्न का जवाब तो उन दोनों भाइयों ने दे दिया जो खेत में गेहूं काट रहे थे। बड़ा भाई आशावादी था , तभी तो कटाई पूरी हुई। भक्त को अपने प्रश्न का उत्तर मिल गया।

राजा की प्रशंसा

लगभग डेढ़ हजार साल पहले बोधिधर्म नामक एक भिक्षु चीन की यात्रा पर गया। वहां का राजा वू बहुत ही धार्मिक प्रवृत्ति का था। उसने बहुत से मंदिर व मूर्तियां बनवाई हुई थीं। लोग राजा वू की प्रशंसा करते नहीं थकते थे। जब वू को पता चला कि भारत से कोई बौद्ध भिक्षु आए हैं, तो वह मिलने पहुंचा। उसने बोधिधर्म से पूछा, 'हे बोधि, मैंने इतने मंदिर बनवाए, मूर्तियां बनवाईं, धर्म के लिए अथाह पैसा बहाया, लेकिन मुझे यह सब करने से क्या मिलेगा?' राजा वू का प्रश्न सुनकर बोधिधर्म मुस्कुराते हुए बोले, 'कुछ भी नहीं।' सुन कर राजा चकित रह गया। उसने सोचा था कि उसे खूब वाहवाही मिलेगी। अभी तक जिन भिक्षुओं से भी उसकी बातचीत हुई थी, सभी ने उसकी मुक्त कंठ से सराहना की थी और उसकी दान भावना को सराहा था। वू ने बोधिधर्म का जवाब सुनकर पूछा, 'ऐसा क्यों? मैं धार्मिक व्यक्ति हूं। खुले हाथों से दान करता हूं। मंदिरों व धार्मिक कार्यों के लिए धन देने में किसी भी बाधा की परवाह नहीं करता। फिर आपने ऐसा क्यों कहा?'

उसकी बात पर बोधिधर्म बोले, 'इसलिए क्योंकि यह सब कुछ तुमने अपनी प्रशंसा व स्वार्थ के ध्येय से किया है, श्रद्धावश नहीं किया। श्रद्धावश किया होता तो मन में यह प्रश्न ही नहीं उठता कि मुझे क्या मिलेगा। राजा ने पूछा, तब मुझे क्या करना चाहिए? बोधिधर्म ने समझाया, अपने मन से पूछो कि क्या तुम अपनी प्रजा की प्रसन्नता के लिए व्याकुल रहते हो, उनकी मदद को आतुर रहते हो। भला ईश्वर को मंदिरों या मूर्तियों का क्या मोह? सच्चे मन से याद करो तो एक निर्धन-लाचार में भी नारायण के दर्शन हो सकते हैं। ईश्वर तो कण-कण में है, उसे रूप देने की क्या आवश्यकता? मात्र ईश्वर का गुणगान करने से ही तुम धार्मिक सिद्ध नहीं हो जाते। बोधिधर्म की बातें सुनकर राजा वू की आंखें खुल गईं और उसने मंदिर बनवाने की जगह सच्चे दिल से प्रजा की सेवा करनी आरंभ कर दी।

जीवन रूपी जागीर

तर्कशास्त्र के महान पंडित रामनाथ नवद्वीप के वन में एक गुरुकुल चलाते थे। उस समय कृष्णनगर में महाराज शिवचंद्र का शासन था। उन्होंने जब पं. रामनाथ की कीर्ति सुनी, तो उनसे मिलने गए। पंडित जी अपनी छोटी सी झोपड़ी में शांत भाव से विद्यार्थियों को पढ़ा रहे थे। महाराज को देख पं. रामनाथ जी ने उनका उचित स्वागत-सत्कार किया। कुशल-क्षेम पूछने के उपरांत कृष्णनगर नरेश ने उनसे पूछा, पंडित प्रवर, मैं आपकी क्या मदद करूं? रामनाथ जी ने कहा, राजन, भगवत्कृपा ने मेरे सारे अभाव मिटा दिए हैं, मैं संतुष्ट हूं।

राजा शिवचंद्र कहने लगे, विद्वत् वर, मैं घर के खर्च के बारे में पूछ रहा हूं। रामनाथ जी मुस्कराए। फिर शिवचंद्र की मन:स्थिति को भांपकर कहा, घर के खर्चों के बारे में तो गृहस्वामिनी ही अधिक जानती हैं। उन्हीं से पूछ लें। महाराज पंडित जी के घर गए और उनकी पत्नी से पूछा, माताजी घर खर्च के लिए कोई कमी तो नहीं है? इस पर उन परम साध्वी ने कहा, महाराज, भला सर्व समर्थ परमेश्वर के रहते उनके भक्तों को क्या कमी रह सकती है? फिर भी माताजी?

महाराज, कोई कमी नहीं है। पहनने को कपड़े हैं, सोने के लिए बिछौना है। पानी रखने के लिए मिट्टी का घड़ा है। खाने के लिए विद्यार्थी ले आते हैं। झोपड़ी के बाहर जमीन में साग-भाजी हो जाती है। और भला क्या जरूरत होगी? गुरुपत्नी बोलीं। शिवचंद्र ने कहा, फिर भी हम आपको कुछ गांवों की जागीर देना चाहते हैं। इसकी आय से गुरुकुल भी ठीक तरह से चल सकेगा और आपके जीवन में भी कोई अभाव नहीं रहेगा।

उत्तर में वह वृद्धा मुस्कराईं और कहने लगीं, राजन, प्रत्येक मनुष्य को परमात्मा ने जीवन रूपी जागीर पहले से ही दे रखी है। जो जीवन की इस जागीर को भली प्रकार संभालना सीख जाता है, उसे फिर किसी चीज का कोई अभाव नहीं रह जाता। नरेश का मस्तक श्रद्धा से झुक गया।

सोचो फिर बोलो

एक बूढ़ा व्यक्ति अपने पड़ोस में रहने वाले एक युवक को पसंद नहीं करता था। एक दिन गांव में चोरी हो गई। बूढ़े व्यक्ति ने कहना शुरू किया कि उसी युवक ने चोरी की होगी। धीरे-धीरे बात पूरे गांव में फैल गई। यहां तक कि गांव वालों ने उसे राजा के सिपाही से गिरफ्तार भी करवा दिया। परंतु जांच होने पर असली चोर कोई और निकला और वह युवक पूरी तरह निर्दोष पाया गया। लेकिन युवक जेल से छूट कर जब वापस आया, तब भी गांव के अनेक लोगों का दृष्टिकोण नहीं बदला। वे उससे कतराने लगे। इससे आहत हो कर युवक ने एक दिन उस बूढ़े आदमी को मार डालने की धमकी दे डाली। बूढ़ा इसकी शिकायत लेकर पंचायत में पहुंचा। सरपंच ने दोनों को बुलाकर पूरी बात सुनी। फिर बूढ़े से कहा, 'पहली गलती तो आपसे ही हुई है, दूसरी गलती युवक ने धमकी दे कर की। दोनों एक-दूसरे से क्षमा मांगें।'

युवक ने तो क्षमा मांग ली, परंतु बुजुर्ग झगड़ने लगा और बोला, पूरे गांव में इसके चोर होने की बात मैंने तो नहीं फैलाई।' इस पर सरपंच ने कहा कि वह एक कागज पर शब्दश: वह बात लिख दे जो उसने युवक के बारे में अपने पड़ोसियों से कही थी। बुजुर्ग ने वैसा ही किया। उसके बाद सरपंच ने उस कागज के कई टुकड़े कर दिए और बुजुर्ग से जाते समय राह में वे टुकड़े गिरा देने को कहा। फिर अगली सुबह सरपंच ने उनसे सारे टुकड़ों को वापस बटोर लाने को कहा। बुजुर्ग ने वही किया, परंतु टुकड़े काफी कम रह गए थे। कुछ टुकड़ों को हवा पता नहीं कहां उड़ा ले गई। तब सरपंच ने कहा, 'तुम्हारे मुंह से निकले हुए शब्द भी इसी प्रकार कहां से कहां तक जा सकते हैं, इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता। इसीलिए असत्य या फिर जिस विषय में पूर्ण जानकारी न हो, उसके बारे में गलत राय देना भी सही नहीं है।' बुजुर्ग को अपनी गलती का अहसास हो गया।

पाप का गुरु

एक पंडित जी कई वर्षों तक काशी में शास्त्रों का गहन अध्ययन करने के बाद अपने गांव लौटे। गांव के एक किसान उनसे पूछा , पंडित जी , आप हमें यह बताइए कि पाप का गुरु कौन है। उसका प्रश्न सुन कर पंडित जी चकरा गए। उन्हें लगा कि अध्ययन अभी अधूरा है , इसलिए वे फिर काशी लौटे। मगर उन्हें किसान के सवाल का जवाब नहीं मिल रहा था। एक दिन उनकी मुलाकात एक वेश्या से हुई।

उसने पंडित जी से उनकी परेशानी का कारण पूछा तो पंडित जी ने उसे अपनी समस्या बता दी। वेश्या बोली , ' इसका तो बहुत आसान सा उत्तर है , लेकिन इसके लिए आप को कुछ दिन मेरे पड़ोस में रहना होगा। ' उसने अपने पास ही पंडित जी के रहने की अलग से व्यवस्था कर दी। पंडित जी किसी के हाथ का बना खाना नहीं खाते थे। इसलिए अपने हाथ से खाना बनाते और खाते। एक दिन वेश्या बोली , ' पंडित जी , आप को बहुत तकलीफ होती है खाना पकाने में। यहां देखने वाला तो कोई है नहीं। आप कहें तो मैं नहा - धो कर भोजन पका दिया करूं। आप सेवा का मौका देंगे तो मैं दक्षिणा में पांच स्वर्ण मुद्राएं भी प्रतिदिन दूंगी। '

स्वर्ण मुद्रा का नाम सुन कर पंडित जी को लोभ आ गया। उन्होंने कहा , ' ठीक है। ' पहले दिन उसने कई तरह के पकवान बना कर पंडित जी के सामने परोसा। पर ज्यों ही पंडित जी खाने को हुए कि उसने उनके सामने से थाली खींच ली। पंडित जी बोले , ' यह क्या मजाक है। ' उसने कहा , ' यह मजाक नहीं , आप के प्रश्न का उत्तर है। यहां आने के पहले आप किसी के हाथ का पानी भी नहीं पीते थे , मगर स्वर्ण मुद्राओं के लोभ में आपने मेरे हाथ का बना खाना खाना भी स्वीकार कर लिया। यह लोभ ही पाप का गुरु है। अगर कोई लोभ न करें तो वह कोई पाप करेगा ही नहीं। '

खुशी का राज

एक बार एक सज्जन पंडित जवाहरलाल नेहरू से मिलने आए और बोले, 'यदि आप इजाजत दें तो मैं आपसे कुछ पूछना चाहता हूं।' नेहरू जी ने सहर्ष इसकी अनुमति दे दी। उनकी सहमति मिलने पर उस सज्जन ने कहा, 'आप इस उम्र में भी एकदम ताजा गुलाब की तरह स्वस्थ और आकर्षक नजर आते हैं जबकि आपके ऊपर काम का अत्यधिक बोझ है। लेकिन आपको तो देखकर लगता है कि आप पर जैसे उम्र का कोई असर ही नहीं है।

अपनी प्रसन्नता का रहस्य हमें बताएं।' यह सुनकर नेहरू जी हंसकर बोले, 'अरे भाई, यह तो बहुत ही सहज है। कोई भी व्यक्ति यदि केवल तीन बातों पर ध्यान दे तो वह भी हमेशा ताजा गुलाब की तरह तरोताजा रह सकता है।' उस सज्जन ने पूछा, 'वे कौन सी तीन बातें हैं। हमें भी तो बताइए।' नेहरू जी ने कहा, 'सबसे पहली बात तो यह कि मैं बच्चों से घुल-मिल जाता हूं, उन्हें प्यार करता हूं। उनके भोलेपन और मासूमियत में मैं स्वयं को भी उन्हीं के जैसा महसूस करता हूं।

कभी-कभी बच्चों के साथ बच्चा बनकर खेलने में बहुत आनंद आता है और दिल को सुकून मिलता है। दूसरी बात, मैं कुदरत के सुंदर दृश्यों से गहरा संबंध रखता हूं। पहाड़, नदी, झरने, पक्षी, चांद, सितारे, हरे-भरे जंगल और हवाएं भी मेरी जिंदगी को गुलाब की तरह ताजा रखती हैं। प्रकृति से तो स्वास्थ्य का बहुत गहरा संबंध है। तीसरी बात, ज्यादातर लोग छोटी-छोटी किस्म की बातों में फंस कर तनावग्रस्त हो जाते हैं। मैं ऐसा नहीं करता।

जिंदगी को लेकर मेरी सोच और नजरिया बिल्कुल अलग है। जीवन है तो समस्याएं भी होंगी। इसलिए सबका मुकाबला धैर्य और शांति से करें। यह जान लीजिए कि समस्याएं हमेशा रहेंगी। अगर हम उनसे डरकर तनावग्रस्त हो जाएं तो हमारा जीवन संकटग्रस्त हो जाएगा।' नेहरू जी की बात से वह सज्जन संतुष्ट हो गए।

सफलता का नशा

किसी आश्रम में अनेक छात्र रहते थे। उनमें से एक छात्र को अपनी बुद्धि पर काफी अभिमान हो गया था। एक दिन गुरु ने उसे एक कथा सुनाई- घने जंगल में एक बकरी रहती थी। वह अपने को काफी चतुर मानती थी। उसके शरीर पर घने नर्म लंबे बाल थे, जिस कारण वह बहुत सुंदर दिखती थी। एक दिन वह घास चर रही थी। तभी कुछ शिकारियों की नजर उस पर पड़ी। उन्होंने उसका पीछा करना शुरू किया। बकरी भागती हुई जंगल में एक ऐसी जगह पहुंची, जहां अंगूर की घनी बेलें थीं। बकरी बेलों के पीछे जाकर छिप गई।

जब पीछा करते शिकारी पहुंचे, तो वे बकरी को देख न सके। बड़ी देर तक वहां ढूंढने के बाद वे आगे बढ़ गए। बकरी अपनी चतुराई पर बहुत प्रसन्न हुई। तभी उसका ध्यान अंगूर के कोमल पत्तों पर गया तो उसने अंगूर की बेल को ही चरना आरंभ कर दिया। थोड़ी देर में ही उसने सारी झाड़ी चट कर डाली। तभी शिकारी उसे ढूंढते वापस वहां आ पहुंचे ओर उन्होंने बकरी को देख लिया और थोड़ी देर पीछा करने के बाद उन्होंने उसका शिकार कर लिया। शिकारी आपस में कह रहे थे कि यदि बकरी ने वह झाड़ी साफ न की होती तो उसे पकड़ना नामुमकिन था। बकरी ने अपना आश्रय स्वयं नष्ट किया और वह शिकार हो गई। गुरु नेकथा यहीं समाप्त कर कहा, 'सफलता के नशे में मनुष्य अपना विवेक खो देता है और स्वयं को संकट में डाल लेता है। इसलिए अहंकार से बचना चाहिए।' शिष्य गुरु का आशय समझ गया।

अनोखा पुरस्कार

खलीफा उमर ईमानदारी और सादगी में यकीन करते थे। उनका हुक्म था कि चोगा बनाने के लिए शाही भंडार से सभी लोगों को एक समान कपड़ा दिया जाए। खुद उन्हें भी उससे अलग न रखा जाए। इस हुक्म का कड़ाई से पालन हो। एक बार वह भाषण दे रहे थे। भाषण के दौरान उन्होंने लोगों से पूछा, 'क्या आप लोग हमारे सभी हुक्म मानेंगे?' सभी लोगों ने हाथ उठा कर सहमति जाहिर की, मगर एक महिला ने हाथ नहीं उठाया। खलीफा ने उससे पूछा, 'क्या तुम मेरा हुक्म नहीं मानोगी?' उस महिला ने कहा, 'कभी नहीं।' खलीफा ने पूछा, 'क्यों?' उसने कहा, 'मैं आप का हुक्म कैसे मान सकती हूं, जब आप ने खुद ही अपने आदेश का उल्लंघन किया है।' खलीफा ने कहा, 'मैं कुछ समझा नहीं।'

महिला बोली, 'आप देख लीजिए। आप इतना लंबा चोगा पहने हुए है जबकि मेरे पति का चोगा घुटनों तक ही आता है। इससे जाहिर है कि आप ने शाही भंडार से अपने हिस्से से ज्यादा कपड़ा लिया है।' खलीफा की समझ में कुछ नहीं आया कि क्या कहें। तभी उनके बेटे ने खड़े होकर कहा, 'इसमें खलीफा दोषी नहीं हैं। उन्होंने ज्यादा कपड़ा नहीं लिया है। उनका चोगा बड़ा हो, इसलिए मैंने अपने हिस्से का थोड़ा कपड़ा उन्हें दिया है। देखिए मेरा चोगा सबसे छोटा है।' यह सुन कर महिला बोली, 'मुझसे गलती हुई। मुझे माफ किया जाए।' लेकिन वहां बैठे लोग कहने लगे कि खलीफा का अपमान करने वाले को सख्त से सख्त सजा दी जाए। उनकी बातें सुन खलीफा ने कहा, 'इस महिला ने कोई गलत काम नहीं किया है। यहां जितने लोग बैठे हैं, उनमें एक यही है जिसमें बेखौफ होकर अपनी बात कहने की हिम्मत है। यह महिला मुल्क की अमूल्य धरोहर है। मैं उसके साहस को सलाम करता हूं। आज ऐसे ही लोगों की जरूरत है।' महिला को सजा देने की बात करने वालों के सिर शर्म से झुक गए।

सौंदर्य की खोज

एक व्यक्ति हमेशा परेशान और उद्विग्न सा रहता था। उसकी परेशानी मानसिक थी। उसे सर्वोत्तम सौंदर्य की तलाश थी। एक दिन उसने बिना कुछ कहे-सुने चुपचाप घर छोड़ दिया। वह इधर-उधर भटकता रहता और अपने प्रश्न का उत्तर खोजने का प्रयास करता रहता। इसी तरह बहुत समय बीत गया। एक दिन वह किसी जंगल से गुजर रहा था। वहां उसने एक तपस्वी को साधना करते पाया। वह वहीं ठहर गया। तपस्वी का ध्यान टूटने पर व्यक्ति ने उससे पूछा, 'सर्वोत्तम सौंदर्य क्या है?'

