पेशवा माधवराव के शासन में लोगों से बेगार लेकर सरकारी कार्य करवाए जाते थे, जिन्हें श्रमदान कहा जाता था। लोगों से प्राय: जबरदस्ती काम करवाए जाते थे। राम शास्त्री उस समय प्रधान न्यायाधीश थे। एक दिन वह कहीं जा रहे थे। रास्ते में उन्होंने देखा कि एक सिपाही किसी नौजवान किसान को पीट रहा था। उसकी मां रो-रोकर उसे छोड़ देने की प्रार्थना कर रही थी। वह किसान अपनी मां का इकलौता बेटा था और अपने खेत का काम कर रहा था। यदि वह बेगार निपटाने जाता तो उसके खेत का काम अधूरा रह जाता। यह दृश्य देखकर राम शास्त्री सिपाही के पास गए और नवयुवक को छोड़ देने को कहा। सिपाही ने प्रधान न्यायाधीश की बात नहीं मानी बल्कि उन्हें सरकारी कार्य में बाधा डालने के आरोप में पेशवा के सम्मुख पेश कर दिया।
उन्हें देखकर पेशवा माधवराव बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने कहा कि प्रधान न्यायाधीश भी सरकारी कार्य में बाधा डालने के आरोप में दंड का हकदार है। यह सुनकर राम शास्त्री बेहद विनम्र स्वर में पेशवा से बोले, 'सरकार, आप मुझे जो भी दंड देंगे वह स्वीकार है। मगर इन दिनों खेतों में काम बहुत है। अगर ये मजदूर अपना काम छोड़कर आपकी सेवा में आते हैं तो इनके खेत बेकार पड़े रहेंगे। इससे इनका तो नुकसान होगा ही, साथ ही राज्य को भी हानि होगी। इनसे उस समय काम लेना चाहिए जब इनके पास खेतों का कोई विशेष कार्य न हो।' फिर वह पकड़े गए किसानों की ओर देखकर बोले, 'बोलो, तुम क्या चाहते हो?' इस पर सभी किसान एक स्वर में बोले, 'यही, जो आपने कहा। हमें अपने राजा के लिए काम करने से इनकार नहीं है पर समय उचित होना चाहिए।'
किसानों की बात सुनकर पेशवा को अपना निर्णय बदलना पड़ा। उन्होंने सबको सकुशल घर लौट जाने की आज्ञा दे दी। साथ ही बेगार की प्रथा को भी समाप्त कर दिया। इसके लिए किसानों ने राम शास्त्री के प्रति आभार प्रकट किया।
Thursday, November 3, 2011
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