लगभग डेढ़ हजार साल पहले बोधिधर्म नामक एक भिक्षु चीन की यात्रा पर गया। वहां का राजा वू बहुत ही धार्मिक प्रवृत्ति का था। उसने बहुत से मंदिर व मूर्तियां बनवाई हुई थीं। लोग राजा वू की प्रशंसा करते नहीं थकते थे। जब वू को पता चला कि भारत से कोई बौद्ध भिक्षु आए हैं, तो वह मिलने पहुंचा। उसने बोधिधर्म से पूछा, 'हे बोधि, मैंने इतने मंदिर बनवाए, मूर्तियां बनवाईं, धर्म के लिए अथाह पैसा बहाया, लेकिन मुझे यह सब करने से क्या मिलेगा?' राजा वू का प्रश्न सुनकर बोधिधर्म मुस्कुराते हुए बोले, 'कुछ भी नहीं।' सुन कर राजा चकित रह गया। उसने सोचा था कि उसे खूब वाहवाही मिलेगी। अभी तक जिन भिक्षुओं से भी उसकी बातचीत हुई थी, सभी ने उसकी मुक्त कंठ से सराहना की थी और उसकी दान भावना को सराहा था। वू ने बोधिधर्म का जवाब सुनकर पूछा, 'ऐसा क्यों? मैं धार्मिक व्यक्ति हूं। खुले हाथों से दान करता हूं। मंदिरों व धार्मिक कार्यों के लिए धन देने में किसी भी बाधा की परवाह नहीं करता। फिर आपने ऐसा क्यों कहा?'
उसकी बात पर बोधिधर्म बोले, 'इसलिए क्योंकि यह सब कुछ तुमने अपनी प्रशंसा व स्वार्थ के ध्येय से किया है, श्रद्धावश नहीं किया। श्रद्धावश किया होता तो मन में यह प्रश्न ही नहीं उठता कि मुझे क्या मिलेगा। राजा ने पूछा, तब मुझे क्या करना चाहिए? बोधिधर्म ने समझाया, अपने मन से पूछो कि क्या तुम अपनी प्रजा की प्रसन्नता के लिए व्याकुल रहते हो, उनकी मदद को आतुर रहते हो। भला ईश्वर को मंदिरों या मूर्तियों का क्या मोह? सच्चे मन से याद करो तो एक निर्धन-लाचार में भी नारायण के दर्शन हो सकते हैं। ईश्वर तो कण-कण में है, उसे रूप देने की क्या आवश्यकता? मात्र ईश्वर का गुणगान करने से ही तुम धार्मिक सिद्ध नहीं हो जाते। बोधिधर्म की बातें सुनकर राजा वू की आंखें खुल गईं और उसने मंदिर बनवाने की जगह सच्चे दिल से प्रजा की सेवा करनी आरंभ कर दी।
Friday, November 4, 2011
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