तपस्वी का उत्तर था, 'श्रद्धा ही सबसे सुंदर है, जो मिट्टी को भी भगवान बना देती है।' व्यक्ति संतुष्ट नहीं हुआ। यात्रा के अगले पड़ाव पर उसे एक गुणी सज्जन मिले। उसने अपना यह प्रश्न उनके समक्ष रखा तो वह बोले, 'प्रेम ही सर्वोत्तम सौंदर्य है। प्रेम न हो, तो जीवन की सुंदरता को कुरूपता में बदलते देर नहीं लगती।' व्यक्ति फिर भी संतुष्ट नहीं हुआ। आगे चलकर उसे युद्ध से लौटता सैनिक मिला।

सैनिक से पूछने पर उसका उत्तर था, 'शांति ही सर्वोत्तम सौंदर्य हैं क्योंकि संघर्ष की भयानक विनाशलीला मैं स्वयं देखकर आ रहा हूं।' व्यक्ति अब भी संतुष्ट नहीं था और निराश होकर घर लौट आया। घर के सभी लोग उसकी प्रतीक्षा में व्याकुल हो रहे थे। दुखी पत्नी, और आंसू बहाते अपने बच्चों से मिलकर उस व्यक्ति को अपार सुख का अनुभव हुआ। उसने महसूस किया कि आत्मीयता, स्नेह और श्रद्धा का मिला-जुला सौंदर्य तो घर में ही था और वह व्यर्थ इन्हें बाहर खोजने का प्रयास कर रहा था। घर अपने आप में सभी सौंदर्य को समेटे हुए है।

अनोखा फैसला

पुरानी कथा है। चीन में एक विचारक की काफी धूम थी। लोग उससे बेहद प्रभावित थे। राजा ने उसकी तारीफ सुन उसे न्यायाधीश बना दिया। उन्हीं दिनों नगर के सबसे धनवान सेठ के घर में चोरी हो गई। सब जानते थे कि सेठ ने इतनी अकूत संपत्ति बेईमानी व लोगों का शोषण करके इकट्ठा की है। किंतु चोरी तो चोरी थी इसलिए चोर को पकड़ने के लिए अभियान छेड़ा गया। चोर पकड़ा गया। उसने अपनी गलती स्वीकार कर ली। न्यायाधीश ने उसे चोरी के जुर्म में एक साल की सजा सुना दी।

चोर को सजा सुनाने के बाद न्यायाधीश ने सेठ की संपत्ति की जांच शुरू करवा दी लेकिन सेठ की दलील थी कि उसने सारी कमाई तिजारत से हासिल की है। उसने किसी का शोषण कर या गलत तरीके से धन अर्जित नहीं किया है। लेकिन न्यायाधीश ने इस बात को नहीं माना। उसने फैसला सुनाते हुए कहा, 'इस संपत्ति का कुछ हिस्सा चुराने वाले चोर को तो एक वर्ष की सजा दी गई है मगर इस संपत्ति के मालिक को दो वर्ष की सजा दी जाती है।' सेठ ने फैसले पर सवाल उठाया तो न्यायाधीश ने कहा, 'चोर ने तो चोरी की बात मान ली। उसके हृदय परिवर्तन की गुंजाइश है। लेकिन तुमने तो झूठ बोलकर सही रास्ते पर आने के सारे रास्ते बंद कर लिए हैं। चोर को सजा जरूर मिलनी चाहिए किंतु जब तक केवल चोरों को सजा मिलती रहेगी और आम आदमी का शोषण करने वाले खुलेआम घूमते रहेंगे तब तक चोरी बंद नहीं होगी। इसलिए तुम्हें सजा सुनाई गई है।'

सच्चा धर्मगुरु

गुरु अपने कुछ शिष्यों के साथ मेले में गए। उन्होंने देखा कि एक स्थान पर बैठकर कुछ बाबा माला फेर रहे थे। उन्होंने अपने सामने एक चादर भी फैला रखी थी जिस पर आते-जाते लोग सिक्के डाल जाते थे। साधु आंखें बंद करके बैठे रहते जैसे ध्यान में मगन हों। लेकिन बीच-बीच में वे थोड़ी देर के लिए आंखें खोलकर सामने बिछी चादर पर देख लेते कि उस पर कितने पैसे इकट्ठे हुए। उन्हें ऐसा करते देखकर गुरु हंस पड़े। उन्होंने शिष्यों को आगे चलने को कहा। आगे एक तपस्वी शीर्षासन कर रहा था। वहां भी भारी भीड़ जमा थी। उसे देखकर गुरु ने जोर का ठहाका लगाया। फिर वह अपने शिष्यों को लेकर आगे चल पड़े। आगे एक पंडितजी भागवत कथा सुना रहे थे। उनके सामने चेलों की जमात बैठी थी। बीच-बीच में जयकारे लगते और कीर्तन भी होने लगता। बार-बार कथा के अयोजक लोगों से श्रद्धा-भक्तिपूर्वक दान देने की अपील करते। कथा के कार्यकर्ता दानपात्र लेकर श्रोताओं के बीच में घूमने भी लगते और कथा सुनने वाले भक्त उस पात्र में कुछ न कुछ डालते। उन्हें देखकर गुरु फिर खिलखिलाकर हंसे।

उससे आगे एक कैंप में एक डॉक्टर रोगियों की सेवा में लगा था। गुरु कुछ देर वहां रुके रहे। उनकी आंखों में आंसू आ गए। आश्रम लौटने पर शिष्यों ने गुरु से पहले तीन स्थानों पर हंसने और चौथे स्थान पर रोने का कारण पूछा, तो गुरु ने उत्तर दिया, 'आज माला, आसन, प्राणायाम और भागवत कथा को ही धर्म समझकर अधिकतर लोग ढोंग कर रहे हैं। यह देखकर हंसी आ गई, जबकि भगवान का काम करने वाला बस एक डॉक्टर दिखा। यह देखकर दुख हुआ कि लोग धर्म के वास्तविक अर्थ को न जाने कब समझेंगे? सच्चा धर्म संसार की सेवा करना और उसे सुधारना है, जप तप करना नहीं।' गुरु की बातों में सभी शिष्यों को अपने प्रश्न के उत्तर के साथ-साथ धर्म के वास्तविक अर्थ को समझने का सूत्र भी मिला।

राजा की उदारता

राजा जनक को राजमार्ग पर आना था, इसलिए उसे खाली कराया जा रहा था। सैनिक इस कार्य में तत्परता से जुटे थे। संयोगवश उस समय वहां से ऋषि अष्टावक्र गुजर रहे थे। जब सैनिकों ने उन्हें राजमार्ग से हटने को कहा तो उन्होंने साफ मना कर दिया। जब सैनिक उनसे इसके लिए प्रार्थना करने लगे तो वह बोले, 'मेरी बात राजा तक पहुंचा देना कि अपनी सुविधा के लिए वह यह बहुत गलत काम कर रहे हैं। राजा का कार्य प्रजा को सुख-सुविधा देना है कष्ट देना नहीं। एक विद्वान व न्यायप्रिय राजा होते हुए उन्हें यह कार्य शोभा नहीं देता।' उनकी यह बात सुनते ही उन्हें बंदी बना लिया गया और राजा जनक के सामने पेश किया गया।

जनक ने अष्टावक्र की पूरी बात सुनी। फिर उन्होंने राजदरबार में उपस्थित लोगों से कहा, 'हम ऋषिवर के साहस की प्रशंसा करते हैं। इन्होंने हमारे गलत कार्य की जानकारी देकर हम पर उपकार किया है। ये अपराधी नहीं हैं। बल्कि इन्होंने तो हमें सचाई की राह दिखाई है। यह एक साहसी सत्पुरुष हैं। इसलिए इन्हें दंड नहीं बल्कि पुरस्कार मिलना चाहिए। हम ऋषिवर के अनुसार अपने आचरण में सुधार लाने को तैयार हैं। भविष्य में हमसे ऐसी गलती दोबारा न हो इसलिए हम आज से इन्हें राजगुरु का पद सौंपते हैं। आगे से ये राजकाज से संबंधित प्रमुख कार्यों के बारे में हमें सलाह देंगे। मैं उम्मीद करता हूं कि भविष्य में भी राजगुरु केवल सचाई और न्याय पक्ष का ही समर्थन करेंगे।' इसके बाद उन्होंने अष्टावक्र को प्रणाम किया। अष्टावक्र ने उन्हें गले से लगा लिया ।

प्रेम का बल

एक मां अपने बेटे की शरारतों से बहुत परेशान रहती थी। वह अपने बेटे को समझाने के लिए उस पर बहुत गुस्सा करती थी लेकिन बच्चा कोई बात नहीं समझता था। बच्चे की हरकतों से वह परेशान रहने लगी। एक दिन वह अपने बेटे को लेकर एक फकीर के पास गई। उसने फकीर से कहा, 'मेरा बेटा बहुत शरारतें करता है। यह उपद्रवी है, आप अगर इसे थोड़ा डरा दें तो हो सकता है, यह ठीक हो जाए।' फकीर ने जब यह सुना तो वह खड़ा होकर अपनी आंखें निकालकर इतनी जोर से चिल्लाया कि वह बच्चा तो भय के मारे भाग ही गया, उसकी मां भी घबराकर बेहोश हो गई। थोड़ी देर बाद बच्चा अपनी मां के पास लौटा। तब तक मां को भी होश आ गया था। मां ने होश में आने पर फकीर से कहा, 'आपने तो हद ही कर दी। मैंने आपसे इतना डराने के लिए तो नहीं कहा था।'

फकीर ने कहा, 'भय का कोई पैमाना नहीं होता। भय तो भय होता है। जब भय दिखाया जाता है तो पता ही नहीं चलता कि उसे कहां रोका जाए।' मां बोली, 'मैंने तो बच्चे को डराने के लिए कहा था, आपने तो मुझे भी डरा दिया।' फकीर बोला, 'भय जब प्रकट होता है तो ऐसा नहीं हो सकता कि वह एक को डराए, दूसरे को न डराए। तुम्हारी क्या बात करें, मैं तो स्वयं भयभीत हो गया था। देखो, जहां भय है वहां प्रेम पैदा नहीं हो सकता। इसलिए अब कभी भी अपने बच्चे को भयभीत करने की कोशिश न करना। सुधारने का काम डर से नहीं, प्रेम से होता है। प्रेम का बल डर के बल से बहुत अधिक होता है। बच्चे को सही रास्ते पर लाना है तो उसके प्रति स्नेह का व्यवहार करो।' उस दिन के बाद मां ने बच्चे पर कभी गुस्सा नहीं किया। अब वह उसे सभी बातें प्यार से समझाने लगी।

सोच का फर्क

जूतों की एक प्रसिद्ध कंपनी ने विदेश में अपना कारोबार फैलाने की योजना बनाई। इसके लिए मालिक ने अपनी कंपनी के एक सेल्समैन को पड़ोस के एक देश में जूतों के इस्तेमाल का जायजा लेने भेजा। सेल्समैन उस देश में जगह-जगह घूमा और उसने वहां हर चीज के बारे में विस्तार से जानकारी हासिल की। फिर वह वापस स्वदेश लौटकर आया और कंपनी के मालिक से बोला, 'मैंने वहां जगह-जगह घूम कर हर चीज का बारीकी से मुआयना किया और अंत में इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि वहां पर जूते की कंपनी खोलने के बारे में सोचना भी बेकार है क्योंकि वहां तो लोग जूते पहनते ही नहीं हैं। अब भला जो जूतों के बारे में जानते ही न हों वे उसकी खरीदारी कैसे करेंगे?'

मालिक ने इस पर कुछ नहीं कहा और दूसरे सेल्समैन को भी यही पता करने भेजा। दूसरा सेल्समैन तत्काल चला गया। उसने वहां से लौटकर अपने मालिक से कहा, 'बहुत ही अच्छी खबर है। वहां हमारा व्यापार बहुत अच्छी तरह जम जाएगा क्योंकि वहां के लोग जूते नहीं पहनते। बस एक बार हमें उन्हें जूतों का महत्व समझाना होगा। जब सभी लोग जूतों के महत्व को समझ जाएंगे तो वे इन्हें जरूर खरीदना चाहेंगे। ऐसे में हमारी कंपनी को वहां बहुत लाभ होगा। इसके बाद हमारी कंपनी वहां स्थायी रूप से स्थापित हो सकती है।' मालिक ने तुरंत वहां कंपनी खोली और उस सेल्समैन को वहां का मैनेजर बना दिया और कहा, 'दुनिया सकारात्मक सोच से आगे बढ़ती है। सकारात्मक सोच वाला ऊंचाइयों पर पहुंच जाता है।'

उदारता की जीत

राजा चंद्रसेन एक न्यायप्रिय शासक था। वह कभी किसी के साथ अन्याय नहीं होने देता था। एक बार पड़ोसी राजा ने उसके राज्य पर आक्रमण कर दिया। चंद्रसेन स्वयं पड़ोसी राजा से भिड़ गया। थोड़ी ही देर में चंद्रसेन ने उसे जमीन पर गिरा दिया और उसके सिर पर तलवार का वार करने ही वाला था कि दूसरे राजा के मुंह से कुछ अपशब्द निकल गए। अपशब्द सुनकर चंद्रसेन ने अपनी तलवार रोक ली और कुछ सोचते हुए उसे म्यान में रख लिया। वहां उपस्थित सभी सैनिक आश्चर्य में पड़ गए। वे चंद्रसेन से बोले, 'आपने अपना हाथ क्यों रोक लिया। इसे मार डालिए। इसे जिंदा छोड़ना ठीक नहीं होगा।'

सैनिकों की बात सुनकर चंद्रसेन ने कहा, 'मैं युद्ध अपने देश की रक्षा के लिए लड़ रहा हूं। यदि मैं इसी समय इसे मार देता हूं तो मुझे अफसोस नहीं होगा मगर इसने मुझे अपशब्द कहे, जिसके कारण मेरी लड़ाई हमारे राष्ट्र की न होकर व्यक्तिगत हो गई। देश रक्षा के लिए मैं अपने पूरे युद्ध कौशल से लड़ रहा था, किंतु व्यक्तिगत होने पर मैं गुस्से में आ गया। यदि मैं इसे मार देता तो मैं स्वार्थी कहलाता।' इतना कहकर चंद्रसेन ने दूसरे राजा को तलवार दी और युद्ध करने को कहा। लेकिन उस राजा ने लड़ने से इनकार कर दिया और उसके आगे सिर झुकाकर कहा, 'आपने अपने उच्च विचारों से मुझे जीत लिया है। अब आप चाहे तो मुझे मार दें।' चंद्रसेन ने उस पर वार नहीं किया और उसे क्षमा कर दिया। वह राजा सेना सहित लौट गया।

शांति की खोज

उन दिनों स्वामी रामतीर्थ अमेरिका गए हुए थे। वहां उनके प्रवचन की हर ओर धूम थी। अमेरिकी नागरिक उनसे अपनी परेशानियों के हल पूछने आते और खुशी-खुशी वहां से जाते थे। एक दिन एक अमेरिकी महिला उनके पास पहुंची और बोली, 'स्वामी जी, मेरा सब कुछ लुट गया। मुझे अब इस जीवन में कभी शांति नहीं मिल सकती। कृपया मेरे चित्त को शांत करने का उपाय बताएं।'

स्वामी जी ने कहा, 'माता, पहले आप अपने दुख का कारण तो बताएं।' महिला रोती हुई बोली, 'मेरा इकलौता पुत्र काल के गाल में समा गया है। अब मैं क्या करूं?' वह जोर-जोर से विलाप करने लगी। स्वामी जी ने उसे सांत्वना दी और अगले दिन उसके दुख को दूर करने का वादा किया। अगले दिन महिला फिर पहुंची। उसने कहा, 'स्वामी जी, आपने मुझसे वादा किया था कि आज आप मेरी समस्या का समाधान करेंगे।' स्वामी जी बोले, 'बिल्कुल, मैं अवश्य आपकी समस्या दूर करूंगा।'

इसके बाद उन्होंने एक छोटे से बालक को आवाज देकर बुलाया और उसका हाथ महिला के हाथ में सौंपते हुए कहा, 'यह लो अपना बेटा। आपको संतान चाहिए और इसे माता-पिता। आप इसके साथ बेटे जैसा व्यवहार करना, फिर देखना आपके सारे दु:ख-दर्द कैसे दूर हो जाते हैं।' उस महिला को इसकी आशा न थी। वह बोली, 'स्वामी जी, भला यह कैसे संभव है? मैं इसे अपना पुत्र कैसे मान लूं? पता नहीं यह कौन है? इसमें तो मेरा अंश मात्र भी नहीं है।'

उसकी बात सुनकर स्वामी जी गंभीर होकर बोले, 'ऐसे सोचेंगी तो न कभी आपका दु:ख-दर्द दूर होगा न ही जीवन में शांति मिल सकेगी। आत्मीयता का विस्तार करना सीखें। औरों में भी अपना रूप देखें। इस बच्चे में अपना बेटा देखें। जीवन जरूर बदलेगा। जीवन में सुख और शांति आएगी।' वह अमेरिकी महिला स्वामी रामतीर्थ की बातें सुनकर दंग रह गई। उसे अपनी गलती का अहसास हो गया। वह अनाथ बच्चे को प्रेम से अपने साथ ले गई ।

दिशाओं की पूजा

एक बार एक गृहस्थ व्यक्ति सभी दिशाओं को नमस्कार कर रहा था। उसकी इस गतिविधि को एक संत और उनके शिष्य देख रहे थे। एक शिष्य ने संत से पूछा , ' यह व्यक्ति दिशाओं की पूजा क्यों कर रहा है ?' संत बोले , ' चलो , उसी से पूछ लेते हैं। ' प्रश्न सुनकर वह व्यक्ति असमंजस में पड़ गया और बोला , ' यह तो मुझे भी नहीं पता। आप ही बताइए न। ' संत बोले , ' पूजा करने की दिशाएं भिन्न होती हैं माता - पिता और गृहपति पूर्व दिशा है। आचार्य दक्षिण , स्त्री - पुत्र - पुत्री पश्चिम और मित्र आदि उत्तर दिशा है।

सेवक और श्रमण - ब्राह्मणों के लिए भी दिशाएं निर्धारित हैं। इसलिए सभी दिशाओं का पूजन किया जाता है। इन सभी दिशाओं का सच्चे हृदय से पूजन करने से लाभ होता है । ' संत का जवाब सुनकर वह व्यक्ति बोला , ' और तो सब ठीक है महाराज। मैं सबकी पूजा सच्चे हृदय से कर सकता हूं , परंतु सेवकों की पूजा कैसे की जा सकती है ? सेवक तो स्वयं मेरी सेवा करते हैं । ' यह सुनकर संत बोले , ' पूजा का अर्थ केवल हाथ जोड़ना अथवा सिर झुकाना नहीं है , सेवकों की सेवा का स्वरूप उनके प्रति स्नेह और वात्सल्य दर्शाने में है , उनकी हर संभव मदद करने में है और उनसे प्रेम से बात करने में है । '

यह सुनकर वह व्यक्ति बोला , ' आपने मुझे सही ज्ञान कराया है। अभी तक तो मैं मात्र हाथ जोड़कर सिर नवाने को ही पूजन समझता था किंतु आज आपने मुझे असली दिशा पूजन की विधि समझाई है और मैं भविष्य में इसी तरह से पूजन कर अपने जीवन को सफल बनाऊंगा। '

