एक बार एक गृहस्थ व्यक्ति सभी दिशाओं को नमस्कार कर रहा था। उसकी इस गतिविधि को एक संत और उनके शिष्य देख रहे थे। एक शिष्य ने संत से पूछा , ' यह व्यक्ति दिशाओं की पूजा क्यों कर रहा है ?' संत बोले , ' चलो , उसी से पूछ लेते हैं। ' प्रश्न सुनकर वह व्यक्ति असमंजस में पड़ गया और बोला , ' यह तो मुझे भी नहीं पता। आप ही बताइए न। ' संत बोले , ' पूजा करने की दिशाएं भिन्न होती हैं माता - पिता और गृहपति पूर्व दिशा है। आचार्य दक्षिण , स्त्री - पुत्र - पुत्री पश्चिम और मित्र आदि उत्तर दिशा है।
सेवक और श्रमण - ब्राह्मणों के लिए भी दिशाएं निर्धारित हैं। इसलिए सभी दिशाओं का पूजन किया जाता है। इन सभी दिशाओं का सच्चे हृदय से पूजन करने से लाभ होता है । ' संत का जवाब सुनकर वह व्यक्ति बोला , ' और तो सब ठीक है महाराज। मैं सबकी पूजा सच्चे हृदय से कर सकता हूं , परंतु सेवकों की पूजा कैसे की जा सकती है ? सेवक तो स्वयं मेरी सेवा करते हैं । ' यह सुनकर संत बोले , ' पूजा का अर्थ केवल हाथ जोड़ना अथवा सिर झुकाना नहीं है , सेवकों की सेवा का स्वरूप उनके प्रति स्नेह और वात्सल्य दर्शाने में है , उनकी हर संभव मदद करने में है और उनसे प्रेम से बात करने में है । '
यह सुनकर वह व्यक्ति बोला , ' आपने मुझे सही ज्ञान कराया है। अभी तक तो मैं मात्र हाथ जोड़कर सिर नवाने को ही पूजन समझता था किंतु आज आपने मुझे असली दिशा पूजन की विधि समझाई है और मैं भविष्य में इसी तरह से पूजन कर अपने जीवन को सफल बनाऊंगा। '
Friday, November 4, 2011
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