Thursday, November 3, 2011

रेत का पुल

भारद्वाज ऋषि के पुत्र यवक्रीत को विद्यार्जन में रुचि नहीं थी। इसलिए वह अध्ययन से दूर रहे पर बाद में उन्हें अहसास हुआ कि अशिक्षित होने और शास्त्रों का ज्ञान नहीं होने के कारण समाज में उनका सम्मान नहीं होता। लेकिन चूंकि उनकी उम्र ज्यादा हो चुकी थी, विधिवत शिक्षा ग्रहण करने का समय निकल चुका था, इसलिए उन्होंने सोचा कि क्यों न देवताओं की तपस्या करके उन्हें प्रसन्न किया जाए और वरदान मांग कर सारी विद्याएं प्राप्त कर ली जाएं। वह गंगा किनारे भगवान को खुश करने के लिए ध्यानमग्न हो गए। भगवान इंद्र उनके मन की बात समझ गए।

एक दिन वह साधु का वेश धारण करके वहां आए और दोनों हाथों से रेत उठा कर पानी में डालने लगे। थोड़ी देर में यवक्रीत की आंखें खुलीं। उन्होंने साधु को पानी में बालू डालते देख कर पूछा, 'आप यह क्या कर रहे हैं?' साधु ने कहा, 'गंगा के ऊपर पुल बना रहा हूं।' यवक्रीत ने कहा, 'आप तो बड़े ज्ञानी लगते हैं लेकिन यह मूर्खता वाला काम क्यों कर रहे हैं। कहीं बालू से पुल बनता है। बालू तो पानी में गिरते ही उसमें घुल जाता है।' यह सुन कर साधु ने कहा, 'यदि बिना पढ़े-लिखे ज्ञान मिल सकता है तो बालू से पुल क्यों नहीं बन सकता। अगर तपस्या करने से ही ज्ञान मिलता तो फिर पढ़ने- लिखने का कष्ट कौन उठाता। सभी आप की तरह तपस्या करके भगवान को खुश करके ज्ञान का वर मांग लेते।' यह सुन कर यवक्रीत सोच में पड़ गए।

उन्होंने कहा, 'पर इतनी ज्यादा उम्र में पढ़ाई कौन करता है।' साधु ने कहा, 'वत्स, ज्ञान प्राप्त करने की कोई उम्र सीमा नहीं होती। यदि आप संकल्प कर लोगे तो अब भी अपने पिता के समान महान ज्ञानी बन सकते हो।' यवक्रीत ने कहा, 'आप ठीक कह रहे हैं। अब मैं अध्ययन करूंगा।' बाद में यवक्रीत महान विद्वान बने और तपोदत्त के नाम से जाने गए।

दो थैले

हमारे गांवों में अक्सर एक कथा सुनने को मिलती है। ईश्वर ने जब मनुष्य की रचना की तो उसे अपनी अन्य सभी कृतियों से श्रेष्ठ बनाया। सुघड़ और सुंदर बनाने के साथ उसे बुद्धि भी दी। जब मनुष्य इस पृथ्वी पर पहुंचा तो ब्रह्मा ने उससे पूछा, अब यहां आकर तुम क्या चाहते हो? मनुष्य ने कहा, प्रभु, मैं तीन बातें चाहता हूं। एक, मैं सदा प्रसन्न रहूं। दूसरा, सभी मेरा सम्मान करें। और तीसरा, मैं सदा उन्नति के पथ पर चलता रहूं।

मनुष्य की ये इच्छाएं जान कर ब्रह्मा जी ने उसे दो थैले दिए और कहा, एक थैले में तुम अपनी सभी कमजोरियां डाल दो, और दूसरे थैले में दूसरे लोगों की कमियां डालते रहो। साथ ही यह भी कहा कि इन दोनों थैलों को हमेशा अपने कंधों पर ले कर चलना। लेकिन हां, एक बात का ध्यान और रखना कि जिस थैले में तुम्हारी अपनी खामियां हैं, उसे तो अगली तरफ रखना। और जिस थैले में दूसरों की कमजोरियां रखी हैं, उन्हें पीछे की तरफ यानी पीठ पर रखना। समय-समय पर सामने वाला थैला खोलकर निरीक्षण भी करते रहना, ताकि अपनी त्रुटियां दूर कर सको। परंतु दूसरे लोगों के अवगुणों का थैला, जो पीठ पर डाला होगा, उसे कभी न खोलना और न ही दूसरों के ऐब देखना या कहना। यदि तुम इस परामर्श पर ठीक से आचरण करोगे, तो तुम्हारी तीनों इच्छाएं पूरी होंगी- तुम सदा प्रसन्न रहोगे, सबसे सम्मान पाओगे और सदा उन्नति करोगे।

मनुष्य ने ब्रह्मा जी को नमस्कार किया और अपने दुनियावी कामकाज में लग गया। लेकिन इस बीच उसे थैलों की पहचान भूल गई। जो थैला पीछे डालना था उसे तो आगे टांग लिया और जिस थैले को आगे रख कर देखते रहने को कहा था, वह पीछे की तरफ कर दिया। तब से मनुष्य दूसरों के अवगुण ही देखता है, अपनी कमजोरियों पर ध्यान नहीं देता। इसी वजह से उसेफल भी उलटा ही मिलता है।

भूल का सुधार

बुद्ध सारनाथ के एकांत जंगल में कुछ शिष्यों के साथ बैठे थे। तभी कहीं से शोर सुनाई पड़ा। बुद्ध ने आनंद को यह पता लगाने को कहा कि बात क्या है। आनंद ने थोड़ी देर बाद आकर बताया कि कुछ भिक्षु पेड़ के नीचे बैठकर बातचीत और हंसी मजाक कर रहे हैं। बुद्ध क्रोध में उन भिक्षुओं के पास जाकर बोले, 'क्या आप लोगों को नहीं मालूम कि भिक्षुओं को शांत रहना चाहिए। आप लोगों ने भिक्षु जीवन की मर्यादा का उल्लंघन किया है इसलिए आप इसी समय संघ छोड़ दें।' वे भिक्षु नए थे और हाल ही में संघ में आए थे। उन्होंने बुद्ध से क्षमा मांगी मगर बुद्ध ने उन्हें माफ नहीं किया।

सभी भिक्षु वहां से निकल पड़े। रास्ते में उन्हें कुछ संत मिले जो बुद्ध से मिलने आ रहे थे। जब उन्हें सारा किस्सा मालूम हुआ तो वे असमंजस में पड़ गए। एक संत ने बुद्ध से कहा, 'इन्हें निकालने के पहले क्या आप ने यह सोचा कि यहां से जाने के बाद ये लोग क्या करेंगे। किस रास्ते पर जाएंगे। यदि इन्होंने गलत रास्ता पकड़ लिया तो किस पर दोष जाएगा। बौद्घ धर्म तो गलत रास्ते पर चलने वालों को सही मार्ग दिखाता है। इन्हें सुधरने का एक मौका तो मिलना ही चाहिए।' बुद्ध को अपनी गलती का अहसास हो गया। वह सभी भिक्षुओं से अपनी भूल के लिए माफी मांगने लगे। बुद्ध को ऐसा करते देख कर भिक्षु सकते में आ गए। एक ने कहा, 'प्रभु आप से कोई भूल नहीं हुई। गलती तो हमारी थी।' बुद्ध ने कहा, 'नहीं, आपकी गलती नहीं थी। गलत मैं था। गलती किसी से भी हो सकती है। अपनी भूल को स्वीकार करना ही भूल का सुधार है।'

समझदार न्यायाधीश

पेशवा माधवराव के शासन में लोगों से बेगार लेकर सरकारी कार्य करवाए जाते थे, जिन्हें श्रमदान कहा जाता था। लोगों से प्राय: जबरदस्ती काम करवाए जाते थे। राम शास्त्री उस समय प्रधान न्यायाधीश थे। एक दिन वह कहीं जा रहे थे। रास्ते में उन्होंने देखा कि एक सिपाही किसी नौजवान किसान को पीट रहा था। उसकी मां रो-रोकर उसे छोड़ देने की प्रार्थना कर रही थी। वह किसान अपनी मां का इकलौता बेटा था और अपने खेत का काम कर रहा था। यदि वह बेगार निपटाने जाता तो उसके खेत का काम अधूरा रह जाता। यह दृश्य देखकर राम शास्त्री सिपाही के पास गए और नवयुवक को छोड़ देने को कहा। सिपाही ने प्रधान न्यायाधीश की बात नहीं मानी बल्कि उन्हें सरकारी कार्य में बाधा डालने के आरोप में पेशवा के सम्मुख पेश कर दिया।

उन्हें देखकर पेशवा माधवराव बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने कहा कि प्रधान न्यायाधीश भी सरकारी कार्य में बाधा डालने के आरोप में दंड का हकदार है। यह सुनकर राम शास्त्री बेहद विनम्र स्वर में पेशवा से बोले, 'सरकार, आप मुझे जो भी दंड देंगे वह स्वीकार है। मगर इन दिनों खेतों में काम बहुत है। अगर ये मजदूर अपना काम छोड़कर आपकी सेवा में आते हैं तो इनके खेत बेकार पड़े रहेंगे। इससे इनका तो नुकसान होगा ही, साथ ही राज्य को भी हानि होगी। इनसे उस समय काम लेना चाहिए जब इनके पास खेतों का कोई विशेष कार्य न हो।' फिर वह पकड़े गए किसानों की ओर देखकर बोले, 'बोलो, तुम क्या चाहते हो?' इस पर सभी किसान एक स्वर में बोले, 'यही, जो आपने कहा। हमें अपने राजा के लिए काम करने से इनकार नहीं है पर समय उचित होना चाहिए।'

किसानों की बात सुनकर पेशवा को अपना निर्णय बदलना पड़ा। उन्होंने सबको सकुशल घर लौट जाने की आज्ञा दे दी। साथ ही बेगार की प्रथा को भी समाप्त कर दिया। इसके लिए किसानों ने राम शास्त्री के प्रति आभार प्रकट किया।

ध्यान का अर्थ

एक ऋषि जंगल में अपने शिष्यों के साथ रहते थे। उनके रहने के लिए झोपडि़यां बनी थीं। उन्हीं झोपडि़यों के बीच में झाड़-फूस का एक कक्ष भी था। पूरा माहौल देखकर लगता था मानो वह जगह कोई विद्यापीठ हो। राजा को जब ऋषि के इस विद्यापीठ के बारे में पता लगा तो उसके मन में उस स्थान को देखने की उत्सुकता जागी। एक दिन वह जंगल जा पहुंचा।

ऋषि ने राजा का स्वागत किया और जैसी कि राजा की इच्छा थी उसे वहां घुमाना शुरू किया। वह राजा को एक-एक झोपड़ी के पास ले गए और बताने लगे कि उनके शिष्य कहां रहते हैं। कहां स्नान करते हैं, कहां खाना खाते हैं। लेकिन राजा की उत्सुकता तो उन झोपडि़यों के बीच अलग से दिखाई देने वाले कक्ष में थी।

राजा ने ऋषि से कई बार पूछा कि वह इस कक्ष में क्या करते हैं, लेकिन ऋषि ने एक बार भी उसके बारे में कुछ नहीं कहा। आखिरकार राजा झुंझला गया। उसने जोर से कहा, 'आपने मुझे हर जगह घुमाया। हरेक स्थान के बारे में बताया पर इस कक्ष को न तो आपने दिखाया और न ही मेरे बार-बार पूछने पर भी यह बताया कि आप और आपके शिष्य इसमें क्या करते हैं?' ऋषि बोले, 'राजन हम इस कक्ष में कुछ नहीं करते हैं? हम यहां मात्र ध्यान में जाते हैं। ध्यान कुछ करना नहीं है। अगर मैं आपके पूछने पर यह उत्तर दूं कि हम यहां ध्यान करते हैं तो यह गलत होगा। क्योंकि ध्यान कोई क्रिया नहीं हैं। इसलिए जब भी आपने इस कक्ष के बारे में पूछा मुझे चुप रहना पड़ा। ध्यान तो वह स्थिति है जब ध्यानी कुछ भी नहीं करता। उसका शरीर भी शांत होता है और मन भी।' राजा ध्यान का अर्थ समझ गया।

सफलता का मंत्र

एक बार गुरु नानक किसी गांव में प्रवचन कर रहे थे। उन्होंने कहा, 'सफलता के लिए प्रत्येक व्यक्ति को आशावादी होना चाहिए।' प्रवचन खत्म होने के बाद एक भक्त ने पूछा, 'गुरु जी, क्या किसी चीज की आशा करना ही सफलता की कुंजी है?' नानक ने कहा, 'नहीं, केवल आशा करने से कुछ नहीं मिलता। मगर आशा रखने वाला मनुष्य ही कर्मशील होता है।' उस व्यक्ति ने कहा, 'गुरु जी, आप की गूढ़ बातें मेरी समझ में नहीं आ रही हैं।'

उस समय खेतों में गेहूं की कटाई हो रही थी। नानक ने कहा, 'चलो मेरे साथ। तुम्हारे प्रश्न का उत्तर वहीं दूंगा।' नानक उस व्यक्ति को अपने साथ लेकर खेतों की तरफ चले गए। उन्होंने देखा कि एक खेत में दो भाई गेहूं की कटाई कर रहे थे। बड़ा भाई तेजी से कटाई करता आगे था दूसरा भाई पीछे। नानक उस व्यक्ति के साथ वहीं एक आम के पेड़ के नीचे बैठ गए। दोपहर का समय था। छोटा भाई बोला, 'भइया, आज तो पूरी कटाई हो नहीं पाएगी।

अभी तो कटने को बहुत बाकी है। क्यों न कल सुबह आकर काट लेंगे।' बड़े भाई ने कहा, 'अब ज्यादा कहां बचा है। देखता नहीं, थोड़ा ही तो रह गया है। जब हम इन दो कतारों को काट लेंगे तो बाकी बारह कतारें रह जाएंगी। इतना तो आराम से काट लेंगे। कल पर क्यों टालता है।' बड़े भाई की बात सुन कर छोटा भाई जोश में आ गया और उसका हाथ भी तेजी से चलने लगा। नानक ने उस व्यक्ति से कहा, 'तुम्हारे प्रश्न का उत्तर सामने है।

छोटा भाई पहले निराश होकर काम बंद करने को कह रहा था लेकिन बड़े भाई ने उसमें जोश जगाया तो छोटा भाई भी तेजी से कटाई करने लगा। इसे कहते है आशावाद। बड़ा भाई आशावादी था। आशावाद का दूसरा नाम संकल्प है। मन में आशा जगेगी तभी संकल्प करोगे और संकल्प में ही मनुष्य की ताकत छुपी हुई है।'

Saturday, October 22, 2011

पूजा और भक्ति

एक साधु एक राजा के अतिथि बने। राजा ने साधु से पूछा, 'बताएं, पूजा और भक्ति में क्या अंतर है?' साधु ने राजा को कुछ दिन प्रतीक्षा करने के लिए कहा। एक दिन जब राजा और साधु एक साथ भोजन कर रहे थे तब राजा ने रसोइए को बुलाया और कहा, 'आज सभी सब्जियां स्वादिष्ट हैं लेकिन बैंगन की सब्जी लाजवाब है।' रसोइए ने प्रसन्न होकर कहा, 'महाराज, बैंगन तो है ही शाही सब्जी। जैसे आप शहंशाह हैं वैसे ही बैंगन भी सब्जियों का शहंशाह है।' रसोइए ने अगले दिन फिर से बैंगन की सब्जी बनाई। अब वह रोज बैंगन बनाने लगा।

एक दिन राजा ने भोजन की थाली परे सरकाते हुए रसोइए को बुलाकर फटकार लगाई। रसोइया हाथ जोड़कर बोला, 'महाराज गलती हो गई। बैंगन तो घटिया सब्जी है। इसमें तो कोई गुण नहीं होता तभी तो इसका नाम बैंगन पड़ा। आदमी तो क्या, इसे जानवर भी नहीं खाते। अब मैं कभी इसकी सब्जी नहीं बनाऊंगा।' राजा रसोइए की बात सुनकर हैरान था।

उसने कहा, 'अभी कुछ दिन पहले तो तुम बैंगन की तारीफ कर रहे थे और आज इसे घटिया कह रहे हो।' रसोइया तपाक से बोला, 'महाराज, मैं नौकर आपका हूं, बैंगन का नहीं।' तभी साधु ने बीच में टोकते हुए राजा से कहा, 'रसोइए ने ऐसा मेरे कहने पर किया है। यही आपके प्रश्न का उत्तर है। हम मंदिर जाकर पूजा करते हैं, करवाते है, पुजारी को दक्षिणा देते हैं। यह भक्ति नहीं है। पुजारी तो ठहरा दक्षिणा का भोगी। जैसी दक्षिणा वैसी पूजा, वैसा ही आशीर्वाद। पूजा में हमें परमात्मा की भक्ति कहां याद रहती है।' राजा को अपने प्रश्न का उत्तर मिल गया।

गांधीजी की सीख

महात्मा गांधी अपना जन्मदिन बड़ी सादगी से साबरमती आश्रम के कार्यकर्ताओं के साथ मिल कर मनाते थे। एक बार सेवा ग्राम के लोगों ने उनका जन्मदिन अपने यहां मनाने का फैसला किया। जन्मदिन पर बड़ी संख्या में वहां के लोग गांधी जी को मुबारकबाद देने पहुंचे।

सेवा ग्राम में गांधी जी का जन्म दिन मनाया जा रहा है, यह सोच कर कस्तूरबा गांधी पास के गांव से कुछ दीये ले आईं। जब गांधी जी प्रार्थना सभा में पहुंचे तो वहां देसी घी के दीये जलते देख कर वह चौंके मगर उन्होंने कहा कुछ नहीं। प्रार्थना खत्म हुई तो गांधी जी ने पूछा, 'ये दीये कौन लाया है?' बा ने कहा, 'पास के गांव से खरीद कर लाई हूं।' गांधीजी ने फिर पूछा, 'और यह घी कहां से आया?' बा ने कहा, 'वह भी गांव के एक किसान के यहां से लाई हूं।' गांधी जी दुखी मन से बोले, 'आप ने यह अच्छा काम नहीं किया।'

बा कुछ समझ नहीं पाईं। उन्हें चुप देख कर गांधी जी ने फिर कहा, 'आप तो जानती हो कि देश के लाखों किसानों और मजदूरों को सूखी रोटी भी मयस्सर नहीं होती। खाने की बात तो छोडि़ए, उन्हें तो देसी घी देखने को भी नहीं मिल पाता। इस हालत में हमारे जन्मदिन पर देसी घी का दीया जले यह देश के लोगों के साथ अन्याय है।

देसी घी के दीये जलते देख कर तभी सुख मिलता जब देश के सभी बच्चों को दूध घी खाने को मिले। मुझे तो आश्चर्य है कि आप की आत्मा ने आपको ऐसा कार्य कैसे करने दिया।' बा को गलती का अहसास हो गया। उन्होंने कहा, 'अब ऐसी गलती नहीं होगी।'

योग्यता का सम्मान

कोलकाता के एक कॉलेज में संस्कृत व्याकरण के शिक्षक का पद खाली हुआ। उन दिनों चारों तरफ ईश्वरचंद्र विद्यासागर की धूम थी। वह संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे। स्थान खाली होते ही कॉलेज के प्रिंसिपल के मन में संस्कृत अध्यापक के पद के लिए ईश्वरचंद्र विद्यासागर का नाम आया।

उन्होंने उन्हें पत्र भिजवाया और आग्रह किया कि वह पद ग्रहण करके कॉलेज व उसके विद्यार्थियों को गौरवान्वित करें । ईश्वरचंद्र ने पत्र पढ़ा तो तत्काल जवाब लिखने बैठ गए। उन्होंने लिखा, 'आपको व्याकरण पढ़ाने वाले अध्यापक की आवश्यकता है। मैं सोचता हूं कि व्याकरण के मामले में मैं इस नगर का योग्यतम व्यक्ति नहीं हूं। इस विषय में मुझसे अधिक विद्वान मेरे मित्र वाचस्पति हैं। यदि आप उनकी नियुक्ति कर सकें तो मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी।

मेरा उस पद पर आना वाचस्पति की योग्यता का अपमान होगा। इसलिए कृपया मुझे आवेदन करने को न कहें।' कॉलेज के प्राचार्य विद्यासागर का पत्र पढ़कर उनके प्रति नतमस्तक हो गए और सोचने लगे कि यह व्यक्ति कितना महान है। किसी दूसरे व्यक्ति को अपने से बड़ा बताना हर किसी के बस की बात नहीं। कोई भी व्यक्ति दूसरे के सामने स्वयं को कमतर कभी नहीं साबित करता। लेकिन बेहद गुणी व विनम्र ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने ऐसा किया है । निश्चित रूप से उनका हृदय अत्यंत विशाल है।

उनके इस प्रस्ताव को कॉलेज की प्रबंध समिति ने खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया। मित्र की नियुक्ति पाकर ईश्वरचंद्र विद्यासागर को हार्दिक प्रसन्नता हुई। जब वाचस्पति को इस घटना का पता चला तो वह तुरंत विद्यासागर के पास पहुंचे और उन्हें गले लगाते हुए बोले, 'मित्र वास्तव में आपके बड़प्पन व विशाल हृदय का कोई सानी नहीं। इतना अद्भुत व गौरवशाली व्यक्तित्व व सोच सिर्फ आपकी ही हो सकती है। मुझे सच में नौकरी की बेहद आवश्यकता थी।' यह कहते हुए उनकी आंखों में आंसू आ गए। विद्यासागर ने उनकी पीठ थपथपाते हुए कहा, 'मित्र, जो योग्य है उसे उपयुक्त अवसर मिलना ही चाहिए।'

स्वर्ग और नरक

एक युवा सैनिक ने धर्मशास्त्रों का अध्ययन किया था। वह जानना चाहता था कि स्वर्ग और नरक में क्या अंतर है? उसने एक संत से पूछा, 'बताएं कि क्या स्वर्ग और नरक वास्तव में होते हैं या ये सिर्फ कल्पना हैं?' संत ने उसे अच्छी तरह देखा और पूछा, 'युवक, तुम्हारा पेशा क्या है?'

सैनिक ने अपने पेशे के बारे में बताया तो संत ने उसका तिरस्कार करते हुए कहा, 'तुम और सैनिक! तुम्हें कौन सैनिक कहेगा। किसने तुम्हारी भर्ती कर दी। देखकर तो तुम कायर लगते हो। भय और आशंका तुम्हारे चेहरे पर स्पष्ट झलक रही है।' यह सुनकर उस सैनिक का खून खौल उठा। उसने बंदूक निकाल ली। संत ने कहा, 'तुम बंदूक भी रखते हो। बहुत अच्छे! तुम क्या इस खिलौने वाली बंदूक से मुझे डराओगे।

इस बंदूक से तो बच्चा भी नहीं डरेगा।' यह सुनकर सैनिक अपना आपा खो बैठा, उसने झट से बंदूक का घोड़ा दबाने के लिए हाथ बढ़ाया तो संत ने कहा, 'लो, बस यही है नरक का द्वार।' संत की बात का मर्म समझते ही युवक की आंखें खुल गई और अपने किए पर वह ग्लानि से भर गया। वह संत के चरणों में गिर पड़ा। चरणों में गिरते ही संत ने कहा, 'लो, स्वर्ग का द्वार खुल गया। स्वर्ग एवं नरक, आनंद एवं दु:ख ही वह स्थिति है जो हम शांत रहकर या क्रोध करके उत्पन्न करते हैं। जिस क्षण व्यक्ति को क्रोध आता है उसका संपूर्ण अस्तित्व गहरी अशांति को प्राप्त हो जाता है। यह प्रत्यक्ष नरक के समान दुखदायी होता है। खुद की शांति के लिए हम स्वयं जिम्मेदार हैं जब हम इस जिम्मेदारी को उठाते हैं, स्वर्ग का निर्माण कर रहे होते हैं। संसार हमारी ही सृष्टि है।'

ईश्वर की खोज

एक सेठ के पास अपार धन-संपत्ति थी, पर उसका मन हमेशा अशांत रहता था। एक बार उसके शहर में एक सिद्ध महात्मा आए। उन्होंने अपने प्रवचन में कहा कि परमात्मा को पाने पर ही सच्ची खुशी एवं पूर्ण शांति मिल सकती है। इसलिए ईश्वर की खोज करो और अपने जीवन को सार्थक करो। यह सुनकर सेठ ईश्वर की खोज में लग गया। वह इधर-उधर भटकने लगा। ऐसा करते हुए दो वर्ष बीत गए किंतु ईश्वर की प्राप्ति नहीं हुई। वह निराश होकर घर की ओर लौट पड़ा। रास्ते में उसे एक चिर-परिचित आवाज सुनाई पड़ी। उसे कोई बुला रहा था। उसने पीछे मुड़कर देखा तो पाया कि उसके पीछे वही सिद्ध महात्मा खड़े थे, जिन्होंने ईश्वर को ढूंढने की बात कही थी। सेठ उनके पैरों में गिरकर बोला, 'बाबा, मैं अनेक स्थानों पर भटका किंतु मुझे अभी तक ईश्वर नहीं मिले। आखिर मेरी खोज कहां पूरी होगी? आप ने ही कहा था कि सच्ची खुशी ईश्वर के साथ मिल सकती है।' उसकी बात पर महात्मा मुस्कराए और उन्होंने उसे उठाते हुए कहा, 'पुत्र, मैंने सही कहा था। यदि तुमने ठीक ढंग से ईश्वर की खोज की होती तो अब तक तुम उन्हें पा चुके होते।' यह सुनकर सेठ हैरान रह गया और बोला, 'कैसे बाबा?' महात्मा बोले, 'पुत्र, ईश्वर किसी दूर-दराज के क्षेत्र में नहीं तुम्हारे अपने भीतर ही है। तुम अच्छे कर्म करोगे और नेक राह पर चलोगे तो वह स्वयं तुम्हें मिल जाएगा। तुम्हें उसे कहीं खोजने नहीं जाना पड़ेगा। हां, उसे पाने के लिए ईश्वर का नेक बंदा अवश्य बनना होगा।' यह सुनकर सेठ महात्मा के प्रति नतमस्तक हो गया और वापस अपने घर चला आया। घर आने के बाद उसने पाठशालाएं खुलवाईं, लोगों को पीने का पानी उपलब्ध कराया, गरीब कन्याओं के विवाह कराए और अपने पास आने वाले हर जरूरतमंद की समस्या का समाधान किया। कुछ ही समय बाद उसके भीतर की अशांति जाती रही और उसने अपने भीतर नई स्फूर्ति महसूस की।

संघर्ष की राह

बालक ईश्वरचंद्र के पिता को तीन रुपये मासिक वेतन मिलता था। परिवार बड़ा था इसलिए घर का खर्च चलना मुश्किल था। ऐसी स्थिति में बालक ईश्वरचंद्र की पढ़ाई का प्रबंध कैसे होता। ईश्वरचंद्र ने अपने पिता की विवशता को देख कर अपनी पढ़ाई के लिए रास्ता खुद ही निकाल लिया। उसने गांव के उन लड़कों को अपना मित्र बनाया, जो पढ़ने जाते थे। उनकी पुस्तकों के सहारे उसने अक्षर ज्ञान प्राप्त कर लिया। एक दिन कोयले से जमीन पर लिख कर उसने अपने पिता को दिखाया। पिता ने ईश्वरचंद्र की विद्या के प्रति लगन देखकर तंगी का जीवन जीते हुए भी उसे गांव की पाठशाला में भर्ती करा दिया। स्कूल की सभी परीक्षाओं में ईश्वरचंद्र ने प्रथम स्थान प्राप्त किया। आगे की पढ़ाई के लिए फिर आर्थिक तंगी आड़े आ रही थी। ईश्वरचंद्र ने फिर स्वयं अपनी राह बनाई और आगे पढ़ने के लिए माता-पिता से केवल आशीर्वाद भर मांगा।

उसने कहा, 'आप मुझे किसी विद्यालय में भर्ती करा दें। फिर मैं आप से किसी प्रकार का खर्च नहीं मांगूंगा।' ईश्वरचंद्र का कोलकाता के एक संस्कृत विद्यालय में दाखिला करा दिया गया। विद्यालय में ईश्वरचंद्र ने अपनी लगन और प्रतिभा से शिक्षकों को प्रसन्न कर लिया। उसकी फीस माफ हो गई। ईश्वरचंद्र के मित्रों ने किताबें उपलब्ध करा दीं। फिर उसने अपना खर्च पूरा करने के लिए मजदूरी शुरू कर दी। ऐसी स्थिति में भी उसने इतना परिश्रम किया कि उन्नीस वर्ष की आयु तक पहुंचते-पहुंचते वह व्याकरण, साहित्य, स्मृति तथा वेदशास्त्र में निपुण हो गया। जिसके लिए पढ़ना ही कठिन था वह एक बड़ा विद्वान बन गया। आगे चल कर यही बालक ईश्वरचंद्र विद्यासागर के नाम से विख्यात हुआ।

जनकल्याण की राह

एक बार अयोध्या के राजा रघु के दरबार में इस प्रश्न पर बहस चल रही थी कि राजकोष का उपयोग किन प्रयोजनों के लिए किया जाए? एक पक्ष का मत था कि सैन्य शक्ति बढ़ाई जाए ताकि न केवल अपनी सुरक्षा हो बल्कि राज्य के विस्तार की योजना भी आगे बढ़े। इस अभियान पर जो खर्च होगा उसकी भरपाई पराजित देशों से मिलने वाले संसाधनों से की जा सकेगी।

दूसरे पक्ष का कहना था कि राजकोष प्रजा जन के हित में खर्च किया जाए ताकि उनका जीवन स्तर बढ़ सके। अगर सुखी, संतुष्ट, साहसी और सहृदय नागरिक हों तो देश समृद्ध होता है। इस प्रकार युद्ध करके नए क्षेत्र जीतने की अपेक्षा मैत्री का विस्तार कहीं अधिक लाभदायक है। उससे स्वेच्छया सहयोग और अपनत्व की ऐसी उपलब्धियां प्राप्त होती हैं, जिनके कारण छोटा देश भी चक्रवर्ती स्तर का बन सकता है। दोनों पक्षों के तर्क चलते रहे। सबके मन में उत्सुकता थी कि आखिर राजा रघु क्या निर्णय देते हैं। जब सबने अपनी बात समाप्त की तब उन्होंने कहा, 'युद्ध पीढि़यों से लड़े जाते रहे हैं। उनके कड़वे-मीठे परिणाम भी स्मृति पटल पर अंकित हैं। लेकिन इस बार युद्ध छोड़ दिया जाए और लोकमंगल को अपनाया जाए। देखते हैं क्या होता है। समस्त संपत्ति जनकल्याण की योजनाओं पर खर्च कर दी जाए।'

कुछ सभासद दबे-छुपे इस निर्णय की आलोचना करने लगे। उन्हें अनिष्ट की आशंका सताने लगी। उधर रघु के निर्णय के मुताबिक विकास योजनाएं तेज कर दी गईं। धीरे-धीरे प्रजाजन हर दृष्टि से समुन्नत हो गए। आक्रमण की चर्चाएं समाप्त हो गई। सुख-शांति के समाचार पाकर अन्य देशों के समर्थ लोग वहां आकर बसने लगे। बंजर भूमि सोना उगलने लगी और अयोध्या में खुशहाली फैल गई।

सेवा की भावना

जर्मनी का महान समाजसेवी ओबरलीन एक बार अपनी यात्रा के दौरान मुसीबतों से घिर गया। तेज आंधी-तूफान और ओलों ने उसे बुरी तरह परेशान कर दिया। वह मदद के लिए चिल्लाता रहा, लेकिन सबको अपनी जान बचाने की पड़ी थी, सो उसकी पुकार कौन सुनता? वह बेहोशी की हालत में नीचे गिर पड़ा। कुछ देर बाद उसे अहसास हुआ कि किसी व्यक्ति ने उसे थामा हुआ है और उसे सुरक्षित जगह पर ले जाने की कोशिश कर रहा है। होश में आने पर ओबरलीन ने देखा कि एक गरीब किसान उसकी सेवा में जुटा हुआ है।

ओबरलीन ने किसान से कहा कि वह उसकी सेवा करने के एवज में उसे इनाम देगा। फिर उसने किसान से उसका नाम जानना चाहा। यह सुनकर किसान मुस्कराया और बोला, 'मित्र! बताओ, बाइबिल में कहीं किसी परोपकारी का नाम लिखा है। नहीं न। तो फिर मुझे भी अनाम ही रहने दो। आप भी तो नि:स्वार्थ सेवा में विश्वास रखते हो। फिर मुझे इनाम का लालच क्यों दे रहे हो? वैसे भी पुरस्कार का लालच किसी को भी नि:स्वार्थ सेवा करने के लिए मजबूर नहीं कर सकता। सेवा की भावना तो हमारे अंदर से उत्पन्न होती है। इसे न ही पैदा किया जा सकता है और न ही मिटाया जा सकता है।'

ओबरलीन उस निर्धन किसान की बातें सुनकर दंग रह गया। वह मन ही मन सोचने लगा कि आज उसे इस किसान ने एक पाठ पढ़ाया है। सेवा जैसा भाव तो अनमोल है। उसकी कोई कीमत नहीं लगाई जा सकती और सेवा के लिए कोई भी पुरस्कार अधूरा है। यह किसान कितना महान है जो बिना किसी स्वार्थ के परोपकार करने में विश्वास करता है। आज कितने ऐसे लोग हैं जो इस निर्धन किसान की परोपकार की भावना का मुकाबला कर सकते हैं। ओबरलीन को इस बात के लिए अफसोस हुआ कि उसने किसान को इनाम देने की बात कही। ओबरलीन ने किसान से कहा, 'अगर आपके जैसे इंसान हर जगह हों तो कहीं पर दुराचार शेष नहीं रहेगा।'

समय का उपयोग

एक दिन एक व्यक्ति किसी महात्मा के पास पहुंचा और कहने लगा, 'जीवन अल्पकाल का है। इस थोड़े समय में क्या-क्या करूं? बचपन में ज्ञान नहीं होता। युवावस्था में गृहस्थी का बोझ होता है। बुढ़ापा रोगग्रस्त और पीड़ादायक होता है। तब भला ज्ञान कैसे मिले? लोक सेवा कब की जाए?' यह कहकर वह रोने लगा। उस रोते देख महात्मा जी भी रोने लगे।

उस आदमी ने पूछा, 'आप क्यों रोते हैं?' महात्मा ने कहा, 'क्या करूं, खाने के लिए अन्न चाहिए। लेकिन अन्न उपजाने के लिए मेरे पास जमीन नहीं है। परमात्मा के एक अंश में माया है। माया के एक अंश में तीन गुण है। गुणों के एक अंश में आकाश है। आकाश में थोड़ी सी वायु है और वायु में बहुत आग है। आग के एक भाग में पानी है। पानी का शतांश पृथ्वी है। पृथ्वी के आधे हिस्से पर पर्वतों का कब्जा है। जमीन पर जहां देखो नदियां बिखरी पड़ी हैं। मेरे लिए भगवान ने जमीन का एक नन्हा सा टुकड़ा भी नहीं छोड़ा। थोड़ी सी जमीन थी उस पर भी दूसरे लोगों ने अधिकार जमा लिया। तब बताओ, मैं भूखा नहीं मरूंगा।'

उस व्यक्ति ने कहा, 'यह सब होते हुए भी आप जीवित तो हैं न। फिर रोते क्यों हैं?' महात्मा ने तुरंत उत्तर दिया, 'तुम्हें भी तो समय मिला है, बहुमूल्य जीवन मिला है, फिर समय न मिलने की बात कहकर क्यों हाय-हाय करते हो। अब आगे से समयाभाव का बहाना न करना। जो कुछ भी है, उसका उपयोग करो, उसी में संतोष पाओ। संसार में हर किसी ने सीमित समय का सदुपयोग करके ही सब कुछ हासिल किया है।'

खुद की पहचानq

उद्दालक ने अपने पुत्र श्वेतकेतु को एक प्रसिद्ध ऋषि के पास पढ़ने भेजा। श्वेतकेतु की दृष्टि में उसके पिता उद्दालक बहुत बड़े विद्वान थे। वह चाहता था कि वह अपने पिता से ही शिक्षा ग्रहण करे पर उद्दालक ने समझाया , ' गुरु पिता से ऊपर होता है , इसलिए तुम्हें शिक्षा ग्रहण करने के लिए गुरु के पास ही जाना चाहिए। '

श्वेतकेतु गुरु के पास गया। वहां बारह वर्ष पढ़ने के बाद जब वह अपने घर आया तो उसे लगा कि अपने पिता उद्दालक से भी उसे बहुत अधिक ज्ञान हो गया है। उसके व्यवहार में अहं अधिक व नम्रता कम थी। विद्वान उद्दालक श्वेतकेतु की मनोवृत्ति भांप गए। उन्होंने श्वेतकेतु को बुलाया और पूछा , ' श्वेतकेतु तुमने क्या - क्या पढ़ा ? हमको बताओ। ' श्वेतकेतु बताने लगा , ' मैंने व्याकरण पढ़ा , शास्त्र पढ़ा , उपनिषदों को पढ़ा। ' इस प्रकार उसने एक बड़ी सूची प्रस्तुत कर दी। सूची पूरी होने के बाद उद्दालक ने पूछा , ' श्वेतकेतु क्या तुमने वह पढ़ा जिसको पढ़ने के बाद और कुछ पढ़ने के लिए शेष नहीं रहता ? क्या तुमने वह देखा जिसको देखने के बाद और कुछ देखने के लिए है ही नहीं ? क्या तुमने वह सुना जिसको सुनने के बाद और सुनने के लिए कुछ बचता नहीं ?' श्वेतकेतु अचंभे में पड़ गया। उसने कहा , ' क्या है वह ? मैं नहीं जानता हूं। मैंने वह पढ़ा नहीं। न सुना , न देखा न प्रयत्न किया। वह क्या है ?'

उद्दालक बोले , ' जाओ फिर से अपने गुरुजी के पास जाओ। उनसे कहो कि वह तुम्हें सिखाएं। जाओ वह पढ़कर आओ। ' श्वेतकेतु गुरु के पास गया। गुरु जी बोले , ' वह तुम्हारे पिता जी के पास ही है , उनसे ही वह ले लो। ' श्वेतकेतु घर लौट आया। अब वह अपने को बदला हुआ सा अनुभव कर रहा था। उसका अहं खत्म हो गया था। व्यवहार में पूर्ण नम्रता थी। वह शांत था। एक दिन उद्दालक ने उसे बुलाया और कहा , ' श्वेतकेतु वह तुम हो। ' श्वेतकेतु जीवन का अभिप्राय समझ गया था। वह जान गया कि अपने आपको जानने के बाद कुछ जानना शेष नहीं रहता।

शायर की दावत

ईरान में एक बादशा ह था। उसकी एक शायर से बड़ी गहरी दोस्ती थी। बादशाह का दरबार लगता, दावतें होतीं तो शायर भी उसमें शामिल होता। दावत में तरह-तरह के पकवान परोसे जाते। शायर उनका मजा लेता। बादशाह पूछते, 'कहो, दावत कैसी रही?' शायर हमेशा जवाब देता, 'हुजूर दावत तो शानदार थी, पर दावते शिराज की बात कुछ और है।' बादशाह इस उत्तर को सुन परेशान होता। आखिर यह दावते शिराज क्या बला है? कहां होती है? एक दिन उसने यह प्रश्न शायर से पूछ ही लिया।

शायर ने कहा, 'हुजूर यह दावत मेरे शहर शिराज में होती है। कभी शिराज पधारें तो उसका लुत्फ उठाइए।' संयोग से कुछ दिनों के बाद ही बादशाह का शिराज शहर में जाना हुआ। बादशाह ने शायर को बुलाया और कहा, 'तैयारी करो, आज हो जाए- दावते शिराज।' शायर बोला, 'हुजूर, दावते शिराज तैयार है, आप मेरे साथ चलें।' शायर बादशाह को अपने घर ले गया। एक साधारण कुर्सी पर बिठाया, थाली में रोटी-सब्जी और चटनी रखी और बादशाह को पेश कर दी।

बादशाह ने पूछा, ' ये क्या है?' शायर ने कहा, 'हुजूर, यही दावते शिराज है। घर में आए मेहमान को जो कुछ घर में उपलब्ध है, उसे प्रेम और आदर से प्रस्तुत करना ही दावते शिराज है। इसका मजा ही कुछ और है। बादशाही दावतों में लंबे चौड़े आयोजन होते हैं। नौकर-चाकर दौड़ते- भागते हैं। दिखावा ही दिखावा होता है, उसमें यह प्रेम और सम्मान कहां। दावते- शिराज की बात ही कुछ और है।' बादशाह ने प्रेमपूर्वक भोजन किया। बोले, ' ठीक कहते हो। ऐसा शांत अपनत्व भरा भोजन हमारे भाग्य में कहां? दावते-शिराज के सुख का आज हमें पता चला।'

सचाई का पाठ

एक सेठ दान-पुण्य के लिए हर रोज भंडारे का आयोजन करता था। सेठ का अनाज का व्यापार था। हर साल अनाज के गोदामों की सफाई होती थी। उस समय घुन लगे बेकार गेहूं को इकट्ठा करके सेठ उसे पिसवाता और उसी आटे का भंडारा साल भर चलता था। लेकिन इसकी जानकारी किसी को न थी। सेठ का एक बेटा था। उसकी शादी हुई। सेठ के घर काफी समझदार बहू आई। जब बहू को पता चला कि उसके ससुर सड़े हुए गेहंू के आटे की रोटियां गरीबों को खिलाते हैं, तो उसे बहुत दुख पहुंचा। एक दिन जब सेठ भोजन करने बैठा तो बहू ने उसकी थाली में उसी आटे की रोटियां परोस दीं। सेठ ने समझा कि बहू ने कोई नया पकवान बनाया है। लेकिन जैसे ही मुंह में पहला कौर डाला, हिचकी आने लगी। उसने उस कौर को थूक दिया और बहू से बोला, 'यह आटा कहां से आया है? क्या घर में और आटा नहीं था?' बहू विनम्रता से बोली, 'आटा तो बहुत है बाबूजी, लेकिन मैंने सोचा कि आपके भंडारे में जिस आटे की रोटी बनती है उसी से घर में भी बनाई जाए।' इस पर सेठ ने कहा, 'लेकिन बहू वह आटा तो गरीबों के खाने के लिए होता है।' बहू बोली, 'पिता जी मुझे बताया गया है कि परलोक में भी प्राणी को वही खाना मिलता है जो वह गरीबों को खिलाता है, इसलिए सोचा कि क्यों न अभी से आपको उसी रोटी की आदत डलवाई जाए।' सेठ लज्जित हो गया। उसने उसी दिन सारा बेकार आटा पशुओं को खिला दिया और गरीबों के खाने के लिए अच्छे गेहूं निकलवाए।

बुढि़या की सीख

एक राजा ने एक बड़ा यज्ञ करने का निश्चय किया। उसने सोचा कि इस अवसर पर राज्य के सारे गांवों से दूध इकट्ठा करके ब्रह्मभोज किया जाए। उसने आदेश दिया कि निर्धारित तिथि को सभी किसान अपने घरों से दूध लाकर महल के बाहर रखे बर्तन में डालें। राजा ने यह भी हुक्म दिया कि उस दिन जिसके घर जितना दूध हो वह सारा का सारा लाया जाए। राजा के हुक्म का पालन हुआ। किसी ने एक बूंद भी दूध अपने घर नहीं रखा। सारा दूध महल के बाहर रखे बर्तन में डाल दिया। राजा दूध देखने आया तो उसे यह जानकर हैरानी हुई कि राज्य का सारा दूध आने पर बर्तन आधा भी नहीं भरा। उसने सिपाहियों को गांव-गांव जाकर हर घर से दूध लाने को कहा। उन्होंने घर-घर देख डाला पर किसी के यहां दूध नहीं मिला। सिपाही निराश लौट आए। राजा भी अचंभे में था। तभी एक बुढि़या छोटे से लोटे में दूध लेकर आई। उसने जैसे ही बर्तन में दूध डाला बर्तन लबालब भर गया। सभी आश्चर्यचकित होकर यह अजीब दृश्य देख रहे थे। राजा ने उस बुढि़या से पूछा, 'क्या तुम्हें कोई जादू आता है?' बुढि़या बोली, 'जादू क्या होता है महाराज! मैंने आपकी आज्ञा का पालन नहीं किया। मैंने सुबह उठकर गाय को दुहा। पहले उसके बछड़े ने आधा दूध पिया, बाकी बचे आधे दूध में थोड़ा-थोड़ा कुत्ते और बिल्ली ने पिया। बचा हुआ दूध मैंने आपके बर्तन में डाल दिया।' राजा ने क्रोधित होकर कहा, 'मगर तूने ऐसा क्यों किया? तूने भगवान को बचा हुआ दूध दिया।' इस पर बुढि़या ने कहा, 'महाराज, भगवान का पेट भरना है तो उसके बनाए हुए जीवों का पेट भरना चाहिए। आपने घर-घर का सारा दूध मंगवा लिया। आज कितने बच्चे दूध के बगैर भूखे होंगे। क्या भगवान ऐसा दूध पिएंगे? शायद इसी से यह बर्तन खाली था।' बुढि़या की बात सुनकर राजा की आंखें खुल गई। उसने सारा दूध घर-घर बंटवा दिया।

संगीत का सौंदर्य

फ्रांस के प्रसिद्ध संगीतकार गाल्फर्ड के पास एक लड़की संगीत सीखने आया करती थी जो अत्यंत कुरूप थी। एक दिन लड़की ने गाल्फर्ड को बताया कि जब कभी वह मंच पर जाती है तो सोचने लगती है कि अन्य लड़कियां तो बहुत ही आकर्षक हैं। कहीं लोग उसकी हंसी तो नहीं उड़ाएंगे। इस आशंका से वह ढंग से नहीं गा पाती। लेकिन घर पर अपने लोगों के बीच वह ठीक से गाती है और वहां सभी उसके गायन की प्रशंसा करते हैं। बस मंच पर जाने के समय ही वह अपनी सारी क्षमता गंवा बैठती है।

गाल्फर्ड ने उसकी बातें ध्यान से सुनी। फिर अत्यंत स्नेहपूर्वक बोले, 'बेटी, संगीत का अपना सौंदर्य होता है। जो उस सौंदर्य का रस पीने आते हैं, वे गायक व गायिका का रूप नहीं देखते। फिर भी तुम ऐसा करो कि रोजाना एक बड़े शीशे के सामने खड़े होकर अपनी छवि निहारो और ऐसा करते हुए गीत गाओ। इससे तुम्हारी झिझक अपने आप खत्म हो जाएगी और यह भी समझ में आ जाएगा कि संगीत की मधुरता और संगीतकार के रूप का आपस में कोई संबंध नहीं है। दर्पण के सामने जब तुम भाव विभोर होकर गाओगी तो तुम्हारे मन से हर तरह का डर निकल जाएगा। फिर धीरे-धीरे तुम मंच पर बेफिक्र होकर गा सकोगी।'

लड़की ने अपने गुरु की सलाह पर उसी दिन से अमल करना शुरू कर दिया। इससे उसके भीतर आत्मविश्वास आने लगा। फिर जब वह मंच पर उतरी तो उसकी झिझक पूरी तरह खत्म हो गई। संगीत के क्षेत्र में उसने काफी प्रसिद्धि प्राप्त की। उसका नाम था मेरी वुडलनाल्ड।

सच्चा सहयोगी

किसी राजा को अपने मंत्रियों में से एक बहुत प्रिय था। वह राजा का विश्वासपात्र था। राजा हर मामले में उसकी सलाह जरूर लेता था। कुछ ईर्ष्यालु स्वभाव वाले मंत्रियों-दरबारियों को यह सहन नहीं होता था। उनमें से कुछ ने एक दिन राजा से शिकायत की। वे बोले, 'अपराध क्षमा हो, राजन! जिस मंत्री को आप अपना प्रिय व विश्वासपात्र समझते हैं वास्तव में वह भ्रष्टाचारी है। राज्य में जो भ्रष्टाचार फैला हुआ है, इसका मुख्य कारण यह मंत्री ही है।' यह सुनकर राजा ने अपने उस प्रिय मंत्री को उन मंत्रियों के सामने बुलाया और कहा, 'ये लोग तुम्हारे ऊपर जो आक्षेप लगा रहे हैं उसके निराकरण के लिए तुम्हें एक सप्ताह का समय दिया जाता है। तुम्हें खुद को निर्दोष सिद्ध करना पड़ेगा नहीं तो दंड भुगतना पड़ेगा।' उस मंत्री ने अपने घर आकर राजा को एक पत्र लिखा, 'राजन! अपमानित होने से मरना अच्छा है, इसलिए मैं मरने जा रहा हूं, अलविदा।' और मंत्री पत्र लिखकर अज्ञात स्थान पर चला गया।

राजा ने पत्र पढ़ा और उसकी छानबीन की। मंत्री के न मिलने से राजा ने उसे मृत समझकर शोकसभा आयोजित की। वह मंत्री भी वेश बदलकर अपनी शोकसभा में पहुंचा। वहां उपस्थित जन समूह उसको श्रद्धांजलि दे रहा था। शिकायत करने वाले भी कह रहे थे, 'मंत्री जी बहुत ईमानदार, विश्वासपात्र व उच्च विचारों वाले व्यक्ति थे। उनकी असामयिक मृत्यु से हम सब दुखी हैं।' यह सुनते ही वह मंत्री अपने असली रूप में आ गया। उसे देख उसके विरोधियों के होश उड़ गए। मंत्री ने राजा से कहा, 'देखा महाराज। इन लोगों की राय कैसे बदल गई। अगर मैं बुरा था तो आज ये मेरी प्रशंसा क्यों कर रहे हैं। क्या आप ऐसे लोगों पर विश्वास करेंगे जिनके विचार हमेशा बदलते रहते हैं।' राजा को अपनी भूल का अहसास हो गया। उसने उस मंत्री को गले से लगाया और उन लोगों को राजसेवा से निकाल बाहर किया जिन्होंने मंत्री की शिकायत की थी।

बड़ा कौन

एक बार सम्राट अशोक अपने विश्वस्त मंत्री भ्रामात्य के साथ कहीं जा रहे थे। रास्ते में एक संत को आते देख वह घोड़े से नीचे उतरे और उन्होंने संत को दंडवत प्रणाम किया। यह बात भ्रामात्य को अच्छी नहीं लगी। संत के जाने के बाद भ्रामात्य ने अशोक से पूछा, 'राजन्, मेरी समझ में नहीं आया कि इतने बड़े सम्राट होकर आपने एक साधारण साधु को दंडवत प्रणाम क्यों किया।' उस समय अशोक ने कोई उत्तर नहीं दिया। दो दिनों के बाद उसने कई जानवरों के मुखौटों के साथ एक साधु और एक राजा का सुंदर मुखौटा भ्रामात्य को देते हुए कहा, 'गांव में जाकर इन मुखौटों को बेच दीजिए। मैं जानना चाहता हूं कि प्रजा किसे ज्यादा पसंद करती है।'

भ्रामात्य उन मुखौटों को बेचने के लिए गांव में गया। साधु का मुखौटा सबसे पहले बिक गया। उसके बाद सभी जानवरों के मुखौटे भी बिक गए। मगर राजा का मुखौटा किसी ने नहीं खरीदा। भ्रामात्य उसे लेकर लौट आया। अशोक ने उसे फिर से जाने को कहा। और यह भी निर्देश दिया कि यह मुखौटा किसी को मुफ्त दे दे। भ्रामात्य दोबारा गया मगर गांव वालों ने मुखौटा लेने से इनकार कर दिया। बोले, 'इस कचरे को लेकर हम क्या करेंगे।' भ्रामात्य फिर लौट आया और सम्राट को गांव वालों की बात बताई। अशोक ने कहा, 'अब तो तुम्हारे प्रश्न का उत्तर मिल गया होगा। संत हमेशा पूजनीय होते हैं क्योंकि वे मोह माया से दूर रह कर पूरे समाज के हित की बात सोचते हैं। राजा का महत्व तात्कालिक होता है पर संत की कीर्ति हमेशा बनी रहती है।'

मूर्खों की चिंता

महान दार्शनिक सुकरात बेहद साधारण जीवन जीते थे। उन्हें जो मिल जाता वह उसी में संतोष करते थे। उनके प्रशंसकों और मित्रों की एक बड़ी जमात थी। एक दिन दोपहर में सुकरात विश्राम कर रहे थे। तभी उनके कुछ मित्र आ गए। सुकरात ने आगे बढ़कर स्नेहपूर्वक उनका स्वागत किया। फिर अनेक मुद्दों पर बातचीत होने लगी। बात करते हुए अचानक सुकरात को ख्याल आया कि उन्होंने तो मित्रों से भोजन के बारे में पूछा ही नहीं। सुकरात ने अपने दोस्तों से कहा, 'माफ कीजिए, मैं एक बात तो पूछना भूल ही गया। यह बताएं कि आप लोग भोजन करके आए हैं या आप सबका भोजन तैयार कराऊं ?'

मित्रों ने कहा, 'भोजन हुआ तो नहीं है। यदि कष्ट न हो तो तैयार कराएं।' सुकरात घर के अंदर गए। उन्होंने पत्नी से कहा, 'मेरे कुछ दोस्त आए हुए हैं। उनके लिए भोजन का प्रबंध करना है।' पत्नी नाराज हुई। बोली, 'आप कैसी बात कर रहे हैं। आखिर घर में रखा ही क्या है जो मेहमानों को प्रस्तुत किया जाए। अभी तो प्रबंध होना संभव नहीं।' सुकरात ने कहा, 'घर में जो कुछ है, वही तैयार कर मेहमानों को परोस दो। कोई परेशानी नहीं है।' पत्नी बोली, 'अच्छा नहीं लगेगा। अपनी बात अलग है। मेहमान क्या सोचेंगे और क्या कहेंगे।' सुकरात हंसे और बोले, 'तुम जो कुछ है वही तैयार कर लो। यदि वे बुद्धिमान होंगे तो हमारी मजबूरी समझेंगे और कुछ न कहेंगे और यदि बुद्धिमान न हुए, मूर्ख हुए तो जो कहना चाहें कहें। हम मूर्खों की चिंता क्यों करें।'

सच्चा कलाकार

प्रख्यात चित्रकार माइकल एंजेलो से कई चित्रकार ईर्ष्या करते थे। उन्हीं में से एक चित्रकार ने सोचा कि मैं एक ऐसा चित्र बनाऊंगा जिसके आगे एंजेलो की कलाकृति फीकी पड़ जाएगी। यह सोचकर उसने काफी मेहनत से एक महिला का चित्र बनाया। उसने उस चित्र को एक ऊंचे स्थान पर रखा ताकि वहां से गुजरते लोग उसे आसानी से देख सकें। यद्यपि चित्र बहुत सुंदर था, फिर भी चित्रकार को अहसास हो रहा था कि इसमें कुछ कमी रह गई है। पर कमी कहां है और क्या है, यह जानने में वह खुद को असमर्थ पा रहा था। एक दिन एंजेलो उस रास्ते से जा रहे थे। उनकी नजर उस चित्र पर पड़ी। उन्हें वह चित्र बड़ा खूबसूरत लगा और उसमें जो कमी थी, वह भी उनके ध्यान में आ गई। एंजेलो चित्रकार के घर पहुंचे। चित्रकार ने एंजेलो को पहले कभी देखा नहीं था। उसने उनका स्वागत किया और आने का कारण पूछा। एंजेलो ने कहा, 'तुमने चित्र तो बहुत सुंदर बनाया है, पर मुझे इसमें एक कमी लग रही है। 'चित्रकार बोला, 'हां मुझे भी आभास हो रहा है कि कुछ कमी रह गई है।' एंजेलो ने कहा, 'जरा तुम अपनी कूची देना, मैं उस कमी को पूरा कर देता हूं।' चित्रकार बोला, 'मैने उसे बड़ी मेहनत से बनाया है, कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारे हाथ से मेरा चित्र बिगड़ जाए।' एंजेलो ने कहा, ' विश्वास करो, मैं तुम्हारा चित्र खराब नहीं करूंगा।' उस चित्रकार से कूची लेकर एंजेलो ने चित्र की दोनों आंखों में दो बिंदी लगा दी। दरअसल चित्रकार आंखों में दो काली बिंदियां लगाना भूल गया था, जिस कारण चित्र अपूर्ण लग रहा था। अब वह चित्र सजीव प्रतीत होने लगा। उसका सौंदर्य बढ़ गया। उस चित्रकार के पूछने पर जब एंजेलो ने अपना नाम बताया तो चित्रकार के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। उसने एंजेलो को बताया कि वह उनके बारे में क्या सोचता रहा था। उसने एंजेलो से क्षमा मांगी।

सफलता का रहस्य

किसी गांव में रमेश और दीपक नामक दो मूर्तिकार रहते थे। रमेश की बनाई प्रतिमाएं इतनी सुंदर होती थीं कि लोग उन्हें मुंहमांगे दामों पर खरीद लेते थे। दीपक की मूर्तियां कोई नहीं खरीदता था।

एक दिन दीपक ने देखा कि रमेश प्रतिमाएं बनाने में व्यस्त है। उस समय पास से एक सेठ की बरात गुजर रही थी। बरात में बहुत सारे लोग शामिल थे। ढोल-नगाड़े बज रहे थे और आतिशबाजी भी हो रही थी। रमेश प्रतिमाएं बनाने में व्यस्त रहा, उसने बरात की ओर देखा तक नहीं। यह देखकर दीपक रमेश के पास पहुंचा और बोला, 'अभी यहां से बरात गुजरी थी। गांव के सभी लोगों ने अपने-अपने काम छोड़कर बरात को देखा, पर तुमने तो नजर भी नहीं उठाई।' दीपक की बात सुनकर रमेश भौंचक रह गया।

उसने आश्चर्य से कहा, 'तुम किस बरात की बात कर रहे हो। मैंने तो किसी बरात के गुजरने की आवाज नहीं सुनी।' दीपक ने कहा, 'अरे भाई कुछ ही देर पहले एक बरात गुजरी है। सभी ने उसे देखा और ढोल-नगाड़ों की आवाज भी सुनी। ऐसा कैसे हो सकता है कि तुम्हें पता ही न लगा हो?' दीपक की बात सुनकर रमेश बोला, 'मैं जब अपना कार्य करता हूं तो मेरा संपूर्ण ध्यान सिर्फ उस कार्य पर ही केंद्रित रहता है। यहां तक कि उस समय मुझे अपने शरीर की भी सुध नहीं रहती।' रमेश की बात सुनकर दीपक को उसकी सफलता का कारण समझ में गया। वह जान गया कि एक कलाकार के लिए एकाग्रता सबसे बड़ी चीज है। उस दिन से वह भी ध्यान लगाकर काम करने लगा।

सेवा ही धर्म है

एक बार राजेंद्र प्रसाद ट्रेन के तीसरे दर्जे में बैठ कर कहीं जा रहे थे। गर्मी का महीना था। गाड़ी में भीड़ बहुत थी। ट्रेन एक स्टेशन पर रुकी। संयोग से उसी समय प्लैटफॉर्म के दूसरी ओर भी एक गाड़ी आकर रुकी। उसमें भी बहुत भीड़ थी। राजेंद्र बाबू ने देखा कि दूसरी ट्रेन के एक डिब्बे में लोग पानी के लिए चिल्ला रहे हैं। चूंकि भीड़ बहुत ज्यादा थी इसलिए वे डिब्बे से नीचे उतर नहीं सकते थे। कोई उन पर ध्यान नहीं दे रहा था। तभी राजेंद्र बाबू की नजर एक महिला पर गई जो अपने छोटे बच्चे को गोद में लिए खिड़की से पानी-पानी चिल्ला रही थी। प्यास से बच्चा रो रहा था। उसकी तरफ भी किसी का ध्यान नहीं जा रहा था।

राजेंद्र बाबू से रहा नहीं गया। वह अपने डिब्बे के लोगों को धकियाते हुए किसी तरह नीचे उतरे और दौड़ कर नल से अपने लोटे में पानी भरकर उसे दिया। तब तक उनकी गाड़ी खुल गई। लेकिन दौड़ कर किसी तरह उन्होंने अपनी ट्रेन पकड़ ली। उनकी सीट के बगल वाले व्यक्ति ने कहा, 'आप तो दुबले-पतले कमजोर आदमी हैं। इस तरह जोखिम उठा कर आप को ऐसा काम नहीं करना चाहिए था। यात्रियों की सुविधा का ध्यान रखना तो सरकार का काम है।' राजेंद्र बाबू बोले, 'भइया, जब हम लोग ही दूसरे की मदद नहीं करेंगे तो सरकार क्या करेगी। उसको क्यों दोष देते हो। वैसे भी प्यासे को पानी पिलाना तो पुण्य का काम है। आप तो हट्टे-कट्टे हो। आपको यह काम सबसे पहले करना चाहिए था।'

बातचीत में जब उस व्यक्ति को मालूम हुआ कि यह सज्जन कोई और नहीं राजेंद्र बाबू हैं, तो वह शर्मिंदा हो गया और उसने राजेंद्र बाबू से क्षमा मांगी। राजेंद्र बाबू ने कहा, 'अरे इसमें क्षमा मांगने की क्या बात है। आज से तुम भी प्रण कर लो कि जरूरतमंद की सेवा का कोई अवसर नहीं छोड़ोगे। सेवा ही सबसे बड़ा धर्म है।' उस व्यक्ति ने वैसा ही करने का वचन दिया।

गुरु की सीख

किसी नदी के किनारे एक आश्रम था, जिसमें दो शिष्य शिक्षा प्राप्त करते थे। गुरु को दोनों बहुत प्रिय थे। शिष्य भी अपने गुरु से बहुत स्नेह करते थे और उनकी प्रत्येक आज्ञा का पालन भी करते थे। दोनों बहुत गुणी थे, लेकिन उनके विचार एक-दूसरे से भिन्न थे। दोनों अक्सर एक-दूसरे के कार्यों में विघ्न डालते रहते थे, जिससे दोनों में से किसी का काम कभी पूर्ण नहीं हो पाता था। गुरु उनके इस व्यवहार से बहुत दुखी थे।

एक दिन गुरु नदी में स्नान करके आश्रम लौट रहे थे। उन्हें एक मछुआरा मिला। मछुआरे के पास बहुत सी मछलियां और केकड़े थे। गुरु ने मछुआरे से कुछ केकड़े खरीद लिए। जब वह केकड़े लेकर आश्रम पहुंचे तो शिष्य बहुत हैरान हुए। गुरु ने केकड़ों को टोकरी में डाल दिया। लेकिन उन्होंने टोकरी का मुंह खुला ही छोड़ दिया। इस पर शिष्यों ने टोका, 'गुरुदेव, आपने टोकरी का मुंह तो खुला ही छोड़ दिया है। केकड़े तो टोकरी से बाहर आ जाएंगे।' यह सुनकर गुरु कुछ देर शांत रहे फिर बोले, 'चिंता न करो, मैं इन केकड़ों के स्वभाव से परिचित हूं। यह रात भर उछल-कूद मचाने पर भी इस टोकरी की कैद से छूट नहीं सकते, क्योंकि जो केकड़े ऊपर चढ़ने की कोशिश करेंगे, नीचे वाले केकड़े उनकी टांगें खींचकर उन्हें फिर नीचे ले जाएंगे।

ईर्ष्यालु लोग भी इसी तरह एक-दूसरे को आगे बढ़ने से रोकते रहते हैं।' शिष्य गुरु का इशारा समझ गए। उन्होंने उस दिन के बाद एक-दूसरे के कार्यों में विघ्न डालना बंद कर दिया। कुछ दिनों के बाद गुरु केकड़ों को तालाब में छोड़ आए।

नागरिकों का महत्व

एक बार मगध की सेना ने कौशल राज्य पर चढ़ाई कर दी और कौशल नरेश को उनके अंगरक्षकों तथा कुछ और व्यक्तियों के साथ एक स्थान पर घेर लिया। यह देखकर कौशल नरेश ने मगध के सेनानायक से कहा कि वह उनके सामने बिना किसी प्रतिरोध के समर्पण कर देंगे यदि उनके साथ आए हुए दस व्यक्तियों को यहां से सकुशल जाने दिया जाए। सेनानायक ने यह शर्त मान ली और दस व्यक्तियों को सकुशल छोड़ दिया।

फिर उसने कौशल नरेश को बंदी बनाकर मगध सम्राट के सामने प्रस्तुत किया। और उन्हें सारा विवरण भी सुनाया। यह सुनकर मगध सम्राट भी हैरान हो गए। उन्होंने कौशल नरेश से पूछा, 'जिन व्यक्तियों की सुरक्षा के लिए आपने स्वयं को कैद करवा दिया, वे कौन थे?' कौशल नरेश बोले, 'राजन, वे हमारे राज्य के महत्वपूर्ण विद्वान और संत थे। मैं भले मारा जाऊं मगर उनका जीवित रहना जरूरी है। वे रहेंगे तो राज्य में आदर्श, कर्त्तव्य, दया, परोपकार, सत्यनिष्ठा आदि की परंपराएं व भावनाएं जीवित रहेंगी।

ऐसा होने से कर्त्तव्यनिष्ठ नागरिकों के निर्माण का कार्य बराबर होता रहेगा तथा उपयुक्त शासक भी पुन: पैदा हो जाएंगे। राष्ट्र की सच्ची संपत्ति उसके श्रेष्ठ नागरिक ही होते है। और उन्हें बनाने वाले होते हैं ये विद्वान और संत।' मगध के राजा कौशल नरेश की ये बातें सुनकर दंग रह गए। उन्होंने कहा, 'जिस राज्य में जनकल्याण में लगे सत्पुरुषों को इतना महत्व दिया जाता है, वहां की शासन-व्यवस्था में परिवर्तन की कोई जरूरत नहीं है। उससे तो हमें भी प्रेरणा लेनी चाहिए।' यह कहकर उन्होंने कौशल नरेश को मुक्त कर दिया।

असली गरीब

एक भिक्षुक को दिन भर में जो कुछ मिलता था, उसे वह खा-पीकर समाप्त कर देता था। प्राय: उसे आवश्यकता के अनुसार भिक्षा मिल जाया करती थी। एक दिन उसे उसकी जरूरत से ज्यादा एक पैसा मिल गया। वह सोचने लगा-इसका क्या उपयोग करूं? उसने उस एक पैसे को अपने चीथड़े के कोने में बांध लिया और एक पंडित के पास गया। उसने उनसे पूछा, 'महाराज, मैं अपनी संपत्ति का क्या सदुपयोग करूं?' पंडित जी ने पूछा, 'तुम्हारे पास कितनी संपत्ति है?' उसने कहा, 'एक पैसा।' इस पर पंडित जी चिढ़ गए। उन्होंने कहा, 'जा-जा, तू एक पैसे के लिए मुझे परेशान करने आया है।' वह भिक्षुक निराश नहीं हुआ। वह कई पंडितों के पास गया। कहीं हंसी मिली तो कहीं दुत्कार।

किसी सज्जन ने सलाह दी कि पैसा किसी गरीब को दे दो। अब भिक्षुक गरीब की तलाश में चल पड़ा। उसने अनेक भिखारियों से प्रश्न किया कि तुम गरीब हो? परंतु एक पैसे के लिए किसी ने गरीब बनना स्वीकार नहीं किया। तभी भिक्षुक को पता चला कि किसी देश काराजा अपने पड़ोसी राज्य पर चढ़ाई करने जा रहा है। उसने लोगों से पूछा, 'राजा चढ़ाई क्यों कर रहे हैं?' लोगों ने बताया 'धन-संपत्ति प्राप्त करने के लिए।' भिक्षुक को लगा कि राजा बहुत गरीब होगा। तभी तो धन-संपत्ति के लिए मारकाट करने पर आमादा है। क्यों न उसे ही पैसा दे दिया जाए।

जब राजा की सवारी उसके पास से गुजरने लगी, तो वह खड़ा हो गया और झटपट अपने चीथड़े में से पैसा निकालकर उसने राजा के हाथ पर डाल दिया। उसने कहा, 'मुझे बहुत दिनों से एक गरीब की तलाश थी। आज आपको पाकर मेरा मनोरथ पूरा हो गया, आप मेरी पूंजी संभालिए।' राजा रुक गया। भिक्षुक ने उसे अपनी कहानी सुनाई तो उसने धावा बोलने का इरादा बदल दिया और सारी फौज के सामने यह बात कबूल की- असली गरीब वह है, जिसके लालच का कोई अंत नहीं।

मनुष्य का स्वभाव

पुराने जमाने की बात है। एक राजा था , जिसके तीन पुत्र थे। वह अपने तीनों पुत्रों को बहुत चाहता था , लेकिन उनके भविष्य को लेकर हमेशा चिंतित भी रहता था। एक दिन राजा अपने तीनों पुत्रों के साथ नगर भ्रमण के लिए निकला। रास्ते में एक तेजस्वी महात्मा मिले। राजा ने उन्हें नमस्कार किया और अपने पुत्रों के भविष्य के विषय में उनसे पूछा। महात्मा ने राजा के तीनों पुत्रों को प्यार से बुलाया और उन तीनों को दो - दो केले खाने को दिए। एक बच्चे ने केले खाकर छिलके रास्ते पर फेंक दिए।

दूसरे ने केले खाकर छिलके रास्ते में न फेंककर कूड़ेदान में डाले। और तीसरे ने छिलके फेंकने के बजाय गाय को खिला दिया। महात्मा जी यह सब बड़े गौर से देख रहे थे। उन्होंने राजा को अलग ले जाकर कहा , ' तुम्हारा पहला पुत्र मूर्ख और उद्दंड है , जबकि दूसरा गुणी और समझदार है। तीसरा पुत्र सज्जन और उदार बनेगा। हो सकता है वह बड़ा समाजसेवी बने। ' महात्मा की बात सुनकर राजा ने पूछा , ' आपने कौन सा गणित लगाकर जवाब दिया ?' महात्मा बोले , ' व्यवहार के गणित से बढ़कर निर्धारण करने का और कोई उपाय नहीं होता। आपके आचरण से आपके विचार और स्वभाव का पता चलता है। हम जैसा आचरण करते हैं वैसा ही बनते भी हैं। मैंने एक मामूली आचरण के आधार पर आपके तीनों पुत्रों के स्वभाव का पता लगाया है। मूलभूत स्वभाव का पता चलने के बाद उसमें परिवर्तन के लिए प्रयास किया जा सकता है। ' यह कहकर महात्मा ने राजा और उसके पुत्रों को आशीर्वाद दिया और चल पड़े।

निंदक और चाटुकार

आदर्श नगर के महाराज आदर्शसेन अपने दरबार में बैठे थे। अनेक विषयों पर मंत्रणा चल रही थी। अचानक आदर्शसेन को न जाने क्या सूझा कि वह बीच में ही बोल उठे, 'क्या कोई मुझे बताएगा कि सबसे तेज कौन काटता है और सबसे जहरीला विष किसका होता है?' यह सुनकर सभी दरबारी व विद्वान एक-दूसरे की ओर देखने लगे। काफी देर बाद एक विद्वान उठकर बोला, 'महाराज, मेरी नजर में तो सबसे तेज विष सांप का होता है।

उसका काटा पानी भी नहीं मांगता।' राजा इस जवाब से संतुष्ट नहीं दिखे। यह भांप कर एक दरबारी बोला, 'मेरी नजर में तो सबसे तेज ततैया काटता है। उसके काटते ही चीख निकल जाती है।' राजा ने इस पर भी अधिक ध्यान नहीं दिया। तब एक और विद्वान खड़ा हुआ और राजा से बोला, 'हुजूर, मेरी नजर में तो सबसे तेज काटने वाली मधुमक्खी होती है। उसके काटते ही किसी व्यक्ति का शरीर सूज जाता है और वह कई दिनों तक दर्द से बिलबिलाता रहता है। भला उससे तेज विष किसका हो सकता है?'

इस प्रकार सभी व्यक्तियों ने अपने अनुसार एक से बढ़ कर एक जवाब दिए, किंतु राजा किसी के भी जवाब से संतुष्ट नहीं हुए। तभी एक युवा विद्वान ने उठकर कहा, 'महाराज, मेरी नजर में तो सबसे तेज व जहरीले दो ही होते हैं -निंदक और चाटुकार। निंदक के हृदय में निंदा द्वेष रूपी जहर भरा रहता है। वह निंदा करके पीछे से ऐसे काटता है कि मनुष्य तिलमिला उठता है।

चाटुकार अपनी वाणी में मीठा विष भरकर ऐसी चापलूसी करता है कि मनुष्य अपने दुर्गुणों को गुण समझकर अहंकार के नशे मंे चूर हो जाता है। चापलूस की वाणी विवेक को काटकर जड़मूल से नष्ट कर देती है। अनेक ऐसे उदाहरण सामने हैं, जिनमें निंदक व चापलूस ने मनुष्य को इस प्रकार काटा कि वे समूल नष्ट हो गए।' इस जवाब से राजा और सारे विद्वान पूरी तरह संतुष्ट हो गए।

सीखने की उम्र

स्वामी रामतीर्थ जापान की यात्रा पर थे। जिस जहाज से वह जा रहे थे, उसमें नब्बे वर्ष के एक बुजुर्ग भी थे। स्वामी जी ने देखा कि वह एक पुस्तक खोल कर चीनी भाषा सीख रहे हैं। वह बार-बार पढ़ते और लिखते जाते थे। स्वामी जी सोचने लगे कि यह इस उम्र में चीनी सीख कर क्या करेंगे।

एक दिन स्वामी जी ने उनसे पूछ ही लिया, 'क्षमा करना। आप तो काफी वृद्ध और कमजोर हो गए हैं। इस उम्र में यह कठिन भाषा कब तक सीख पाएंगे। अगर सीख भी लेंगे तो उसका उपयोग कब और कैसे करेंगे।' यह सुन कर उस वृद्ध ने पहले तो स्वामी जी को घूरा, फिर पूछा, 'आपकी उम्र कितनी है?' स्वामी जी ने कहा, 'तीस वर्ष।'

बुजुर्ग मुस्कराए और बोले, 'मुझे अफसोस है कि इस उम्र में आप यात्रा के दौरान अपना कीमती समय बेकार कर रहे हैं। मैं आप लोगों की तरह नहीं सोचता। मैं जब तक जिंदा रहूंगा तब तक कुछ न कुछ सीखता रहूंगा। सीखने की कोई उम्र नहीं होती। यह नहीं सोचूंगा कि कब तक जिंदा रहूंगा, क्योंकि मृत्यु उम्र को नहीं देखती। वह तो कभी भी आ सकती है। आपकी बात से आपकी सोच का पता चलता है। शायद इसी सोच के कारण आप का देश पिछड़ा है।'

स्वामी जी ने उससे माफी मांगते हुए कहा, 'आप ठीक कहते हैं। मैं जापान कुछ सीखने जा रहा था, लेकिन जीवन का बहुमूल्य पहला पाठ तो आप ने रास्ते में ही, एक क्षण में मुझे सिखा दिया।' बुजुर्ग बिना कुछ बोले फिर अपने काम में व्यस्त हो गए।

परोपकार का दंभ

एक गुरु अपने शिष्यों से कहते थे कि दिन भर में एक नेक कार्य अवश्य करना चाहिए। इससे ही जन्म सफल होता है। एक दिन गुरु ने उत्सुकतावश शिष्यों से पूछा कि कल किस-किसने कोई नेक कार्य किया था?

उनके तीन शिष्यों ने कहा कि उन्होंने नेक कार्य किया था। गुरु ने उनमें से एक से पूछा, 'बताओ कल तुमने क्या नेक कार्य किया?' शिष्य बोला, 'गुरुजी, मैंने एक असहाय बुढि़या को हाथ पकड़कर सड़क पार करवाई।' गुरु ने उसकी पीठ थपथपाई, फिर दूसरे से वही प्रश्न किया। दूसरा शिष्य बोला, 'गुरुजी, मैंने भी एक बुढि़या को सड़क पार कराई।'

फिर गुरु ने तीसरे शिष्य की ओर नजरें घुमाईं। उसने भी यही कहा कि मैंने एक वृद्धा को सड़क पार कराई। तीनों की एक ही जैसी बात सुनकर गुरुजी को संदेह हुआ। वह बोले, 'भला ऐसा कैसे हो सकता है कि तुम तीनों ने ही वृद्धा को सड़क पार कराई। तुम तीनों एक ही वृद्धा को सड़क पार कैसे करा सकते हो?' इस पर तीनों एक साथ बोले, 'गुरुजी जब हम जा रहे थे तो रास्ते में हमें एक वृद्धा मिली।

हमने उसे सड़क पार कराने के लिए कहा तो वह बोली कि मुझे सड़क पार नहीं करनी है। इस पर हम तीनों ने उसे जबरदस्ती पकड़कर सड़क पार कराई।' उनकी बात सुनकर गुरुजी दंग रह गए। उन्होंने शिष्यों को समझाते हुए कहा, 'नेक कार्य तब होता है जब वास्तव में परोपकार किया जाए। केवल परोपकार का दंभ भरने के लिए किया गया कार्य परोपकार नहीं कहलाता।' तीनों शिष्यों ने अपनी गलती के लिए गुरु से क्षमा मांगी।

महात्मा की शिक्षा

एक बार मगध के राजा चित्रांगद वन विहार के लिए निकले। साथ में कुछ बेहद करीबी मंत्री और दरबारी भी थे। वे घूमते हुए काफी दूर निकल गए। एक जगह सुंदर सरोवर के किनारे किसी महात्मा की कुटिया दिखाई दी। वह जगह राजा को बहुत पसंद आई हालांकि वह उसे दूर से ही देखकर निकल गए। राजा ने सोचा कि महात्मा अभावग्रस्त होंगे, इसलिए उनकी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कुछ धन भिजवा दिया। महात्मा ने वह धनराशि लौटा दी। कुछ दिनों बाद और अधिक धन भेजा गया, पर सब लौटा दी गई। तब राजा स्वयं गए और उन्होंने महात्मा से पूछा, 'आपने हमारी भेंट स्वीकार क्यों नहीं की?'

महात्मा हंसते हुए बोले, 'मेरी अपनी जरूरत के लिए मेरे पास पर्याप्त धन है।' राजा ने कुटिया में इधर-उधर देखा, केवल एक तुंबा, एक आसन एवं ओढ़ने का एक वस्त्र था, यहां तक कि धन रखने के लिए कोई अलमारी आदि भी नहीं थी। राजा ने फिर कहा, 'मुझे तो कुछ दिखाई नहीं देता।' महात्मा ने राजा को पास बुलाकर उनके कान में कहा, 'मैं रसायनी विद्या जानता हूं। किसी भी धातु से सोना बना सकता हूं।' अब राजा बेचैन हो गए, उनकी नींद उड़ गई। धन-दौलत के आकांक्षी राजा ने किसी तरह रात काटी और सुबह होते ही महात्मा के पास पहुंचकर बोले, 'महाराज! मुझे वह विद्या सिखा दीजिए, ताकि मैं राज्य का कल्याण कर सकूं।' महात्मा ने कहा, 'ठीक है पर इसके लिए तुम्हें समय देना होगा। वर्ष भर प्रतिदिन मेरे पास आना होगा। मैं जो कहूं उसे ध्यान से सुनना होगा। साल पूरा होते ही विद्या सिखा दूंगा।' राजा रोज आने लगे। महात्मा के साथ रहने का प्रभाव जल्दी ही दिखने लगा। एक वर्ष में राजा की सोच पूरी तरह बदल गई। महात्मा ने एक दिन पूछा, 'वह विद्या सीखोगे?' राजा ने कहा, 'गुरुदेव! अब तो मैं स्वयं रसायन बन गया। अब किसी नश्वर विद्या को सीखकर क्या करूंगा।'

चार मित्र

राजा आदर्श सेन के राज्य में प्रजा बहुत खुशहाल और संतुष्ट थी। वहां कभी किसी तरह का तनाव नहीं होता था। यह बात पड़ोसी राज्य के राजा कुशल सेन तक भी पहुंची। उसके यहां आए-दिन झगड़े होते रहते थे और प्रजा बहुत दु:खी थी। राजा कुशल सेन अपने पड़ोसी राज्य की सुख-शांति व खुशहाली का राज जानने के लिए आदर्श सेन के पास पहुंचा और बोला, 'मेरे यहां हर ओर दु:ख-दर्द व बीमारी फैली है। पूरे राज्य में त्राहि-त्राहि मची हुई है। कृपया मुझे भी अपने राज्य की सुख-शांति का राज बताएं।' कुशल सेन की बात सुनकर राजा आदर्श सेन मुस्कुरा कर बोला, 'मेरे राज्य में सुख-शांति मेरे चार मित्रों के कारण आई है।' इससे कुशल सेन की उत्सुकता बढ़ गई।

उसने कहा, 'कौन हैं वे आपके मित्र? क्या वे मेरी मदद नहीं कर सकते?' आदर्श सेन ने कहा, 'जरूर कर सकते हैं। सुनिए मेरा पहला मित्र है सत्य। वह कभी मुझे असत्य नहीं बोलने देता। मेरा दूसरा मित्र प्रेम है, वह मुझे सबसे प्रेम करने की शिक्षा देता है और कभी भी घृणा करने का अवसर नहीं देता। मेरा तीसरा मित्र न्याय है। वह मुझे कभी भी अन्याय नहीं करने देता और हर वक्त मेरे आंख-कान खुले रखता है ताकि मैं राज्य में होने वाली घटनाओं पर निरंतर अपनी दृष्टि बनाए रखूं। और मेरा चौथा मित्र त्याग है। त्याग की भावना ही मुझे स्वार्थ व ईर्ष्या से बचाती है। ये चारों मिलकर मेरा साथ देते हैं और मेरे राज्य की रक्षा करते हैं।' कुशल सेन को आदर्श सेन की सफलता का रहस्य समझ में आ गया।

मन की जीत

नमि नामक राजा राजपाट छोड़कर तपस्या करने निकले। वह ज्यों ही राजमहल से बाहर आए, एक देवदूत उनकी परीक्षा लेने के उद्देश्य से सामने आकर खड़ा हो गया और बोला, 'राजन्! आप जा रहे हैं। किंतु पहले आपका कर्त्तव्य है कि आप अपने महल की रक्षा के लिए मजबूत दरवाजे, बुर्ज, खाई और तोपखाना आदि बनाकर जाएं ताकि प्रजा और भावी सम्राट सुरक्षित रह सकें।'

इस पर नमि ने कहा, 'हे देव। मैंने ऐसा नगर बनाया है जिसके चारों ओर श्रद्धा, तप और संयम की दीवारें हैं। मन, वचन और काया की एकरूपता की खाई भी है। जिस तरह शत्रु जमीन की खाई को पार कर नगर में प्रवेश नहीं कर सकता, उसी तरह अन्य स्थानों पर व्याप्त वैमनस्य, छल-कपट, काम, क्रोध और लोभ भी मेरी बनाई खाइयों को लांघकर आत्मा में प्रविष्ट नहीं हो सकते। मेरा पराक्रम मेरा धनुष है। मैंने उसमें धैर्य की मूठ लगाई है और सत्य की प्रत्यंचा चढ़ाई है। भौतिक संग्राम से मुझे क्या लेना-देना।

मैंने तो आध्यात्मिक संग्राम के लिए सामग्री इकट्ठी की है। मेरे जीवन की दिशा बदलने के साथ ही मेरे संग्राम का रूप भी बदल गया है। ऐसा नहीं है कि ये सारी शिक्षाएं मैंने स्वयं ली हैं अपितु यह मेरे राज्य के एक-एक नागरिक के तन-मन में रची-बसी हैं। इसलिए मुझे अपने राज्य की चिंता करने की आवश्यकता नहीं है।' देवदूत ने कहा, 'राजा का कर्त्तव्य है कि वह अपने आसपास के सभी राज्यों को अपने अधीन करे।

आप इस कार्य को पूरा करके ही साधु बनें।' यह सुन कर नमि बोले, 'जो रणभूमि में दस हजार योद्धाओं को जीतता है, वह बलवान माना जाता है, किंतु उससे भी अधिक बलवान वह है, जो अपने मन को जीत लेता है। दूसरों को अधीन करने से अच्छा है अपने मन को अधीन करना। जिसने मन को जीत लिया उसने विश्व को जीत लिया।' यह सुनकर देवपुरुष उनके आगे नतमस्तक हो गया और उन्हें शुभकामनाएं देकर चला गया।

सत्य की राह

एक चोर था। एक दिन उसे एक महात्मा मिले। महात्मा ने उससे कहा कि अगर वह हमेशा सत्य बोले तो उसका कल्याण होगा। चोर को यह कठिन काम नजर आया पर चूंकि वह महात्मा से बहुत प्रभावित हुआ था, इसलिए उसने उनकी बात पर अमल करने का फैसला किया।

एक दिन वह राजमहल में चोरी करने गया। बाहर निकलते ही वह पकड़ा गया। द्वारपाल ने पूछा, 'तुम इतनी रात में यहां क्या कर रहे हो?' चोर ने कहा, 'मैं चोर हूं और चोरी करके वापस जा रहा हूं।' द्वारपाल को उसकी बात मजाक लगी। वह हंसने लगा। उसने चोर के हाथ में पोटली देखी तो पूछा, 'इसमें क्या है?' चोर बोला, 'इसमें रानी के गहने हैं।' द्वारपाल ने पोटली खोली तो उसमें सचमुच गहने थे।

चोर को अगले दिन राजा के सामने पेश किया गया। राजा ने कहा, 'तुम जानते हो राजमहल में चोरी के लिए मृत्युदंड भी दिया जा सकता है, फिर भी तुम कह रहे हो कि तुमने चोरी की है।' चोर ने कहा, 'महाराज मैंने तय कर लिया है कि केवल सत्य ही बोलूंगा।' राजा ने कहा, 'अगर अभी भी तुम कहो कि तुमने चोरी नहीं की है तो तुम्हें माफ किया जा सकता है।' चोर ने कहा, 'मैं सत्य से नहीं हटूंगा।

चोरी मैंने ही की है।' राजा ने कहा, 'तो फिर तुम्हें सजा मिलेगी। तुम्हारी सजा यह है कि तुम आज से हमारे मंत्री रहोगे। तुमने विवशता में चोरी करना जरूर शुरू कर दिया पर तुम में सत्य को अपनाने और उस पर टिके रहने की शक्ति है। मुझे ऐसे ही लोगों की आवश्यकता है।'

धैर्य का पाठ

भंसाली जी संस्कृत के प्रख्यात विद्वान थे। वह प्राध्यापक के रूप में कार्य भी करते थे। वह संस्कृत के उत्थान के लिए रोज नई योजनाएं बनाते रहते थे। एक दिन इसी संदर्भ में उन्होंने गांधीजी से मिलने का मन बनाया और उनके आश्रम पहुंच गए। आश्रम में पहुंचते ही उनकी नजर एक साधारण से दिखने वाले कमजोर व्यक्ति पर पड़ी। वह व्यक्ति कुएं से पानी खींच-खींच कर पौधों में डाल रहा था। वह अपने कार्य में मगन था।

उसे व्यस्त देखकर भंसाली जी बोले, 'सुनो भाई! मुझे महात्मा जी से मिलना है।' यह सुनकर वह व्यक्ति गर्दन उठाते हुए बोला, 'उनसे क्या काम है? कहिए।' उसकी बात सुनकर भंसाली जी बोले, 'तुमसे क्या कहूं। मेरी बातें तुम्हारी समझ में नहीं आएंगी। मुझे उनसे संस्कृत के संबंध में कुछ चर्चा करनी है।' वह व्यक्ति बोला, 'ठीक है, आप मेरे साथ कुएं पर चलिए। वह वहीं मिलेंगे।' दोनों कुएं पर गए। वहां जाते ही वह व्यक्ति जूठे बर्तन मांजने लगा। यह देखकर थोड़ी देर तक तो भंसाली जी इधर-उधर देखते रहे। किंतु जब कुछ देर बाद भी उन्हें उन दोनों के अलावा कोई और नजर नहीं आया तो वह थोड़ा गुस्से से बोले 'तुम बर्तन बाद में मांज लेना। पहले मुझे महात्मा जी से तो मिला दो।' यह सुनकर वह व्यक्ति मुस्कराते हुए बोला, 'मैं ही गांधी हूं। संस्कृत पर चर्चा करने के लिए थोड़ा धैर्य भी तो चाहिए। पर आपको तो बहुत जल्दी है।' भंसाली जी ने गांधीजी से माफी मांगी। वह उनकी सादगी के कायल हो गए।

तीन गहने

ईश्वरचंद्र विद्यासागर का बचपन बंगाल के मेदिनीपुर जिले के वीर सिंह गांव में बीता। एक बार ईश्वरचंद्र के मन में सवाल उठा कि गांव में सभी महिलाएं अच्छे - अच्छे गहने पहनती हैं , लेकिन उनकी मां कभी कोई गहना क्यों नहीं पहनती। एक दिन उन्होंने मां से बड़े प्यार से पूछा , ' मां , तुम्हें कौन - कौन से गहने अच्छे लगते हैं ?' मां हंसती हुई बोली , ' क्यों पूछ रहे हो बेटा ?' ईश्वर चंद्र ने कहा , ' जब मैं बड़ा होऊंगा न , तो तुम्हारे लिए ढेर सारे गहने बनवाऊंगा। ' यह सुन कर मां ने कहा , ' बेटा , मुझे बहुत सारे गहने तो नहीं चाहिए मगर तुम बनवा सको तो मेरे लिए तीन गहने अवश्य बनवाना। ' ईश्वरचंद्र ने पूछा , ' बताओ न मां , वे तीन गहने कौन - कौन हैं। '

मां बोली , ' बेटा , पहला गहना यह है कि तुम बड़े होकर गांव में एक स्कूल बनवाना। यहां एक भी स्कूल नहीं है। गांव के बच्चों को पढ़ने के लिए बहुत दूर जाना पड़ता है। दूसरा गहना यह होगा कि गांव में एक दवाखाना बनवाना और तीसरा गहना यह होगा कि तुम यहां के अनाथ और गरीब बच्चों के लिए भोजन की व्यवस्था करना। मुझे यही गहने सबसे प्रिय हैं। ' यह सुन कर ईश्वरचंद्र की आंखों में आंसू आ गए।

वह बोले , ' मां , मैं आप की इच्छानुसार आप के ये तीनों गहने अवश्य बनवाऊंगा। ' उन्होंने उसी समय प्रण किया कि जब तक मां की इच्छा पूरी नहीं होगी वह दूसरा कोई काम नहीं करेंगे। बड़े होने पर उन्होंने सबसे पहले मां के नाम पर भगवती देवी विद्यालय की स्थापना की , फिर एक दवाखाना बनवाया और ऐसी व्यवस्था की कि गांव के गरीब और अनाथ बच्चे कभी भूखा न सोएं। उनके काम की प्रशंसा सुन कर एक दिन एक विद्वान उनके योगदान की सराहना करने आए। उन्होंने कहा , ' तुम्हारी समझ बहुत अच्छी है जो ऐसा काम कर रहे हो। ' ईश्वचंद्र ने कहा , ' यह मेरी समझ नहीं है। यह तो बचपन में मां की दी हुई शिक्षा का फल है। '

अहंकार का अंत

यह वैदिक युग की कथा है। सिंधु नदी के किनारे एक वन में किसी महर्षि के आश्रम में दो शिष्य शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। गुरु उन दोनों के प्रति काफी स्नेह रखते थे। वह कोशिश करते थे कि दोनों को सर्वश्रेष्ठ ज्ञान उपलब्ध कराएं। कई वर्षों तक कड़ी साधना करने के बाद दोनों शिष्य अपने - अपने विषयों के प्रकांड विद्वान बन गए। पर जल्दी ही दोनों को अपनी विद्वत्ता पर अहंकार हो गया और दोनों एक दूसरे से ईर्ष्या करने लगे। बात - बात में वे एक - दूसरे से बहस करने लगते या एक - दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश करते। एक दिन उनके गुरु स्नान करने के लिए गए थे।

जब थोड़ी देर बाद वह आश्रम लौटे तो दोनों शिष्यों को आपस में झगड़ते हुए पाया। दोनों ही एक दूसरे को आश्रम की सफाई करने के लिए कह रहे थे। यह देखकर महर्षि हैरान हो गए। उन्होंने शिष्यों से झगड़े का कारण पूछा। एक शिष्य बोला , ' गुरुदेव , मैं इससे विद्वान और श्रेष्ठ हो गया हूं इसलिए सफाई जैसा छोटा काम इसे करना चाहिए। ' दूसरे शिष्य ने भी गुरु को वही बात कही कि वह दूसरे से श्रेष्ठ है इसलिए सफाई का काम उसे शोभा नहीं देता। दोनों की बातें सुनकर महर्षि मुस्कराते हुए बोले , ' तुम दोनों ने बिल्कुल ठीक कहा। तुम दोनों वास्तव में विद्वान और श्रेष्ठ हो गए हो , इसलिए सफाई जैसा छोटा काम अब मैं किया करूंगा। ' यह सुनते ही दोनों शिष्यों की आंखें खुल गईंं। गुरु के दिए संस्कार जाग उठे। अहंकार चूर - चूर हो गया। फिर दोनों ही आश्रम की सफाई करने लगे।

सहनशीलता का पाठ

राजा अपने दरबार में बैठे थे। तभी दरबारियों ने एक संत की चर्चा छेड़ दी। उन्होंने बताया कि वह संत केवल काले रंग के वस्त्र धारण करते हैं और उनकी सहनशीलता की कोई सीमा नहीं है। वह बड़े - छोटे , अमीर - गरीब सभी के साथ समान व्यवहार करते हैं। राजा ने जब यह सुना तो वह उस ज्ञानी संत से मिलने को उत्सुक हो उठे। वह उनसे मिलने उनके आश्रम में जा पहुंचे। संत ने राजा के साथ भी वैसा ही व्यवहार किया जैसा वह आश्रम में आने वाले अन्य लोगों के साथ कर रहे थे।

राजा ने संत से पूछा , ' आप हमेशा काले वस्त्र ही क्यों धारण करते हैं ?' राजा का प्रश्न सुनकर संत मुस्कराते हुए बोले , ' पुत्र , मैंने अपने अंतर्मन के मित्रों काम , क्रोध , ईर्ष्या , लोभ , मोह आदि को मार डाला है। इसलिए मैं उन्हीं के शोक में काले वस्त्र धारण करता हूं। ' यह रोचक जवाब सुनकर सब हंस पड़े और संत से अभिभूत भी हुए। राजा की जिज्ञासा थोड़ी और बढ़ी। उन्होंने सोचा कि क्यों न इस संत की परीक्षा ली जाए। उन्होंने संत को अपने महल में बुलवाया। संत के पहुंचने पर राजा के सेवकों ने उन्हें धक्के मार कर बाहर निकाल दिया।

उसके कुछ देर बाद उन्होंने संत को एक बार फिर वापस बुलवाया लेकिन उन्हें फिर उसी तरह बाहर कर दिया गया। यह क्रम कई बार चला। हर बार संत सहज भाव से फिर आ खड़े होते। उनके चेहरे पर क्रोध की मामूली झलक भी नहीं दिखाई पड़ी। संत की सहनशीलता देखकर राजा उनके पैरों पर गिर पडे़ और उनसे क्षमा मांगते हुए बोले , ' आप सचमुच क्षमावान व सहनशील हैं और आपने वास्तव में मानव के अंतर्मन के मित्रों काम , क्रोध , लोभ , ईर्ष्या , मोह आदि पर विजय प्राप्त कर ली है। कृपया मुझे भी अपनी शरण में लेकर इन सब पर विजय पाने का कोई रास्ता बताइए ताकि मैं अपनी प्रजा का समुचित पालन कर सकूं । ' इसके बाद राजा संत से शिक्षा प्राप्त करने लगे।

बहुमूल्य रत्न

एक बार राजा कृष्णदेव के निमंत्रण पर भक्त पुरंदर दास राजमहल में पधारे। जाते समय राजा ने दो मुट्ठी चावल उनकी झोली में डालते हुए कहा, 'महाराज, इस छोटी सी भेंट को स्वीकार करें।' राजा ने बड़ी चतुराई से इन चावलों में कुछ हीरे मिला दिए थे। पुरंदर दास की पत्नी ने घर पर चावल साफ करते समय देखा कि उनमें कुछ बहुमूल्य रत्न भी हैं, तो उन्होंने उन्हें अलग करके कूड़ेदान में फेंक दिया।

उसके बाद पुरंदर दास को प्राय: रोज ही किसी न किसी कारण से दरबार में आना पड़ा। राजा रोज ही उन्हें दो मुट्ठी चावल के साथ हीरे मिलाकर देते और मन में यही सोचते कि यह ब्राह्मण भी धन के लालच से मुक्त नहीं है। एक दिन राजा ने कहा, 'लालच मनुष्य को आध्यात्मिक उपलब्धियों से दूर कर देता है। आप स्वयं ही अपने विषय में विचार करें।' राजा की यह बात सुनकर पुरंदर दास को बेहद दुख हुआ।

वह अगले दिन राजा को अपना घर दिखाने ले गए। उस समय पुरंदर दास की पत्नी चावल साफ कर रही थीं। राजा ने पूछा, 'देवी, आप क्या कर रही हैं?' वह बोलीं, 'महाराज, कोई व्यक्ति भिक्षा के चावल के साथ कुछ पत्थर मिलाकर हमें देता है। वैसे वे बहुमूल्य रत्न हैं, लेकिन हमारे लिए इनका कोई मूल्य नहीं है। अन्न तो खाना ही है, इसलिए उन्हें निकाल कर अलग कर रही हूं।' राजा ने अपने उन सभी बहुमूल्य रत्नों को कूड़ेदान में पड़े देखा तो आश्चर्यचकित रह गए। फिर उस भक्त दंपती के चरणों में गिर कर उन्होंने अपने आरोप के लिए क्षमा मांगी। पुरंदर दास और उनकी पत्नी ने उन्हें अपने सहज स्वभाव के अनुसार क्षमा कर दिया।

समर्पित सचिव

महादेव भाई देसाई महात्मा गांधी के पास आए। उस समय वह युवा थे और कुछ नया करने के जोश से भरे हुए थे। उन्होंने गांधी जी से कहा, 'मैंने आपके गुजराती भाषण का अंग्रेजी में अनुवाद किया है। कृपया जांच लंे, यह ठीक है या नहीं? मैं आपकी सेवा में रहना चाहूंगा। अगर आप ठीक समझें तो मुझे अपने साथ कार्य करने का अवसर दें।' गांधी जी ने लेख पढ़ने से पहले ही महादेव को स्वीकृति दे दी। गांधी जी बोले, 'ठीक है, तुम जैसा चाहते हो वैसा ही होगा।'

गांधीजी ने उन्हें अपने सचिव के पद पर रख लिया। गांधी जी के सचिव के रूप में नियुक्ति बहुत बड़ी बात थी। महादेव भाई काफी प्रसन्न हुए। उन्होंने उत्साहित होकर पूछा, 'कब से काम शुरू करूं?' गांधी जी बोले, 'बस अभी से शुरू कर दो।' इस पर महादेव भाई बोले, 'लेकिन मेरे पास तो कुछ काम है। मुझे जाना होगा। मैं चाहता हूं कि घर पर सूचना दे आऊं।'

गांधी जी ने कहा, 'अब तुम घर नहीं जाओगे। अपने आप को देश की सेवा में समर्पित करने वालों को सब कुछ छोड़ना होता है। अपने अतीत से चिपके रहोगे तो समर्पण कैसे कर पाओगे।' महादेव भाई गांधी जी का आशय समझ गए। उन्होंने उसी समय से अपना काम संभाल लिया। उन्होंने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन्होंने खुद को एक योग्य सचिव साबित किया। गांधी जी अपने निर्णयों में उनकी सलाह लेते रहते थे। इस तरह महादेव भाई ने स्वतंत्रता संग्राम में अपने तरीके से योगदान किया। उनकी डायरी एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है।

सबसे बड़ा उपहार

बगदाद का बादशाह बेहद उदार व दयालु था। वह निर्धनों की सहायता में हर समय लगा रहता था। बगदाद से थोड़ी दूर एक गांव में एक गरीब परिवार रहता था। वह किसी तरह रूखा-सूखा खाकर अपना गुजारा करता था।

एक दिन पत्नी ने पति से कहा, 'तुम देख रहे हो कि हमारे पास खाने के लिए कुछ भी नहीं है। तुम्हें ऐसी कोशिश करनी चाहिए कि कम से कम दोनों समय पेट भर भोजन तो मिल सके।' पति बोला, 'तुम्हारा कहना सही है, पर संसार में किसी की हालत हमेशा एक जैसी नहीं रहती। अमीरी और गरीबी दोनों धूप-छांव की तरह आती-जाती रहती हैं। मनुष्य का सबसे महत्वपूर्ण धन संतोष है। निश्चिंत रहो, समय पर सब कुछ ठीक हो जाएगा।'

पत्नी ने झुंझला कर कहा, 'तुम हमेशा यही बोलते रहते हो। मेरी बात मानो। बगदाद का बादशाह बहुत दानी है। जो उसके पास जाता है, उसे वह खुले हाथों दान देता है। तुम जल्दी ही बगदाद के लिए रवाना हो जाओ।' पति ने कहा, 'बात तो तुम्हारी ठीक है, पर बादशाह के पास खाली हाथ भी नहीं जाया जाता। उसके लिए क्या उपहार ले जाऊं?'

पत्नी ने कहा, 'बादशाह के खजाने में हीरे-मोती हो सकते हैं, पर हमारे यहां का पानी वहां मिलना कठिन है। हमारा पानी मीठा व सुस्वादु है। इसे ही उपहार के रूप में ले जाओ।' पति ने पहले तो मना किया पर पत्नी के जोर देने पर शीतल जल से भरी मशक लेकर बादशाह के पास पहुंचा। बादशाह ने प्रसन्न होकर उसके मशक को उपहार के रूप में स्वीकार किया और उस पानी को बर्तन में खाली करवा कर उसकी मशक अशर्फियों से भरकर उसे वापस दे दी। जब पति घर पहुंचा तो पत्नी बोली, 'महान लोग यह नहीं देखते कि उपहार कितना बड़ा या कीमती है। वे तो सिर्फ भेंट देने वाले का मन पढ़ते हैं। वे देखते हैं उसका मन कितना शुद्ध है। शुद्ध मन ही सबसे बड़ा उपहार है।'

जीवन का सच

एक बार किसी गांव में एक महात्मा पधारे। उनसे मिलने पूरा गांव उमड़ पड़ा। गांव के हरेक व्यक्ति ने अपनी-अपनी जिज्ञासा उनके सामने रखी। एक व्यक्ति ने महात्मा से पूछा, 'महात्मा जी, ऐसा क्या करें, जिससे जीवन की सभी चिंताओं से मुक्ति मिल जाए और कोई भी काम अधूरा न रहे।' यह सुनकर महात्मा जी मुस्कराए, फिर उन्होंने कहा, 'पहले तुम मुझे कुछ जिंदा मेंढक लाकर दो, उसके बाद तुम्हारे इस सवाल का जवाब दूंगा।' यह सुनकर लोग चकराए।

लेकिन महात्मा जी का आदेश था, सो कुछ लोग जल्दी से तालाब पर पहंुचे और बड़ी मुश्किल से कुछ मेंढक पकड़ लाए। फिर महात्मा जी ने तराजू लाने को कहा। एक आदमी तराजू ले आया। महात्मा जी ने लोगों से कहा कि वे मेंढकों को तौलंे और उनका कुल वजन बताएं। यह कहकर महात्मा जी चले गए। उसी व्यक्ति ने मेंढकों को तौलना शुरू किया जिसने प्रश्न किया था। उसने ज्यों ही मेंढकों को पलड़े पर रखा, कभी एक मेंढक उछलकर भाग निकलता तो कभी दूसरा। फिर लोग उन्हें पकड़कर लाते और तराजू पर रख देते।

लेकिन उन्हें स्थिर रख पाना बेहद कठिन था। लोग दिन भर प्रयास करते रहे। शाम होने पर महात्मा जी फिर वहां पहुंचे। उन्होंने लोगों से यह काम बंद करने को कहा। सारे मंेढक भाग निकले। महात्मा जी ने कहा, 'जैसे इतने जिंदा मेंढकों को खुले तौर पर तौलना संभव नहीं, उसी प्रकार संसार में सब ठीकठाक करके निश्चिंत रहना संभव नहीं है। उद्यम, साहस, धैर्य, बुद्धि, शक्ति और पराक्रम, इन सद्गुणों को जीवन में धारण करो और अपना दायित्व निभाओ।'

जीवन का रहस्य

राजा सुषेण के मन में कुछ प्रश्न थे, जिनके उत्तर की तलाश में वह एक महात्मा के पास पहुंचे। महात्मा ने कहा, 'अभी मेरे पास समय नहीं है। मुझे अपनी वाटिका बनानी है।' राजा भी उनकी मदद करने में जुट गए। इतने में एक घायल आदमी भागता-भागता आया और गिरकर बेहोश हो गया। महात्मा जी ने उसके घाव पर औषधि लगाई। राजा भी उसकी सेवा में लग गए। जब वह आदमी होश में आया तो राजा को देखकर चौंक उठा। वह राजा से क्षमा मांगने लगा।

जब राजा ने इसका कारण पूछा तो उसने बताया कि वह राजा को मारने के इरादे से निकला था, लेकिन सैनिकों ने उसके मंसूबों को भांप लिया और उस पर हमला कर दिया। वह किसी तरह जान बचाकर भागता हुआ इधर पहुंचा है। महात्मा जी के कहने पर राजा ने उसे क्षमा कर दिया। लेकिन तब राजा ने महात्मा से प्रश्न किया, 'मेरे तीन प्रश्न हैं। सबसे उत्तम समय कौन-सा है, सबसे बढि़या काम कौन सा है और सबसे अच्छा व्यक्ति कौन है।'

महात्मा बोले, 'हे राजन, इन तीनों प्रश्नों का उत्तर तो तुमने पा लिया है। फिर भी सुनो। सबसे उत्तम समय है वर्तमान। आज तुमने वर्तमान समय का सदुपयोग करते हुए मेरे काम में हाथ बंटाया और वापस जाने को टाला, जिससे तुम बच गए। अन्यथा वह व्यक्ति बाहर तुम्हारी जान ले सकता था। और जो सामने आ जाए, वही सबसे बढि़या काम है। आज तुम्हारे सामने बगीचे का कार्य आया और तुम उसमें लग गए। वर्तमान को संवार कर उसका सदुपयोग किया। इसी कर्म ने तुम्हें दुर्घटना से बचाया। और बढि़या व्यक्ति वह है, जो प्रत्यक्ष हो। उस आदमी के लिए अपने दिल में सद्भाव लाकर तुमने उसकी सेवा की, इससे उसका हृदय परिवर्तित हो गया और तुम्हारे प्रति उसका वैर भाव धुल गया। इस प्रकार तुम्हारे सामने आया व्यक्ति, शास्त्रानुकूल कार्य व वर्तमान समय उत्तम हैं।' जीवन के इस रहस्य को जान कर राजा महात्मा के सामने नतमस्तक हो गए।

उदारता की राह

पंडित मदनमोहन मालवीय का कहना था कि यदि मूक जीवों का कष्ट समझकर हम इंसान उनके हित में कुछ कर सकें तो शायद इससे बढ़कर दूसरा कोई पुण्य नहीं होगा। यह बात उनके आचरण में हमेशा दिखती थी। उनके भीतर प्राणी मात्र के लिए दया थी। इससे जुड़ी एक घटना बड़ी चर्चित है। मालवीय जी किसी जरूरी काम से कहीं पैदल जा रहे थे। रास्ते में उन्हें एक कुत्ता छटपटाता दिखाई दिया। उसके कान के पास एक घाव था और वह पीड़ा के मारे इधर-उधर भाग रहा था। उसकी कराह सुनकर मालवीय जी से रहा नहीं गया। उन्होंने अपना काम निपटाने का विचार छोड़ा और पशु चिकित्सालय दौड़ते हुए गए।

वैद्य जी को कुत्ते की तकलीफ बताकर दवा मांगी। वैद्य जी ने दवा तो दे दी, मगर बोले, 'मदनमोहन, ऐसे कुत्ते प्राय: पागल हो जाते हैं। छूने पर काट भी लेते हैं। तुम इस खतरे में न पड़ो तो अच्छा है।' किंतु मालवीय जी नहीं माने। वह कष्ट में पड़े किसी प्राणी से मुंह नहीं फेर सकते थे। उन्होंने दवा लेकर एक लंबे बांस में कपड़ा लपेटा और कुत्ते को ढूंढने लगे। कुत्ता एक संकरी गली में बैठा था। मालवीय जी ने पहले कपड़े पर दवा लगाई फिर बांस की सहायता से कुत्ते को दवा लगाना शुरू किया। कुत्ता गुर्राता, दांत निकालता और झपटने की भी कोशिश करता रहा, किंतु मालवीय जी बिना डरे उसे दवा लगाते रहे। जब कुत्ते की पीड़ा कम हुई तो वह सो गया। तब मालवीय जी को शांति मिली और वह अपने कार्य के लिए रवाना हुए।

विचित्र आशीर्वाद

राजा संत के पास गया। संत ने राजा को आशीर्वाद दिया, 'सिपाही बन जाओ।' यह बात राजा को अच्छी नहीं लगी। दूसरे दिन राजा ने अपने राज्य के सबसे बड़े विद्वान को संत के पास भेजा। संत ने कहा, 'अज्ञानी बन जाओ।' विद्वान भी नाराज होकर लौट गए। इसी तरह जब नगर सेठ आया तो संत ने आशीर्वाद दिया, 'सेवक बन जाओ।' सेठ भी रुष्ट होकर वापस आ गया।

संत के आशीर्वाद की चर्चा राज दरबार में हुई। लोग कहने लगे कि यह संत नहीं, धूर्त है, तभी अनाप-शनाप आशीर्वाद देता है। किसी ने कहा कि संत जरूर मानसिक संतुलन खो चुके हैं। एक दिन राजा ने अपने सैनिक भेजकर संत को राजदरबार में बुलाया। राजा ने संत से कहा, 'आप ने आशीर्वाद देने के बहाने सभी लोगों का अपमान किया है, इसलिए आपको दंड दिया जाएगा।'

यह सुनकर संत हंस पड़े। राजा ने जब इसका कारण पूछा तो संत ने कहा, 'लगता है इस राज दरबार में सब मूर्ख हैं। मैंने जो कहा है, ठीक कहा है। मैंने राजा को कहा कि सिपाही बन जाओ क्योंकि राजा का कर्म है राज्य की सुरक्षा करना। सिपाही का काम भी रक्षा करना होता है। विद्वान को अज्ञानी बन जाने को कहा। इसका तात्पर्य यह है कि विद्वान ज्ञानी होता है। कहीं उसे अपने ज्ञान का अभिमान न हो जाए, इसीलिए मैंने उसे अज्ञानी बनने को कहा था। सेठ का कर्त्तव्य होता है, अपने धन से गरीबों की सेवा करना। इसीलिए मैंने उसे सेवक बनने का आशीर्वाद दिया।' यह सुनकर राजा ने संत से क्षमा मांगी।

इंसानियत का कारखाना

एक बार एक सज्जन महान वैज्ञानिक आइंस्टीन के पास आए। उन्होंने कुछ देर तक उनसे इधर-उधर की चर्चा की फिर बोले, 'आज विज्ञान ने एक से बढ़कर एक सुख-सुविधाओं के साधन बनाने में सफलता पा ली है। अब पलक झपकते ही दूरियां तय हो जाती हैं, कुछ ही क्षणों में सुविधाओं की सारी चीजें हमारे पास आ जाती हैं, मगर फिर भी जाने क्या बात है कि समाज में अशांति, असंतोष, कलह व बुराई पहले की अपेक्षा ज्यादा पनप रही है। आखिर इसका क्या कारण है? सुविधाएं अधिक होने पर तो इंसान को प्रसन्न होना चाहिए। उसके मन को शांति व संतोष भी मिलना चाहिए।' उस सज्जन की बातें सुनकर आइंस्टीन बोले, 'मित्र, हमने शरीर को सुख पहुंचाने वाले तरह-तरह के साधनों को खोजने में अवश्य सफलता प्राप्त कर ली है किंतु जीवन में असली सुख-शांति मन-मस्तिष्क को आंतरिक आनंद प्राप्त होने से मिलती है। क्या हमने इंसानियत का ऐसा कोई कारखाना लगाया है, जिससे लोगों के अंदर मर रही संवेदनाओं को जीवित किया जा सके, उनके अंदर त्याग, ममता, करुणा, प्रेम आदि को उत्पन्न किया जा सके? क्या हमने ऐसा कोई कारखाना बनाया है जहां पर मन-मस्तिष्क को आनंद देने वाले साधनों का निर्माण किया जाता हो?'

आइंस्टीन की बात सुनकर वह सज्जन चकराए। उन्हें लगा शायद आइंस्टीन ऐसा कोई कारखाना लगाने के बारे में सोच रहे हों, तभी ऐसी बात कर रहे हैं। लेकिन उन्हें लगा कि यह तो मुमकिन नहीं है। इसलिए कुछ देर सोचने के बाद उन्होंने अपनी जिज्ञासा रखी, 'भला इंसानियत के कारखाने का निर्माण कैसे संभव है? इंसानी भावनाएं तो इंसान के अंदर पनपती हैं मशीन के अंदर नहीं।' उनकी बात सुनकर आइंस्टीन ने मुस्कराते हुए कहा, 'जनाब, बिल्कुल ठीक कहा आपने। अशांति-असंतोष दूर करने के लिए हमें लोगों में इंसानियत की भावना पैदा करने की ओर ध्यान देना होगा। भौतिक साधनों से सुख-शांति कदापि नहीं मिल सकती।' वह सज्जन आइंस्टीन की बात से सहमत हो गए।